पुनर्जन्म का सिद्धान्त

वैदिक सिद्धान्तों में एक प्रमुख सिद्धान्त पुनर्जन्म भी है, जो कि मूल रूप में हमारे भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण आधार स्तम्भ है।इसी सिद्धान्त के आश्रय से समाज में अनेक प्रकार के क्रिया-व्यवहार सम्पादित किये जाते हैं । समाज का एक बहुत बड़ा भाग जैसे कि ब्राह्मण-वर्ग अथवा सभी गृहस्थ-लोग बड़े से बड़ा यज्ञानुष्ठान करते हैं अथवा बड़े से बड़ा परोपकार का कार्य करते हैं, इसका मुख्य आधार यह सिद्धान्त ही होता है । मुख्यतः राष्ट्र की समस्त सुरक्षा व्यवस्था, यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार ही न किया जाये तो कदाचित संभव ही नहीं कि कोई सैनिक अपने परिवार के समस्त सुख-सुविधा को छोड़ कर सीमा पर जाकर वर्षा,गर्मी व शीत आदि सब कुछ सहन करते हुए बिना प्रयोजन के अपने आप को मृत्यु के हवाले करदे।‘प्रयोजनमनुद्दिश्यमन्दोऽपि न प्रवर्तते’ अर्थात् बिना प्रयोजन के तो मन्द से मन्द व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। आखिर बिना लाभ के कोई भला किसी कार्य को क्यों करे? न्याय दर्शन की परिभाषा के अनुसार भी-‘येनप्रयुक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्’ अर्थात् प्रयोजन उसी को ही कहते हैं कि जिससे प्रेरित होकर सभी प्राणी किसी न किसी कार्य में प्रवृत्त होते हैं। वही लाभ ही होता है जिसको लक्षित करके सभी मनुष्य अपना अपना व्यापार करते हैं, चाहे वह लाभ अभी प्राप्त हो,चाहे कुछ काल के पश्चात् या फिर मृत्यु के पश्चात् । चाहे कोई यज्ञानुष्ठान कर्त्ता हो या परोपकारी हो अथवा कोई सैनिक हो, सभी मनुष्य किसी न किसी रूप में यह मानते ही हैं कि हमें इन सब कर्मों का फल इसी जन्म में भले ही न मिले तो भी अगले जन्म में तो अवश्य मिल ही जायेगा।यह विश्वास ही है जो हमें उत्तम कर्मों को करने में प्रेरित करता है। परन्तु कुछ ऐसे भी बुद्धिजीवी लोग हैं,मुख्यतः पाश्चात्य सभ्यता व विचारों से युक्त लोग जो कि इस सिद्धान्त को स्वीकार ही नहीं करते। वे कहते हैं कि इस में कोई वास्तविकता नहीं है, ये केवल भ्रम, अन्धविश्वास, या मिथ्या परिकल्पना मात्र है ।

 

