वेद वं वैदिक साहितय में मनषय समाज को गण, करम तथा सवभाव के अनसार चार वरणों बराहमण, कषतरिय, वैशय तथा शूदर में वरगीकृत किया गया था। गण, करम व सवभाव पर आधारित इस वैदिक वरण वयवसथा में चारों वरणों के लि गणों व करतवयों का निरधारण किया गया था। आज इस वरण वयवसथा का सथान जनम पर आधारित जाति वयवसथा ने ले लिया है जो कि वरणवयवसथा की पूरक न होकर विरोधी वयवसथा है। वरतमान में अधिंकाश लोग परायः शरमाजी, वरमाजी, गपतजी और दासजी आदि अनेकानेक जाति सूचक शबदों का परयोग करते हैं जिनका गण, करमों व सवभाव से कोई सीधा समबनध नहीं है। इस आधार पर आज जो सामाजिक सथिति है उसमें न कोई बराहमण है, न कोई कषतरिय, न कोई वैशय और न कोई शूदर है। पराचीन तिहासिक गरनथों रामायण वं महाभारत में इन जाति सूचक शबदों का कहीं उललेख नहीं है जिसका अरथ है कि उस काल में जनम पर आधारित जाति वयवसथा का आरमभ नहीं हआ था। वरतमान समय में हम जिनहें बराहमण वरण का वयकति कहते हैं उनमें अधिकांश अशिकषित भी हैं वह पराचीन वरण वयवसथा के अनसार बराहमण नहीं कहे जा सकते। अनेक से लोग है जो बराहमण कलों या जातियों में उतपनन ह हैं परनत वह कारय सेना या पलिस में, वयापार व वाणिजय के या सरकारी सेवा में चपरासी, कलरक व अधिकारी का कर रहे हैं। इन लोगों में अपवाद सवरूप शायद ही किसी ने वेदों के दरशन किये हों, उनहें पढ़ना व समना तो दूर की बात है। इनमें परायः सभी मूरति पूजा आदि पौराणिक कृतयों के अनसार पूजा आदि करते हैं जो कि वेदविरूदध कृतय है। इसी परकार सवयं को बराहमण कहने व मानने वाले लोग वेद विरूदध अवतारवाद, फलित जयोतिष, छआछूत, गण-करम-सवभाव की उपेकषा करके अपने बचचों के विवाह अपनी ही जाति में करते हैं। कया यह गण, करम व सवभाव व वयवसाय पर आधारित पराचीन वा वेदकालीन वरण वयवसथा के अनसार बराहमण कहलायें जा सकते हैं? हमारा अधययन कहता है कि कदापि नहीं। इसी परकार से अनय तीन वरणों कषतरिय, वैशय व शूदरों की भी सथिति है। यदि निषकरष रूप में देखें तो आज पराचीन वरण वयवसथा के अनसार कोई भी बराहमण, कषतरिय, वैशय व शूदर की अरहता से अलंकृत न होने के कारण इन वरणों का परतिनिधितव नहीं करता। इसलि सरवतर वरणसंकर होने से सभी मनषय हैं, आरय हैं, वैदिक धरम वं पौराणिक मत का मिशरण हैं, यह सवीकार करना पड़ता है। इस निषकरष के अनसार यह भी सनिशचित है कि देश व समाज में वैदिक भावना व वैदिक साहितय के अनसार शूदर कोई भी नहीं है या फिर सभी वरणों में शूदर हैं और शूदरों में अनेक व बड़ी संखया में बराहमण, कषतरिय वं वैशय हैं।

 

महातमा गांधी जी ने अपने समय में सवचछता पर बल दिया था। उनहोंने सवयं मल-मूतर साफ कर दूसरों को क उदाहरण परसतत किया था कि वह भी सा करें जिससे समाज व देश सवचछ रह सकें। आज भी हमारे बड़े-बड़े राजनेता जिसमें परधान मंतरी शरी नरेनदर मोदी भी हैं, सवयं को जनता का परधान सेवक कहते हैं और हाथ में ाडू उठाकर सफाई करते ह दिखते व दिखाते हैं। उनका अनकरण कर सवामी बाबा रामदेव, शरी बालकृषण, अनिल अमबानी, सानिया मिरजा, शशि थरूर, आदि भी सफाई कर रहे हैं। मधय काल में यदि कोई सा करता तो उसे शूदर व असपरशय कहा जाता। अतः मधयकाल की परिभाषा के अनसार तो यह शूदर हैं परनत सा मानना अजञान व अनधविशवास है, और कछ नहीं। यह सभी लोग समाज के परतिषठित लोग हैं और जो हैं, वसततः वही हैं और वही रहेंगे। इसी कारण से हमारा मानना है कि आज मधयकालीन विचारों के अनसार कोई मनषय शूदर नहीं है। इस बात को आज कल के बराहमण, कषतरिय व वैशय कहे जाने वाले लोगों को मनसा, वाचा व करमणा समना है। नगरों में रहने वाले तो इसे कछ सम सकते हैं परनत हमारे गांवों में इतनी अजञानता फैली हई है कि वहां यह सनदेश पहंचता ही नहीं और यदि पहंचता भी है तो वह इसे समने के लि तैयार नहीं होते। यह हकीकत है कि पराचीन काल में जो शूदर होते थे, उनका समाज में पूरा सममान था। उनका कारय मल-मूतर साफ करना नहीं अपित विदवान, ऋषियों व बराहमणों के घरों में भोजन आदि बनाना व अनय सेवा कारय होते थे। आज यह कारय सभी जातियों के लोग करते हैं।

