विद्या प्राप्ति के उपाय

चतुर्भिः च प्रकारैः विद्या उपयुक्ता भवति आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेन इति (महाभाष्य.) अर्थात् चार प्रकार से विद्या आती है, आगम काल, स्वाध्याय काल, प्रवचन काल और व्यवहार काल के माध्यम से ।

 

आगम काल :- श्रवण काल को ही आगम काल कहते हैं, अर्थात् जब अध्यापक, गुरु, आचार्य विद्यादान कर रहे हों, पढ़ा रहे हों, प्रवचन कर रहे हों तो अपने मन को श्रोत्रेन्द्रिय कान के साथ और कान को अध्यापक के शब्दों के साथ संयुक्त करे तथा उन शब्दों को अर्थ सहित मन में संचित करते जाये, इसी को आगम काल कहा जाता है ।

 

स्वाध्याय काल :- जब हम गुरु जी से पढ़ लेते हैं, उसके पश्चात् उस पढ़ी हुई विद्या को स्वयं आवृत्ति करें, विचार करें, चिन्तन करें तो इसी को स्वाध्याय काल कहा जाता है । श्रवण चतुष्टय के अन्तर्गत यह दूसरा ‘मनन’ कहलाता है ।

 

प्रवचन काल :- गुरु जी के मुख से पढ़ी हुई विद्या को अच्छी प्रकार श्रवण करके, उसको पुनः अच्छी प्रकार चिन्तन-मनन पूर्वक सत्यासत्य का निर्णय करके उस विद्या को दूसरों के उपकार या लाभ के लिए उपदेश करना या पढ़ाना है उसको प्रवचन काल कहा जाता है ।

 

व्यवहार काल :- जब तीनों स्तर को पार कर लेते हैं अर्थात् विद्या को भलीभांति सुनते हैं, चिंतन-मनन करते हैं, दूसरों के कल्याण हेतु उस विद्या को पढ़ाते, प्रवचन करते हैं तो उसके पश्चात् सबसे अंत में बताया गया है कि उस विद्या को अपने जीवन व्यवहार में उतार लेना ही व्यवहार काल कहलाता है ।

 

इन चारों को श्रवण चतुष्टय के नाम से अर्थात् क्रमशः श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार भी कहते हैं ।

 

इस विद्या प्राप्ति के चार उपायों को एक दृष्टान्त के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे ।

 

एक आचार्य ने पहले दिन अपने शिष्यों को उपदेश किया, पाठ पढाया, कि ‘सत्य बोलना चाहिए’ । गुरूजी ने आदेश भी दिया कि इस पाठ को याद (कंठस्थ) करके ले आना । अगले दिन सभी शिष्यों ने उस पाठ को कंठस्थ करके गुरु जी को सुना दिया कि ‘सत्य बोलना चाहिए’ । इसी प्रकार दूसरे दिन आचार्य ने पाठ पढाया कि ‘क्रोध नहीं करना चाहिए’ और यह आदेश दिया कि इस पाठ को भी याद करके ले आना । अगले दिन भी सभी विद्यार्थी कक्षा में पहुँच गए और एक के बाद एक अपना कंठस्थ किया हुआ पाठ सुनाने लगे ।

 

उनमें से एक विद्यार्थी ने कहा कि ‘गुरु जी मुझे पाठ याद नहीं हुआ’ । गुरु जी ने कहा ‘कोई बात नहीं कल याद करके सुना देना’ । अगले दिन भी यही स्थिति रही, विद्यार्थी ने कहा कि ‘आज भी मुझे पाठ याद नहीं हुआ’ । फिर गुरु जी ने कहा कि एक छोटा सा वाक्य याद नहीं हो रहा है ?तुम्हारे सभी सहपाठियों ने सुना दिया लेकिन तुम क्यों नहीं सुना पा रहे हो ? कल याद करके सुना देना, नहीं तो दण्ड मिलेगा । अगले दिन भी जब वह विद्यार्थी कक्षा में पहुंचा तो उसका उत्तर यही था कि ‘गुरु जी पाठ याद नहीं हुआ’। फिर तो क्या था गुरु जी ने डंडे मंगवाये और उस विद्यार्थी को खूब ताड़ना की, तभी उस विद्यार्थी ने कहा कि ‘गुरु जी अभी मुझे पाठ याद हो गया’ ।