जब किसी एक विषय में दो प्रकार के भिन्न-भिन्न ज्ञान प्राप्त होते हैं तब हमारे मन में संशय उत्पन्न हो जाता है ‘संशयःउभयकोटिस्पृग्विज्ञानम्’, और ‘विमृश्यपक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः’ अर्थात् किसी विषय में संशय उठाकर पक्ष और प्रतिपक्ष पूर्वक विचार करकेसत्य पक्ष का निश्चय करना ही निर्णय है, जिससे यथार्थ ज्ञान होता है।तो आइये इस सिद्धान्त की सत्यता के ऊपर कुछ विचार करते हैं और निर्णय पर पहुँचते हैं कि यह पुनर्जन्म तथ्यतः होता भी है या नहीं ? क्योंकि बिना प्रमाण के किसी भी बात को स्वीकार करना बुद्धिमत्ता नहीं है अतः सबसे पहले हमें यह देखना है कि इस विषय में कौन सा प्रमाण उपलब्ध हो सकता है? प्रत्यक्ष,अनुमान या शब्द प्रमाण ? प्रायः हम देखते हैं कि सामान्य मनुष्य केवल प्रत्यक्ष वस्तु के ऊपर ही विश्वास करते हैं और जो वस्तु परोक्ष है या दिखाई नहीं देती ऐसी वस्तु के विषय में या तो संशय युक्त रहते हैं अथवा उसको स्वीकार ही नहीं करते परन्तु विद्वानों में अथवा ऋषियों में इससे विपरीत ही देखा जाता है। इसके विषय में शास्त्रकारों ने कहा भी है कि ‘परोक्ष प्रिया ही वै देवाः प्रत्यक्ष द्विषः’।पुनर्जन्म के विषय में भी सामान्य जन विश्वास नहीं करते क्योंकि यह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। और यदि कभी-कभार ऐसी कोई घटना सुनने में आती है अथवा जब कोई यह दावा करता है कि मुझे पिछले जन्म का स्मरण है या मैं पिछले जन्म में अमुक व्यक्ति के रूप में, अमुक परिवार में,अमुक गाँव में उत्पन्न हुआ था और ये सब मेरे सगे-सम्बन्धी थे। इस प्रकार की  बातों को सुन कर कुछ लोग पुनर्जन्म के ऊपर विश्वास कर लेते हैं। परन्तु यह सब विचारणीय अथवा परिक्षणीय है कि इस प्रकार की घटनाओं में कितनी वास्तविकता है क्योंकि पिछले जन्म के विषय में स्मरण होने और न होने में कुछ विद्वानों का मत भेद है।क्योंकि जिसको स्मरण हो रहा है केवल उसी का ही पुनर्जन्म मानेंगे, जो कि कभी-कभार ही कहीं अपवाद रूप में देखा जाता है तो फिर अधिकांश लोगों का अस्तित्व इससे पूर्व विद्यमान था या नहीं? यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा ।यदि केवल पूर्व कि स्मृति के आधार पर ही पुनर्जन्म को स्वीकार करेंगे तो यह कोई सार्वभौम सिद्धान्त या नियम नहीं बन पता है । हम इस विषय को अनुमान प्रमाण के आधार पर विचार करेंगे अथवा इस विषय में शब्द प्रमाण क्या कहते हैं उनको उपस्थापित करने का प्रयत्न करेंगे क्योंकि जब प्रत्यक्ष प्रमाण में स्पष्टता न हो तो वहां अनुमान या शब्द प्रमाण का ही आश्रय लेना श्रेयस्कर होगा।

 

पुनर्जन्म के सिद्धान्त को समझने से पहले पुनर्जन्म होता क्या है इसको समझ लें तो अच्छा रहेगा। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार जीवात्मा का नए शरीर के साथ सम्बन्ध हो जाना जन्म कहलाता है और जीवात्मा का उस शरीर से वियोग हो जाना मृत्यु कहलाती है ।मृत्यु के पश्चात् उस जीवात्मा का फिर से एक नए शरीर के साथ संयोग हो जाना ही पुनर्जन्म है । इस पुनर्जन्म में जीवात्मा तो वही एक ही होता है परन्तु यह दृश्यमान शरीर बदलते रहता है अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से परिवर्तित होता रहता है। तो पुनर्जन्म को समझने से पहले जीवात्मा की नित्यता को समझना बहुत आवश्यक है।

 

