क्या वो इस बात को नकार सकते सकते है कि वहां की राजनीति पर ईसाइयत हावी नहीं है?

पिछले महीने से भारत का पूर्वोत्तर इसाई बाहुल राज्य नागालेंड हिंसा में जल रहा है. हिंसा और आगजनी के कारण अधिकतर सरकारी इमारते प्रदर्शनकारियों द्वारा आग के हवाले कर दी गयी. जिस कारण सभी सरकारी कामकाज रुके हुए है. दरअसल हिंसा तब भड़की जब मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग ने नगर निकाय के चुनावों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही थी. इस फैसले के खिलाफ आदिवासी समूह भड़क उठे और राज्य में जमकर हिंसा हुई जिसमे दो लोगों की मौत भी हो गयी. हिंसा के बाद जेलियांग ने अपना आदेश वापस लिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी दे दिया. हमारे देश में खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली मीडिया, दिल्ली के अन्दर वातानुकूलित पुस्तकालयों में नारी मुक्ति के आन्दोलन चलाने वाले बुद्धिजीवी नागालेंड हिंसा से मुंह फेरे बैठे है. कारण इस हिंसा का असली सच कहीं न कहीं सीधे-सीधे ईसाइयत से जुडा है.

नागालेंड 18 वीं 19 सदी ईसाई मिशनरियों के यहाँ पहुंचने पहले तक नागा समुदाय जीववादी, प्रकृति के तत्वों की पूजा करने वाले थे. समाज भले ही पुरुष प्रधान हो लेकिन महिला के अधिकार उतने ही थे जितने वैदिक काल में भारतीय नारी के. लेकिन बीसवीं सदी के अंत तक राज्य की 90 फीसदी से अधिक आबादी ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया और बाइबल के अनुसार नारी को शैतान की बैटी मानकर उसे अधिकारों से वंचित कर दिया. आज नगालैंड के हर गांव में कम से कम एक या दो चर्च है. जो इसाई समुदाय दिल्ली में बैठा यूरोप में नारी की स्वतंत्रता के किस्से सुनाता है क्या वो नागालेंड में जाकर उनके अधिकारों की बात कर सकता है. आज नागालेंड में महिलाओं से जुड़े उनके अधिकारों और उनके राजनेतिक अस्तित्व पर हिंसा ने प्रश्नचिंह अंकित कर दिया कि क्या नगा महिलाओं को रसोई घर तक ही सीमित रहना चाहिए या फिर समाज की तय की गयी हदों को लांघ कर अपनी खुद की पहचान बनाने के लिए आगे आना चाहिए. ये बहस इसलिए है क्योंकि नगालैंड में महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व बिल्कुल ही नहीं है.

समाचार पत्रों की एक रिपोर्ट के अनुसार नगालैंड को अलग राज्य का दर्जा मिले 50 साल हो गए हैं और आजतक यहाँ की विधानसभा में एक भी महिला विधायक नहीं रही है. अलबत्ता 1977 में रानो मेसे शाजिआ सांसद चुनी गईं थीं. दिखने को तो मौजूदा संकट महिलाओं को आँगन के पार न निकलने देने के लिए ही दिखाई पड़ता है. नगालैंड की राजनीति या समाज में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कभी रहा ही नहीं. किन्तु समय-समय पर महिलाएं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष जरुर करती रहीं हैं. नगालैंड के आदिवासी बहुल इलाकों में पारंपरिक क़ानून लिखित नहीं हैं इसलिए अपने हिसाब से लोग इनकी व्याख्या करते हैं. ज्यादातर मामलों में पुरुषों के पक्ष में व्याख्या की जाती है  नागा जनजाति की महिला ग्राम परिषद् की सदस्य भी नहीं हो सकतीं. महिलाओं का पुश्तैनी संपत्ति पर अधिकार नहीं. मतलब साफ है यहाँ के बेहिसाब चर्चो से वो फरमान निकलते है जो कभी छटी सातवीं शताब्दी में यूरोप में लागू थे.

बाइबल कहती है कि गॉड ने आदम की एक पसली से स्त्री की रचना की जो पुरुष के मन बहलाव के लिए बनाई गयी थी. पुरुष को सम्मोहित करने वाली जादूगरनी डायन है अत: स्त्री को यातना देना पुण्य कार्य है, स्त्री तथा इस धरती को अपने अधीन दबाकर रखना आज्ञाकारी हर इसाई पुरुष का कर्तव्य है और यह कर्तव्य उसे बुद्धि और बल के हर संभव अधिकतम उपयोग के साथ करना है. इन्ही मूलभूत मान्यताओं के कारण इसाई समाज महिलाओं को शैतान की बेटी तथा शैतान का उपकरण माना जाता रहा है. यही नहीं ईसाइयत में किसी महिला का माँ बनना भी पाप है यदि कोई माँ बनती है तो यह उसे गॉड द्वारा दण्डित किये का परिणाम है. यदि किसी समाज में इस तरह की मान्यताओं को सही माना जायेगा तो उक्त समाज में नारी की दशा आप खुद सोच सकते है.

जो राजनैतिक समीक्षक इस हिंसा को सत्तारूढ़ गठबंधन के अंदरूनी कलह के रूप में बता रहे है क्या वो इस बात को नकार सकते सकते है कि वहां की राजनीति पर ईसाइयत हावी नहीं है? कश्मीर के मदरसों की तरह ही वहां चर्च के पादरी सीधे-सीधे सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करते है?  à¤•à¥à¤¯à¥‹à¤‚कि इस ताजा हिंसा के मामले में भी बेपिस्ट चर्चो की मध्यस्थता वहां ली जा रही है. नगालैंड में 28 जनवरी के बाद से जो कुछ सामने आया है, उसने ऐसे कई सवालों को जन्म दिया है जिनका उत्तर खोजा जाना चाहिए. इससे सतही धारणा तो यही बनती है कि शक्तिशाली स्थानीय समूह महिला आरक्षण का विरोधी है. मीडिया की मुख्यधारा यही समझ रही है और देश की सरकार भी यही समझाना चाह रही है, पर हकीकत इससे कोसों दूर है. हर बात में यूरोप की नारी मुक्ति का उदहारण देने वाले पादरी क्या इस बात के लिए संजीदा हो सकते है कि उन्हें उनके अधिकार मिलने चाहिए अगर नागालैंड में चुनाव में कोई महिला उतरती है तो उसे पुरुष वोट भी नहीं देना चाहते? ऐसा क्यों? इसका कारण भी वहां तलाशा जाना चाहिए. वहां बलात्कार, प्रताड़ना और घरेलू हिंसा के मामले आम हैं. उसी तरह महिलाओं को राजनीति में भाग लेने की मनाही भी है. उन्हें संपत्ति का अधिकार भी नहीं दिया गया है. जबकि नागालैंड की महिलाएं मेहनती हैं मगर सिर्फ मेहनत करते हुए नजर आने से ही क्या उनका सशक्तीकरण हो जाएगा?

राजीव चौधरी

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