महरषि  दयाननद और आरय समाज की मानयताओं और सिदधानतों के अनसार ईशवर सृषटि को बनाकर अमैथनी सृषटि में उतपनन, आदि, परथम व सृषटि की पहली पीढ़ी में उतपनन, चार ऋषियों अगनि, वाय, आदितय और अंगिरा को चार वेदों, ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद तथा अथरववेद का जञान देता है। यह चार ऋषि वरतमान कलप के आदि  परूष हैं। हमारी तरह से इनके भौतिक माता-पिता नहीं थे। ईशवर ही इनकी माता भी थी और पिता भी था। सृषटि की 4.32 अरब वरषों की अवधि में ईशवर दवारा पनः वेदों का आविरभाव व वेदारथ जञान दि जाने, जनाने आदि का कोई विवरण उपलबध नहीं है। सृषटि के आरमभ से अब तक वयतीत 1.96 अरब वरषों की अवधि में पनः वेदों का जञान नहीं दिया गया जिसका अरथ है कि ईशवर इस कलप की शेष अवधि में भी नहीं देगा। इस कारण यही मानयता परचलित है कि ईशवर वेदों और वेदारथ का जञान सृषटि के आरमभ में केवल क ही बार देता है। हम सब जानते हैं कि सृषटि के क कलप की अवधि अरथात बरहमा का क दिन 4.32 अरब वरष का होता है। इस अवधि में क व अनेकों बार वेदों का जञान व सतय वेदारथ लपत हो सकता है या कछ थोड़े से ही लोगों में सीमित हो जाता है। सी सथिति में उस काल में इस पृथिवी के देश व विदेश में रहने वाले सभी मानवों को वेद जञान से वंचित होने के साथ अजञान, अनधविशवास व करीतियों के सहारे अपना जीवन वयतीत करना पड़ता है।

सा ही हमने महाभारत काल के बाद पाया और आजकल भी 90 से 99 परतिशत लोग वेद जञान से रहित अजञान व अनधविशवासों से यकत किंवा मनषय निरमित सतयासतय जञान यकत अनारष धरम व मत पसतकों के आधार पर अपना जीवन वयतीत कर रहे हैं। हमारे मन में परशन उतपनन हआ है कि कया इन परिसथितियों में ईशवर को वेदों के जञान का संसार में पनः परकाश सवयं अथवा कछ ऋषियों को भेजकर करना चाहिये वा नहीं? हम सब जानते हैं कि ईशवर तरिकालदरशी है और वेद उसका नितय जञान है जो सदा-सदैव, परतयेक कषण, उसके साथ रहता है। ईशवर इसके साथ-साथ निराकार, सरववयापक, सरवानतरयामी, सरवजञ और सरवशकतिमान भी है। गायतरी मनतर से हम परारथना करते हैं कि ईशवर हमारी बदधि को शरेषठ मारग पर चलाये। यह वेद मनतर मनषयकृत नहीं है अपित ईशवरकृत रचना है। अब जब सवयं ईशवर ने हमें गायतरी के पाठ से ईशवर से बदधि को शरेषठ मारग पर चलाने की परारथना करने का विधान किया है तो हमारे दवारा सतय जञान अरथात वेद जञान मांगने व आवशयकता होने पर उसे हमें व सृषटि के सभी मनषयों को वेद जञान व वेदारथ अवशय परदान करना चाहिये, सा हमारा विचार है। यदि ईशवर जञान न दे तो गायतरी मनतर में ईशवर से ‘धियो यो न परचोदयात’ की परारथना पूरण सारथक परतीत नहीं होती। हमने सवयं भी अनभव किया है कि हमारे मन में कछ विचार से आ जाते हैं जिनका पूरव संसकार इस जनम में हममें नहीं होता और जब हम उस पर विचार पर चिनतन-मनन करने लगते हैं तो हम कछ नवीन लेख आदि तैयार कर पाते हैं। इससे हमें यह लगता है कि ईशवर सभी पराणियों के हृदय में परेरणा व मारगदरशन करता रहता है। मानयतायें वं सिदधानत भी यही है कि जिसका हृदय शदध व पवितर होता है उसे ईशवर दवारा की गई परेरणाओं का जञान होता है, जिसे जान व सम कर उसके अनसार कारय करने पर उसे सफलता मिलती है। परनत कछ लोग से हैं जो सवारथ या काम, करोध, लोभ, मोह आदि में गरसित रहते हैं, वह ईशवर की पररेणा या परेरणाओं को अनसना कर देते हैं जिससे उनहें परेरणा होना या तो बनद हो जाता है या फिर परेरणा के होने पर उनहें वह सनाई नहीं पड़ती अरथात वह उसे जान व सम नहीं पाते हैं।