गीता में आत्मा की नित्यता के विषय में कहा है कि –नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयतिमारुतः(गीता 2.23)।इसका अर्थ है आत्मा नित्य है, आत्मा को न किसी अस्त्र-शस्त्र से काटा जा सकता है,न ही उसको अग्नि जला सकती है,जल उसको न भिगो सकता है और न ही वायु उसको सुखा सकती है।और भी कहा है कि –‘न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।अजो नित्यः शाश्वतो यं पुराणो न हन्यतेहन्यमाने शरीरे’।(गीता-2.20)  अर्थात् जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है और न कभी नष्ट होता,ऐसा भी नहीं है कि कभी था ही नहीं और प्रकट हो गया हो। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत है और शरीर के नष्ट होने से भी नष्ट नहीं होता ।इस प्रकार उपनिषद् का भी वचन है कि ‘अजो ह्येकोजुषमाणोऽनुशेते’(श्वेताश्वेतरोपनिषद – 4-5),अर्थात् अनादि व नित्य जीव इस अनादि प्रकृति का भोग करता है । इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि जीव नित्य है और जन्म-मरण के चक्र से अनेक शरीरों को प्राप्त होता रहता है।

 

आइये इस विषय को सबसे पहले हम एक गुरु-शिष्य संवाद या प्रश्नोत्तर के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

 

शिष्य- गुरु जी! यह पुनर्जन्म होता है वा नहीं ? इसको किस प्रकार समझें ?

गुरु-यह आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया। इसका उत्तर जानने के लिए मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर दो ।

शिष्य- ठीक है गुरु जी, आप प्रश्न कीजिये ।

गुरु- कर्म पहले और फल बाद में या फल पहले और कर्म बाद में, इन दोनों में न्याय पक्ष क्या है ?

शिष्य- गुरु जी! न्याय तो यही है कि कर्म पहले और फल बाद में।

गुरु- अब ये बताओ कि ये जो शरीर हमें प्राप्त हुआ है,यह मुफ्त में मिला है या कुछ कर्म का फल है ?

शिष्य- गुरु जी! ये तो कर्म का फल ही है क्योंकि मुफ्त में तो कुछ भी नहीं मिलता।

गुरु- यदि यह शरीर कर्म का फल है और कर्म पहले होना चाहिए तो वो कर्म आपने कब किया ?

शिष्य- गुरु जी! पिछले जन्म में ।

गुरु- देखिये आपने स्वयं स्वीकार कर लिया ना कि पिछले जन्म में आपने कर्म किया और यह आपका वर्त्तमान जन्म है, तो हो गया न पुनर्जन्म ?

शिष्य- हाँ गुरु जी! अब समझ में आ गया। धन्यवाद् गुरु जी ।

 

हम इस संवाद से समझ सकते हैं कि पुनर्जन्म होता है ।

 

हम इस संसार में देखते हैं कि सभी मनुष्य अलग अलग वातावरण, माता-पिता, या साधन-सुविधाओं से युक्त जन्म ग्रहण करते हैं अर्थात् कुछ  बच्चे गरीब व निर्धन माता-पिता के घर, झोपड़ पट्टी व गन्दे वातावरण में जन्म लेते हैं जिनको कि अच्छा भोजन, वस्त्र, शिक्षा और अनेक ऐसे दैनिक व्यवहार के साधन भी उपलब्ध नहीं हो पाते, इसके विपरीत कुछ बच्चे उत्तम व कुलीन माता-पिता के यहाँ जन्म लेते हैं जो कि धन-सम्पत्ति से और सब प्रकार के उत्तम साधन-सुविधाओं से युक्त रहते हैं। उनको उत्तम से उत्तम भोजन और वस्त्र प्राप्त होते हैं अच्छे से अच्छे स्कूल-कॉलेजों में अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त होती है, जो कि उन गरीब बच्चों को कभी सपने में भी नसीब न हो।इस पृथक-पृथक स्थितियों का कुछ न कुछ अवश्य ही कारण होगा और उसका कारण है इनका कर्म क्योंकि सांख्यकार ने भी इसका समाधान करते हुए कहा है कि ‘कर्म वैचित्र्यात् सृष्टि वैचित्र्यम्’(सांख्य-6.41)अर्थात् संसार में जो विविधता देखी जाती है,उसमें सभी मनुष्यों के कर्मों में पृथकता ही कारण है। हम यह भी देखते हैं कि कुछ बच्चों में बचपन से ही किसी किसी विषय में कुछ ऐसी विशेष रूचि, योग्यता या आचम्भित करने वाले कुछ विशेष-व्यक्तित्व प्रकट हो जाते हैं जो कि वर्त्तमान जन्म में उन्होंने किसी से उससे सम्बन्धित कोई विद्या या शिक्षा प्राप्त की नहीं होती और न ही कोई उनका अनुभव रहता है, फिर भी वो रूचि व योग्यता आयी कहाँ से? वो व्यक्तित्व प्रकट हुआ कहाँ से? इसका कारण क्या है ?इस प्रकार विचार करने पर हम यह स्वीकार करने में विवश हो जाते हैं कि वह व्यक्ति निश्चय ही इससे पहले कभी इस विषय में योग्यता प्राप्त किया होगा।