 

गुरु जी ने पूछा कि अबतक तो याद नहीं हुआ था फिर डंडे खाने से कैसे याद हो गया ? तभी उस विद्यार्थी ने कहा कि ‘गुरु जी ! आपने पहले यह भी बताया था कि विद्या चार प्रकार से आती है, श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार इसका दूसरा नाम है आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहार काल, अतः आपने जो पढाया कि ‘क्रोध नहीं करना चाहिए’ तो उसको मैंने ध्यान से सुन भी लिया, फिर चिंतन-मनन भी कर लिया, अपने सहपाठियों को भी पढ़ा दिया या उपदेश कर दिया परन्तु यह पाठ मेरे व्यवहार में अबतक नहीं आया था, जब आपने मुझे दण्ड दिया फिर भी मेरे मन में कोई क्रोध उत्पन्न नहीं हुआ, तो इससे मुझे पता चला कि मुझे पाठ पूरी तरह याद हो गया ।

 

इस दृष्टान्त से हम समझ सकते हैं कि विद्या किस प्रकार चार उपायों से प्राप्त की जाती है ? पहले सुनें, उसको स्वयं पढ़ें, फिर दूसरों को पढ़ायें और अपने व्यवहार में भी उतारें, तभी मान सकते हैं कि हमें वह विद्या अच्छी प्रकार अथवा पूर्णतया आ गयी ।

 

जब हम गुरु जी से पढ़ते हैं अर्थात् आगम काल को पूर्ण करते हैं तब हमें केवल (10%) दस प्रतिशत ही विद्या आती है । जब हम स्वाध्याय काल को पूरा करते हैं तब हमें (20%) बीस प्रतिशत विद्या प्राप्त होती है अर्थात् प्रथम चरण और दूसरे चरण का मिला कर 30% तीस प्रतिशत विद्या प्राप्त हो जाती है । जब हम प्रवचन काल को पूरा करते हैं तब हमें (30%) तीस प्रतिशत विद्या प्राप्त होती है अर्थात् दो चरण का 30 और तृतीय चरण का 30 मिलाकर (60%) साठ प्रतिशत विद्या मिल जाती है । इस प्रकार जब हम चौथे चरण में पहुँच जाते हैं और विद्या को अपने जीवन व्यवहार में उतार लेते हैं तो विद्या (40%) चालीस प्रतिशत प्राप्त हो जाती है अर्थात् पूर्व के 60 और इस चौथे चरण का 40 मिलाकर 100% विद्या प्राप्त हो जाती है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब हम व्यवहार में उस विद्या को उतार लेते हैं तभी हमें 100% विद्या प्राप्त होती है ।

30%

आगम काल – 10%            

60%

स्वाध्याय काल – 20%

100%

प्रवचन काल – 30%

व्यवहार काल – 40%

 

 
 

 

कुलयोग –  100%  

 

यदि हम 100% विद्या प्राप्त करना चाहते हैं तो उस पढ़ी-सुनी हुई विद्या को हमें आगे के स्तर में ले जाते हुए व्यवहार काल में पहुंचना होता है अन्यथा यदि केवल हम सुन कर के ही छोड़ देते हैं तो 10% विद्या ही रह जाती है । जब हम किसी विद्या को पढ़ते हैं तो वह तब तक सार्थक नहीं होती जब तक कि हम उसे अपने जीवन में, अपने व्यवहार में उतार नहीं लेते अतः हमारा कर्तव्य है कि हम इस विद्या प्राप्ति के चार उपायों व स्वरुपों को ठीक ठीक समझें और अच्छी प्रकार से विद्या प्राप्ति कर जीवन को सुख-शान्ति से युक्त करें ।   

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