हम यह भी देखते हैं और जानते हैं कि ईशवर जीवातमा को उसके परारबध के अनसार जनम या पनरजनम देता है। इसका अरथ है कि जीवातमा के पराने शरीर का तयाग कराकर उसे उसके करमानसार नया शरीर मिलता है। अब यदि जीवातमा मनषय योनि में है और वेदों के जञान से रहित या शूनय है तो उसे कया जीवातमा को वेदों का जञान नहीं देना चाहिये। हमें परतीत होता है कि जीवातमा को अवशय जञान मिलना चाहिये। मनषय को अकषर व भाषा तथा सामानय जञान देने के लि विदयालयों के आचारय हैं। वेदों का जञान अरथात सतय व यथारथ व पूरण वेदारथ कराने की योगयता समभवतः आज के आचारयों में नहीं है और न ही पूरव आचारयों में थी। पूरण वेदारथ तो ईशवर के ही जञान में होना समभव है। मनषय या हमारे ऋषि तो अपनी योगयता व पातरता के अनसार ही अरथ जानते हैं और उनका वयाखयान या परकाश करते हैं। सा ही महरषि दयाननद व उनके अनयायी वेद भाषयकारों ने किया है। अतः किसी क जीवातमा को ही नहीं अपित सारे संसार में वेदों के जञान का परकाश ईशवर को ही करना उचित परतीत होता है। कारण यह कि आज भी विशव के 90 से 99 परतिशत लोग यथारथ वेद जञान से पूरी तरह या अधिकांशतः वंचित हैं। अतः वह सब वेदाचरण करें यह समभव नहीं है। यदि ईशवर उन सब तक वेदों का परकाश नहीं करेगा तो हो सकता आने वाला समय और अधिक निराशाजनक हो जैसा कि महाभारत काल के बाद महरषि दयाननद के समय तक हआ है।

यह भी परशन उतपनन होता कि परमातमा ने सा नियम कयों बनाया कि वह सृषटि के आरमभ में वेदों का जञान देने के बाद परलय से पूरव वेदों का जञान न दें और सी परिसथिति में भी कि जब वेद व वेदारथ अपूरण व पूरण रूप से विलपत हो जाये। ईशवर से चार ऋषियों को चार वेदों का जञान परापत हआ था। वेदारथ भी ईशवर ने चार ऋषियों को जनाये थे। इन चार ऋषियों ने वेद और वेदारथ बरहमाजी को पढ़ाये व जनाये थे। कया जो वेदारथ ईशवर ने अगनि, वाय, आदितय और अंगिरा को जनाया था और इन चार ऋषियों ने बरहमाजी को जनाया था वह उततर काल में यथावत रहा या वह परिवरतित व कछ कछ विसमिृत भी हआ? इस बात के परमाण उपलबध हैं कि ईशवर परदतत वेदारथ महाभारत काल के बाद व वरतमान में भी पूरा उपलबध नहीं है। सी सथिति में सारा मनषय समदाय जिनकी जन संखया इस समय 7 अरब से अधिक हो सकती है, सतय व यथारथ वेदारथ से वंचित है। अतः आज आवशयकता है कि ईशवर मनषयों तक सतय वेदारथ को पहंचाने का परयतन करे। परनत यह परमपरा के विपरीत होने से होने वाला नहीं है। लौकिक उदाहरण में हम देखते हैं कि क शिकषक, आचारय और गरू अपने शिषय को बार-बार पाठ पढ़ाते है। शिषय यदि गरू जी से बार-बार कछ परशन पूछता है तो गरू जी को बताने में परसननता होती है। शिषय भूल जाये और गरू के पास जाकर पूछे तो गरूजी उसकी पातरता देखकर उसे विसमृत बात या पाठ बता देते हैं। परनत वेदों के बारे में ईशवर सा नहीं करता है। सारा संसार वेदों को भूला हआ है परनत ईशवर उन तक वेदों को पहंचाने की वयवसथा नहीं कर रहा है। इस लि हमें यह विचार करना है कि यदि ईशवर वेद जञान व वेदारथ नहीं दे रहा है तो इसके पीछे कया कारण हो सकते हैं। आईये, इसके कारणों पर विचार करते हैं।