 

इससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि उसका पुनर्जन्म हुआ है। हम यदि यह भी विचार करते हैं कि यह जो हमारा वर्त्तमान का जीवन है यह तो प्रत्यक्ष दिख ही रहा है परन्तु इससे पहले हम थे कहाँ ?क्या इससे पहले भी कोई जीवन था या नहीं ? क्योंकि अभाव से तो किसी भाव की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। मृत्यु के उपरान्त भी हमारी क्या गति होगी ?हम कहाँ जायेंगे? क्योंकि किसी भावात्मक पदार्थ का कभी विनाश होता ही नहीं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि हमारा यह पुनर्जन्म हुआ है और आगे भी जन्म अवश्य होगा।न्याय दर्शन के अनुसार ‘पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्तेः’।(न्याय.- 3.1.18)जब हम किसी नवजात शिशु को देखते हैं तो यह पाते हैं कि बिना किसी वर्त्तमान कारण के वह शिशु कभी मुस्कुराता है तो कभी अचानक भयभीत हो जाता है और कभी रोने लग जाता है। इसका अर्थ है कि वह अवश्य ही किसी पिछली घटनाओं को स्मरण करता हुआ मुस्कुराने,घबराने या रोने आदि कि क्रिया कर रहा है। इससे भी पुनर्जन्म कि ही सिद्धि होती है।ठीक ऐसे ही ‘प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात्’।(न्याय.- 3.1.21)यदि हम किसी गाय के नवजात बछड़े को देखते हैं, तो वह जन्म लेते ही दूध पीने के लिए अपनी माँ के स्तन को ढूंढने लग जाता है अथवा किसी बतख के बच्चे को या कुत्ते के पिल्ले को पानी में डाल दें तो वह तैरने लग जाता है। यह भी पूर्व जन्म के संस्कार और तदनुरूप स्मृति के कारण ही सम्भव हो पाता है।

 

इस विषय में योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि जी ने भी कहा है कि-‘जातिदेशकालव्यवहितानामपि आनन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोः एकरुपत्वात्’(योग-4.9)अर्थात् कर्मानुसार जीवात्मा मनुष्य,पशु,पक्षी,वृक्ष आदि भिन्न-भिन्न जातियों में वा योनियों में, भिन्न-भिन्न देशों में या स्थानों में और भिन्न-भिन्न काल में कर्म फलों को भोगने के लिए जन्म लेते रहता है। पहले जन्म में संग्रहित किये गए कर्मों के संस्कार उसके अनुरूप योनि के प्राप्त होने पर बाद वाले जन्म में भी प्रकट हो जाते हैं और वह उस प्रकार की क्रिया करने लग जाता है क्योंकि स्मृति और संस्कार की एकरूपता होने से।न्यायदर्शनकार महर्षि गौतम जी ने भी पुनर्जन्म को स्वीकार करते हुए कहा है कि ‘पुनरुत्पतिः प्रेत्यभावः’(न्याय-1.1.19) अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होकर फिर से उत्पन्न हो जाना प्रेत्यभाव है अर्थात् जीवात्मा का एक शरीर को छोड़कर दुसरे शरीर को प्राप्त हो जाना ही पुनर्जन्म है।पुनर्जन्म की सिद्धि में इस प्रकार गीता में और भी प्रमाण उपलब्ध हैं जैसे कि –वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही।(गीता- 2.22) अर्थात् जिस प्रकार व्यक्ति जीर्ण-शीर्ण हुए पुराने वस्त्र को छोड़कर नये वस्त्रों को धारण कर लेता है ठीक ऐसे ही जीवात्मा जीर्ण हुए शरीर को छोड़कर नये शरीर को प्राप्त हो जाता है।‘देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति’।(गीता- 2.13) जैसे हमारे शरीर में बाल्यावस्था,युवावस्था और बृद्धावस्था आदि परिवर्तित होते रहते हैं ठीक ऐसे ही जीवात्मा भिन्न-भिन्न शरीर को प्राप्त होता रहता है।

