स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती (1865-1941) आर्यसमाज के प्रमुख संन्यासी व विद्वानों में एक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में आर्यसमाज की उन्नति के अनेक कार्य किये। अलीगढ़ की  à¤•à¤¾à¤²à¥€à¤¨à¤¦à¥€ के समीप स्वामीजी ने एक आश्रम व गुरुकुल भी खोला था जिसके आचार्य सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी थे। आर्य समाज के दो प्रमुख शीर्ष विद्वान महामहोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक और आचार्य भ्रदसेन जी इसी गुरुकुल में पढ़े थे। स्वामी जी ने यत्र तत्र घूम घूम कर आर्यसमाज का प्रचार भी किया। आप एक प्रभावशाली लेखक थे। आपने सन्मार्गदर्शन नाम से धार्मिक मान्यताओं का एक सर्वांगपूर्ण व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखा है। सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द जी के अन्य ग्रन्थों के बाद इस ग्रन्थ के अध्ययन से वैदिक मान्यताओं का बहुत सरलता से यथार्थ ज्ञान पाठक को हो जाता है। स्वामी सर्वदानन्द जी ने आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द जी के दिल्ली में साक्षात् दर्शन भी किये थे। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने स्वामी जी का विस्तृत एवं प्रामाणिक जीवन चरित्र लिखा है जिसका अध्ययन लाभकारी है।

आज इस लेख में हम स्वामी सर्वदानन्द जी के हृदय परिवर्तन की घटना, जिसने उन्हें ऋषि दयानन्द भक्त व आर्यसमाजी बनाया था, प्रस्तुत कर रहे हैं। यह घटना आर्योपदेशक श्री उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ, आगरा प्रायः अपने व्याख्यानों में प्रभावशाली रूप में सुनाते हैं। हमने कई बार उनके श्रीमुख से इस घटना को सुना है। स्वामी सर्वदानन्द जी देशाटन करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर आते जाते रहते थे। तीर्थ स्थानों पर जाने में उनकी विशेष रूचि थी। एक बार वह तीर्थ स्थान चित्रकूट पधारे। यहां आपने यमुना तट पर निवास किया। उन दिनों शीत ऋतु चल रही थी। आप वहां नदी के किनारे नग्न शरीर पड़े रहते थे। शरीर कितना भी बलवान व सुदृण हो, उसकी सहन शक्ति की भी एक सीमा होती है। शीत के प्रभाव व नग्न शरीर रहने के कारण आपको शीत ने जकड़ लिया जिसके परिणामस्वरूप आपकी छाती व पीठ में दर्द होने लगा और इसकी तीव्रता बहुत अधिक बढ़ गई। स्वामी जी भोजन की भी चिन्ता नहीं करते थे। कोई भक्त भोजन करा दें तो कर लेते थे, मांगते किसी से नहीं थे।

स्वामी जी जब रुग्ण हुए तो वहां के एक ठाकुर को इसकी जानकारी मिली। वह व्यक्ति स्वामी जी के चरणों में उनके दर्शन एवं उपदेशार्थ प्रायः आया करता था। स्वामी जी की श्रद्धा व भक्ति से सेवा भी किया करता था। यह ठाकुर महोदय ऋषि दयानन्द जी के भक्त और आर्यसमाज के अनुयायी थे। वह जानते थे कि स्वामी सर्वदानन्द जी नवीन वेदान्त वा अद्वैतवाद के मानने वाले थे। उसने स्वामी जी को अपने बारे में यह नहीं बताया कि वह आर्यसमाजी है और न स्वामी जी को इसका ज्ञान ही हुआ। स्वामी जी के रूग्ण होने पर वह स्वामी जी को स्वस्थ करने के सभी उपाय करने लगा और उसने पूरी श्रद्धा सहित स्वामी जी की सेवा की एवं औषधि उपचार कराया। इस ठाकुर भक्त की सेवा से स्वामी जी का रोग दूर हो गया और वह पूर्ववत् स्वस्थ हो गये। उनकी दिनचर्या अब सामान्य रूप से सम्पन्न होने लगी।