हमें यह लगता है कि ईशवर के पास वेदों का जो जञान है वह नितय है व हर काल में उसके साथ रहता है। अतः उसे यह जञान मनषयों की आतमाओं मे परकाशित करने में कोई कठिनाई, देश व काल की दूरी व जञान की अनपलबधता आदि, नहीं है। हो सकता है हमारे मन व आतमा पूरण शदध न होने के कारण हमें उसके वेद जञान का आभास व अनभव न हो पाता हो। सी सथिति में ईशवर को पनः दयाननद के समान ऋषियों को उतपनन कर व भेजकर शेष धरती के लोगों को वेद जञान से यकत करना चाहिये। इतना ही नहीं हमें तो यह भी उचित लगता है कि ईशवर को हमारी व सभी मतावलमबियों की आतमाओं में वेदों के परति सतय आसथा उतपनन करनी चाहिये जिससे सभी वेदानसार ही करतवय-करम व धरमपालन करें। सतयासतय समनवित अनारष मतों के परति ईशवर को हमारे मन में गलानि व विरकति जैसे गण भी उतपनन करने चाहियें। जब यह जञान होगा तभी तो हम वेदानसार करम कर पायेंगे। इस दिशा में विदवानों को चिनतन कर इस परशन का समाधान परसतत करना चाहिये। ईशवर का मनषयों को दूसरी बार वेदों का जञान न देने का कारण हमें लगता है कि ईशवर ने यह बरहमाणड और हमारा सौरय मणडल बनाया है। यह कारय वह अपने नियमों के अनसार क कलप में केवल क ही बार करता है। इसी परकार उसका अपना नियम व वयवसथा है कि वेदों का जञान सृषटि की आदि में क बार ही परदान करना है। मनषयों का करतवय है कि वह न केवल उसकी रकषा करें अपित उसे अपनी आगे की पीढि़यों को भी सौंपे। इस कारय में वयतिकरम होने के कारण ही वरतमान अवसथा उतपनन हई है। आज महरषि दयाननद के परयासों से जो वेद जञान आरय समाज व हमारे देश में है, उसकी रकषा, विसतार, परचार व परसार के लि पूरी भावना, निषठा व समरपित भाव से परचार करें तो वेदों और वेदारथ को सारे संसार में फैलाया जा सकता है। आवशयकता दृण संकलप लेकर तदनसार कारय करने की है।

आज संसार में आरय समाज के अनयायियों के पास ही मखयतः वेदों का जञान है। वेदों की आजञा है ‘‘कृणवनतो विशवमारयम’’। इसका अरथ है कि वेद परचार कयोकि विशव में ईसाई, मसलमान व पौराणिक हिनदू आदि अनेक समपरदाय भी अपनी-अपनी परकृति, जञान व सामथरय आदि से अपनी मत पसतकों का कोई बहत अधिक और कोई कम परचार कर रहा है। कया आरय समाज को उनका उदाहरण देखकर सवयं भी वैसा ही परचार नहीं करना चाहिये? वह भी तब जब कि ईशवर के सचचे उपासक, भकत, वेदजञ, शासतरजञ, सतयानवेशी, देश-धरम व संसकृति के रकषक-परोधा महरषि दयाननद सरसवती ने सतय वेदारथ बताया है और कहा है कि वेद ईशवरीय जञान है, वेद सब सतय विदयाओं का पसतक है, वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सनना व सनाना सब आरयों व मनषय मातर का परम धरम है। हमें लगता है कि आज वेदों के बड़े-बड़े आरय विदवान भी महरषि व ईशवर की हम आरयों से अपेकषा के अनरूप वेद परचार का कारय नहीं कर रहे हैं। कोई उपदेशक, वेदोपदेशक, विदवान शिकषक, परोफेसर, कलपति, कलाधिपति व आरयनेता बनकर व कोई पसतक व लेख लिखकर ही सनतोष कर रहा है। अधिकांश तो दकषिणा व वेतन के लि कारय करते हैं जिसे समरपित भाव से किया गया वेद परचार नहीं कह सकते। समाज में जाकर जन सामनय से समबनध सथापित कर वहां गरूकल, पाठशाला, कपेजंदबम समंतदपदह परातः व सायंकालीन ककषाओं आदि कारय नहीं हो रहा है। इससे वेद व परभूत वैदिक साहितय के होते ह भी जड़ता की सथिति है। यदि हम सतयारथ परकाश का ही भली-भांति परचार करें तो हमें लगता है कि यह भी वेद परचार में सहायक हो सकता है। हमें सवाधयाय के महतव को सवयं समना है व दूसरों को भी समाना है। यदि हम आरयों में सवाधयाय की परवृति, संसकार व रूचि नहीं होगी तो वेद परचार नहीं होगा। आरय समाजी जहां शरेषठ गण, करम व सवभाव वाला वयकति होता है, वहीं उसका परतिदिन व नियमित बिना वयवधान के सवाधयाय करना भी अनिवारय व आवशयक है। इससे वेदों की रकषा, परचार तथा ऋषि व वेदों की आजञा का पालन तथा हमारे जीवन का साफलय भी निहित है।