 

सांख्यकार महर्षि कपिल मुनि जी भी इसकी पुष्टि में कहते हैं कि ‘तद्बिजात् संसृतिः’।(सांख्य.- 3.3)अर्थात् जीव का विविध योनियों में सूक्ष्म शरीर के साथ संसरण होता है।‘आविवेकाच्च प्रवर्तनमविशेषाणाम्।(सांख्य.- 3.4) अर्थात् जब तक विवेकज ज्ञान नहीं हो जाता तब तक जीव शरीर परिवर्तन करता रहता है। इस सिद्धान्त को स्वीकारते हुए योग दर्शनकार क्या कहते हैं आइये देखते हैं –‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’।(योग.- 2.13) कर्माशय के मूल में अविद्या के होने पर उसका जो फल प्राप्त होता है वह हमें जाति(मनुष्य,पशु,पक्षी आदि का शरीर), तदनुरूप आयु और भोग के रूप में प्राप्त होता है।‘क्लेशमूल कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः’।(योग.- 2.12) अर्थात् क्लेश युक्त कर्माशय से हमें दो प्रकार से फल प्राप्त होता है, कुछ कर्मो के फल इसी जन्म में और कुछ कर्मों के फल अगले जन्म में मिलता है।योग दर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास जी ने – ‘स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढो अभिनिवेशः’। (योग- 2.9)इस सूत्र के भाष्य में भी कहा है कि–‘सर्वस्य प्राणिन इयमात्माशीर्नित्या भवति मा न भूवं भूयासमिति। न चाननुभूतमरण धर्मकस्य एषा भवत्यात्माशीः। एतया च पूर्व जन्मानुभव प्रतीयते’। अर्थात् सभी प्राणी अपनी सत्ता में सदा विद्यमान रहना चाहते हैं,सभी कि यह इच्छा बनी रहती है कि मैं सदा बना रहूँ, मेरी सत्ता कभी नष्ट हो जाये या मैं न होऊं, ऐसा न हो।

 

मृत्यु से भय करने वाला न तो इस जन्म में अपनी मृत्यु का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और न ही शब्द प्रमाण आदि से जाना है और इस प्रकार की भावना बिना मृत्यु के अनुभव किये संभव भी नहीं है, इसीलिए इसमें पूर्वजन्म का अनुभव ही प्रतीत (सिद्ध) होता है। योग दर्शनकार ने तो और भी स्पष्ट कर दिया कि –‘संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्(योग- 3.18)अर्थात् संयम पूर्वक संस्कारों का साक्षात्कार करने से पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है । निरुक्तकार महर्षि यास्क जी भी कहते हैं –‘मृतश्चाहं पुनर्जातो जातश्चाहं पुनर्मृतः,नाना योनि सहस्राणि मयोषितानि यानि वै। अवाङ्मुखः पीड्यमानो जन्तुश्चैव समन्वितः’।(निरुक्त- 13.19)अर्थात् मैं मृत्यु को प्रï¿

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  • Sonu

    यह अच्छी जानकारी है। धन्यवाद

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