 à¤œà¤¬ स्वामी जी निरोग हो गये तो उन्होंने अपने भक्त से प्रस्थान की अनुमति मांगी। इस भक्त ने एक रेशमी वस्त्र में एक पुस्तक लपेटकर स्वामी जी को भेंट की और स्वामी जी से बोले कि यदि आप मेरी सेवा से कुछ भी सन्तुष्ट हैं तो मेरी विनती है कि जब भी आपको अवकाश मिले आप इस ग्रन्थ को अवश्य पढ़े। स्वामी जी उस भक्त की सेवा से अत्यधिक प्रसन्न थे अतः उन्होंने उसे वचन दिया कि वह अवश्य ही इस ग्रन्थ का अध्ययन करेंगे। चित्रकूट से स्वामी जी ने गोरखपुर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उन्हें विचार आया कि देखें भक्त ने कौन सा ग्रन्थ उन्हें दिया है? ग्रन्थ खोलकर देखा तो यह ऋषि दयानन्द का लिखा हुआ सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ था। स्वामी जी ने इस ग्रन्थ के विषय में सुन रखा था। सुनकर उनमें यह संस्कार बना था कि यह ग्रन्थ पढ़ने योग्य नहीं है। इसे पढ़कर लाभ कुछ नहीं होता अपितु हानि हो सकती है। अनेक पौराणिकों ने यह भी अफवाह उड़ायी थी कि स्वामी दयानन्द अंग्रेजों के एजेन्ट थे। अतः सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को देखते ही वह क्रोधित हुए और ग्रन्थ को उठाकर फेंक दिया। कुछ समय बाद उन्हें अपने उस ठाकुर भक्त की सेवा का ध्यान आया जिसने रात दिन निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा की थी। उस सेवा को याद कर वह उसके प्रति द्रवित हुए और विचार किया कि ग्रन्थ को पढ़ने से कोई हानि तो होनी नहीं है। मैं इसकी बातों को मानूगां ही नहीं। अपना वचन पूरा करने और भक्त की सेवा से अभिभूत स्वामी जी ने उस ग्रन्थ को पढ़ने का मन बनाया। उन्होंने ग्रन्थ का अध्ययन आरम्भ कर दिया और नियमित पढ़ते हुए उसे आद्योपांत पढ़ डाला। ग्रन्थ पूरा होने से पूर्व ही स्वामी जी के हृदय पर ग्रन्थ की बातों व मान्यताओं का गहरा प्रभाव पड़ा। वेदान्त के सिद्धान्त उनसे दूर हो गये और वह सत्यार्थप्रकाश की सभी बातों से सहमत हो गये। इस प्रकार सनातन धर्म व वेदान्त का एक बहुत बड़ा शीर्ष विद्वान एक आर्यसमाजी भक्त की सेवा व सत्यार्थप्रकाश की अन्तर्निहित महिमा व गौरव से प्रभावित होकर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का भक्त बना। हम भी सत्यार्थप्रकाश पढ़कर और आर्य विद्वानों के वैदिक ज्ञान व समाजोत्थान के व्याख्यान सुनकर ही ऋषि भक्त व आर्यसमाजी बने हैंं। जो भी व्यक्ति सत्यार्थप्रकाश को पढ़ेगा और समझेगा वह अवश्य ही वेद वा आर्यसमाज का अनुयायी बनेगा। अतीत में अनेक मतों सहित ईसाई व इस्लाम मत के अनुयायी भी वेद और आर्यसमाज के अनुयायी बने हैं। सत्यार्थ प्रकाश वह ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मनुष्य का हृदय परिवर्तन हो जाता है। पूर्व वह किसी भी मत का अनुयायी क्यों न रहा हो परन्तु सत्यार्थप्रकाश को पूरा पढ़ने के बाद वह उसका भक्त हो जाता है। शर्त यही है कि वह निस्वार्थ भाव से पढ़े और अन्य किसी मत से उसका किसी प्रकार का स्वार्थ जुड़ा हुआ न हो।

वैदिक धर्म पर शहीद हुए लाहौर के महाशय राजपाल जी ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि स्वामी जी कुछ और थे और सत्यार्थप्रकाश पढ़ कर वह उसके भक्त बन गये। आर्यसमाज के एक प्रसिद्ध विद्वान पं. चमूपति जी ने लिखा है कि इच्छा न होते हुए भी स्वामी सर्वदानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश पुस्तक का अध्ययन किया जिससे वेदान्त पर उनका विश्वास जाता रहा और वह आर्यसमाजी बन गये। अनुमान है कि चित्रकूट में सन् 1905 में उनका हृदय परिवर्तन हुआ और वह आर्यसमाजी बने थे।

स्वामी सर्वदानन्द जी के हृदय परिवर्तन की यह घटना अत्यन्त प्रभावशाली एवं प्रेरणादायक है। वेदान्त का एक शीर्ष विद्वान संन्यासी और ऋषि दयानन्द तथा सत्यार्थप्रकाश का विरोधी व्यक्ति एक व्यक्ति की सेवा के परिणामस्वरूप सत्यार्थप्रकाश पढ़कर यदि आर्यसमाजी बन सकता है तो यह सत्यार्थप्रकाश को एक दैवीय व सत्य मान्यताओं की एक अद्भुद् पुस्तक सिद्ध करती है। हमें गर्व है कि हम अक्सर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करते रहते हैं और हमें इससे इतना अधिक लाभ हुआ है कि हम उसका वर्णन नहीं कर सकते। इसके प्रभाव से ही हमारी सभी धार्मिक व सामाजिक शंकाओं व भ्रमों की निवृत्ति हुई है। जो भी मनुष्य इसे पढ़ेगा उसे यह लाभ अवश्य ही प्राप्त होंगे। अतः सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन में विलम्ब नहीं करना चाहिए। आज ही सत्यार्थप्रकाश को आद्योपान्त पढ़ने का संकल्प लें। ओ३ण्म् शम्।

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