ईशवर ने सृषटि की आदि में वेदों का जञान दिया था। उसके बाद अनेक उतार-चढ़ाव आये, महाभारत काल का यदध व उसका उततरकाल, अनधविशवास, अजञान, मिथया विशवास, अनयाय, पतन व घोर पीड़ाओं का यग रहा परनत हमें ईशवर ने वेदों का जञान दबारा नहीं दिया। महाभारत काल में शरी कृषण जी, महरषि वेद वयास जी आदि अनेक वैदिक विदवान व उनके शिषय, पतर, पौतरादि ह। धरमराज यधिषठिर जी तो सवयं वेदाचरण की जीवित जागृत मूरति थे। उनके बाद केवल क महरषि दयाननद व उनके कछ अनयायी पं. गरूदतत विदयारथी, सवामी शरदधाननद, पं. लेखराम, महातमा हंसराज, सवामी दरशनाननद सरसवती, सवामी वेदाननद जी, पं. गंगा परसाद उपाधयाय, सवामी विदयाननद सरसवती जी आदि ह हैं जिनहोंने सही अरथों में वेद परचार सवयं किया व वेद परचार का वासतविक अरथ व पदधति बताई। समपरति यह कारय शिथिल पड़ा है। यदि सा ही रहा तो भविषय चिनताजनक है। विगत 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार से कछ अधिक वरषों में तो ईशवर ने दूबारा वेद जञान दिया नहीं, आगे भी नहीं देगा, सी ही समभावना है, अतः आरय समाजों में दकाने बनवाने, किराया वसूल करने, पगड़ी की भारी भरकम रकम वसूल करने, उसमें भरषटाचार होने, अनय वयापारिक कारय करने, हसपताल व सकूल आदि बनवाने व चलाने, नशाबनदी, भूरण हतया व सती परथा का विरोध जैसे आनदोलन करने जैसे कारयों को छोड़कर केवल और केवल वेद परचार में ही लग जाना चाहिये जिससे ईशवर की आजञा का पालन हो सके और महरषि दयाननद ने भारी उदयोग व परूषारथ करके जो वेदों की रकषा व परचार-परसार किया है, वह पनः अवरूदध व समापत न हो जाये। आरय समाज के सतसंगों में विदवानों को आमतरित करके परवचन दवारा, गोषठियों व कारयशालाओं आदि के आयोजन के माधयम से वरतमान में वेद परचार की कया रूप रेखा हो सकती है, इसका निरधारण करना चाहिये। हमें लगता है कि हमें परभावी वेद परचार योजना की आवशयकता है जो अभी हमें जञात नहीं है। वेद व हमारे शासतरों में सभी दानों से बढ़कर वेद विदया के दान को शरेषठ बताया गया है। परमाण, बदधि, यकति व तरक से भी यह सिदध है। इसकी तलना में किसी परकार की सेवा व परोपकार के कारय, धरम-करम आदि बाद में आते हैं।

हमें लगता है कि वेदों की रकषा व वेदों का परचार परसार ही संसार के सभी लोगों का परम धरम है। यह बात आरय समाज को भी समनी है, पौराणिक, ईसाई आदि सभी मतावलमबी बनधओं को भी समनी है। वेदों की रकषा व परचार भी ‘यजञो वै शरेषठतमम करमः की भांति क महान शरेषठतम करम व यजञ कारय है जो घरम, अरथ, काम व मोकष की परापति का साधक है। 

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