एक जमाने में अकबर ने भी इस्लामिक सुधार करने की एक कोशिश की

जब  यह खबर पढ़ी तो मेरे मन में कई सवाल उठे हालाँकि मुझे इस समाचार से आशा भी नजर आई और निराशा भी. और साथ ही सवाल यह भी जगा कि आखिर इतना अच्छा और आदर्श सपना फैल क्यों हुआ? केरल में आज से 10 साल पहले एक ही तरह की सोच और एक ही विचारधारा के मानने वाले दो दर्जन मुस्लिम परिवारों ने फैसला किया कि वो आबादी से कहीं दूर, जंगल के करीब जाकर अपना एक अलग गाँव बसाएँगे. उनकी कोशिश थी एक आदर्श इस्लामी समाज बनाने की जहाँ एक मस्जिद हो, एक मदरसा हो और जहाँ शांति से इस्लाम में बताए हुए सही रास्ते पर बिना किसी रुकावट के चला जा सके. ये लोग कट्टरपंथी सुन्नी विचारधारा सलफी इस्लाम के मानने वाले हैं.

उनका विचार था कि खुद से आबाद किए गए गाँव में हम असली इस्लाम पर अमल कर सकेंगे. वो बताते है हमने कल्पना की थी कि गाँव से गाड़ी से निकलेंगे और गाड़ी से वापस लौटेंगे, रास्ते में किसी से संपर्क नहीं होगा. उनका इरादा पैगम्बर मोहम्मद के जमाने के इस्लामी समाज की स्थापना का था. कालीकट शहर से 60 किलोमीटर दूर, एक वीरान इलाके में, जंगल के निकट आबाद किए गए इस गाँव को अतिक्कड का नाम दिया गया. एक मस्जिद बनी, मदरसा भी बना. लोगों ने अपने घर बनाए. लेकिन जिस कट्टर विचारधारा ने गाँव में 25 परिवारों को एक साथ जोड़ा था, उसी विचारधारा ने उनमें फूट भी डाल दी. हुआ यह कि मदरसे के मुख्य अध्यापक ने एक बार छोटे बच्चों को अपनी गोद में बैठाया जिस पर गाँव के सलाफियों ने एतराज जताया. ये सहमति बनी कि मुख्य अध्यापक को इसकी सजा मिलनी चाहिए. लेकिन इस सजा ने मतभेद पैदा किये और यह सपना चकनाचूर हो गया.

हालाँकि यह सपना नितांत असंभव और शेखचिल्ली के सपने जैसा है. जो कभी सच्चा नहीं हो सकता. क्योंकि विचारधारा का टकराव आज से नहीं है इसका इसके इतिहास से गहरा नाता है. एक जमाने में अकबर ने भी इस्लामिक सुधार करने की एक कोशिश की थी लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा. क्योंकि सलफी विचारधारा के तीन चरण होते हैं. पहले चरण में शुद्ध इस्लाम को माना जाता है, दूसरे चरण में कट्टरता बढ़ती है और तीसरे चरण में सलफी मुस्लिम कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. कुछ समय पहले जब लेखिका अयान हिरसी अली से प्रश्न किया गया कि क्या वे इस विचार से सहमत हैं कि क्रन्तिकारी इस्लाम समस्या है और नरमपंथी इस्लाम समाधान? तो उन्होंने उत्तर दिया था, “उनका मानना गलत है मुझे इसका दुख है.” मैं और वे एक ही खाई में घिरे हैं और समान लक्ष्य के लिये संघर्ष कर रहे हैं और मेरे लिए इस्लाम समस्या है या धर्म, ये समझना बहुत मुश्किल है.

जैसे ही भारत से बाहर निकलते है तो इस्लाम का आदर्शवाद छिन-भिन्न होता दिखाई देता है. इसके उद्भव से ही देखिये शिया-सुन्नी विचारधारा टकराव रहा है. जरा सोचिये ईरान-ईराक युद्ध क्यों हुआ था, पाकितान से बंगलादेश अलग क्यों हुआ? मिस्र, लीबिया, सीरिया, यमन तुर्की आदि देशों में देखा जाये तो सिर्फ विचारधारा का ही टकराव है. यदि नरमपंथ की बात करें तो इस समय मुसलमानों के 73 फिरके हैं, बरेलवी, देवबंदी आदि भी एक दुसरे की अंदरूनी विचारधारा के अनुरूप सही नहीं बैठते. उनका आपसी मतभेद साफ नजर आता है.

पाकिस्तानी लेखक हसन निसार कहते है कि वर्तमान समय में इस बात पर जोर देना होगा कि कुरान और हदीथ जो कि इस मजहब के मूल स्तम्भ हैं उन्हें किस रूप में समझा जाये. इस स्थिति को मुखरता देने का अर्थ है कि इसकी त्रुटि को सामने लाना क्योंकि किसी भी चीज का पालन मनुष्य सदैव एक समान नहीं कर सकता. सभी का इतिहास होता है. सभी का एक भविष्य होता है जो कि अतीत से भिन्न होता है. कुछ लोगों द्वारा इस बात को कहना कि इस्लाम कभी परिवर्तित नहीं हो सकता. अल्लामा इकबाल जोकि  à¤‡à¤¸à¥à¤²à¤¾à¤®à¥€ उम्र के एक बेहतरीन विचारको में से एक थे वो कहा करते थे कि खुद नहीं बदलते कुरान को बदल देते है. जिस कारण इस्लाम एक पिछ्डा, आक्रामक और हिंसक शक्ति का प्रतिनिधित्व करने लगता है.? क्या इस्लामी अधिकारी अपने मजहब की ऐसी समझ बना सकते हैं जो कि गैर मुसलमानों और महिलाओं को सम्पूर्ण अधिकार दे साथ ही मुसलमानों को भी अपनी आत्मा की आवाज सुनने की स्वतंत्रता प्रदान करे? आदर्शवादी सुधारवादी मुसलमानों को अपने मध्यकालीन पूर्वजों से अच्छा करना होगा और अपनी व्याख्या धर्मग्रंथों और युगानुकूल संवेदना के संदर्भ में करनी होगी. अपने से गैर मजहबी पड़ोसी को भी स्वीकार करना होगा. उसकी पूजा उपासना के ढंग से नफरत छोडनी होगी. कानूनी प्रक्रिया सहित अन्य मामलों में अपने साथी एकेश्वरवादियों का आचरण पालन करना होगा...राजीव चौधरी

ALL COMMENTS (0)