 

समय ने करवट ली और महाभारत काल के बाद मधयकाल आया, जञान विजञान समापत हो गया, अविदया, अजञान, अनधविशवास, करीतियों व फलित जयोतिष जैसी समाज के लि हानिकारक व मिथया बातों ने समाज में सथान पाया और क वरग को शूदर कहकर उससे छआछत का अमानवीय वयवहार किया जाने लगा। आज हमारे सफाई का काम करने वाले भाईयों के कारयों की महिमा का गान हो रहा है, जो कि समयानकल और उचित ही है। जब हम विदेशों में जाते हैं तो वहां सवचछता को देखकर उनकी परशंसा करते हैं। वहां सवचछता करने वाले लोगों के परति वह दृषटि नहीं है जो हमारे देश में रही है और अब भी कछ कम या अधिक जारी है। अब आधनिक काल चल रहा है, अतः हमें अपनी दृषटि बदलनी चाहिये जो यह हो सकती है कि संसार के सभी लोग समान हैं, कोई न छोटा है, न बड़ा है, सभी ईशवर के अमृत पतर व पतरियां हैं और इस कारण से सभी हमारे परिवार के सदसय हैं। इस दृषटि से जीवन जीकर समाज में क करानति लाई जा सकती है जिसकी की आज आवशयकता है और जो सवामी दयाननद जी व महातमा गांधी जी सभी महापरूषों का सवपन रहा है।

 

 à¤®à¤¹à¤°à¤·à¤¿ दयाननद से पूरव समाज में बहविध समाजिक बराईयां थी। सती परथा, सतरी व शूदरों को वेदाधययन का अधिकार न होना, सामाजिक विषमता, ऊंच-नीच की भावना, निरधन व निमन जातियों के लोगों को कंओं से पानी भरने की मनाही, उनसे पकषपातपूरण वयवहार, निरबलों पर नयाय व अतयाचार, क ही जाति में विवाह जो सवासथय, शारीरिक बल व लमबी आय में बाधक होता है, अनतरजातीय विवाह अपरचलित थे, चूहे-चैके का अधिक महतव था, लोग दूसरे के हाथ का पकाया गया भोजन तक नहीं करते थे, शूदरों के मनदिरों में परवेश की समसया आदि न जाने कितनी समसयायें थी। महरषि दयाननद दवारा सन 1875 में आरय समाज की सथापना करने से इन सभी अजञानपूरण अनधविशवासों व सामाजिक विषमताओं वाली परमपराओं पर कठाराघात किया गया और वेदों से सिदध किया गया कि ईशवरीय जञान वेदों में इनका कोई आधार नहीं है। इसके साथ ही वेदों के अनसार सभी मनषय समान हैं, सभी आरय हैं, पराचीन काल में शूदर वह होता था जो बराहमणों के घरों में भोजन बनाने के साथ शरम व यांतरिकी के कारय करता था। छआछूत करना वेदों की आजञा के विरूदध है। सभी को यजञोपवीत धारण, सनधयोपासना व यजञ करने का अधिकार है। गण, करम व सवभाव के अनसार विवाह करने का अधिकार है, वेदाधययन का अधिकार है, आदि आदि। बहत से अनतयज परिवारों के भाई गरूकलों में पढ़कर पणडित बने, बहतों ने सतयारथ परकाश गरनथ को पढ़कर अपने जीवन का उदधार व उननति की।  सवामी अदभताननद सरसवती व अनय इसके परमाण है। सवामी दयाननद सरसवती ही वसतत सामाजिक करानति के जनक हैं। सामाजिक असमानता को दूर करने का सरवाधिक शरेय महरषि दयाननद जी व उनके अनयायियों को ही है।

 

इस पृषठभूमि में हम यह कहना चाहते हैं कि आज समाज में शूदर कोई नहीं है। जिनके विचार शूदर हैं और जो मन में निमन विचार रखते हैं, वही वसतत शूदर संजञा के अधिकारी हैं, वह चाहे किसी भी रूतबे के कोई भी कयों न हों। मनषय की पहचान उसके जनम से नहीं उसके करमों व आचार विचारों से होती है। सदकरमों को करके मनषय शरेषठ या आरय बनता है और बरे करमों को करके अनारय। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

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