दलित-मुस्लिम गठजोड़

दलित समाज को हिन्दुओं से अलग करने का राजनितिक षडयंत्र 

 

दिखने में भले ही यह दलित- मुस्लिम गठजोड़ राजनीतिक सा लगता हो लेकिन अन्दर ही अन्दर इसे सामाजिक धरातल पर अमली जामा पहनाया जा रहा है। इस वर्ष अमर बलिदानी पंडित लेखराम जी के बलिदान दिवस पर दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा एवं आर्य समाज करोलबाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अत्यंत ज्वलंत विषय ‘‘दलित समाज को हिन्दुओं से अलग करने का राजनैतिक षडयंत्र’’ चर्चा का मुख्य बिन्दु रहा। यह विषय उठाना आज के समय की तर्कसंगत मांग है यदि अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में जो परिणाम सामने आयेंगे वे देश, धर्म और समाज के लिए बेहद निराशाजनक होंगे। 

 

इस विषय पर इतिहास का एक प्रसंग जरूरी है। जब हस्तिनापुर में षडयंत्र पर षडयंत्र रचे जा रहे थे उस समय महात्मा विदुर ने पितामह भीष्म से कहा था कि ‘पितामह जब हस्तिनापुर में पाप की नदी बह रही होगी तब मैं और आप उसके किनारे खड़े होंगे।’ भीष्म पितामह ने पूछा, ‘किनारे पर क्यों?’ तो विदुर ने कहा था-‘कि कम से कम मैं और आप इन षडयंत्रों पर चर्चा तो कर लेते हैं, बाकी तो वह भी जरूरी नहीं समझते।’ कहने का आशय यही है कि आज यह विषय बेहद प्रासंगिक है। इस पर चर्चा और कार्य भी जरूरी है। एक छोटा सा उदहारण शायद इस षडयंत्र को समझने में देर नहीं लगायेगा। हाल ही में पाकिस्तान के अन्दर एक हिन्दू महिला कृष्णा कुमारी कोल्ही को वहां की सीनेट ;राज्यसभा सदस्यद्ध के लिए निर्वाचित किया गया है। लेकिन भारत समेत विश्व भर की मीडिया ने इस खबर को कुछ इस तरह पेश किया कि पाकिस्तान में कृष्णा कुमारी कोल्ही सीनेट के लिए निर्वाचित होने वाली देश की पहली हिन्दू दलित महिला बन गई है। 

 

हर एक मीडिया घराने ने इसमें हिन्दू के साथ दलित शब्द का उपयोग क्यों किया! मतलब साफ है कि यह खबर इसी षडयंत्र का हिस्सा है। पिछले वर्ष गुजरात में घटित ऊना की एक घटना के बाद से दलितों के उत्थान के नाम पर रैलियां कर बरगलाया जा रहा है। इन रैलियों में दलितों के साथ-साथ मुसलमान भी बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। ऐसा दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि मुसलमान दलितों के हमदर्द है। इसके बाद भीमा कोरेगांव में शौर्य दिवस और वहां उपस्थित मुस्लिम संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया, मूल निवासी मुस्लिम मंच, छत्रपति शिवाजी मुस्लिम ब्रिगेड, दलित इलम आदि संगठन थे। इसके बाद दलितों पर अत्याचार की कहानी सुनाई गई। यह कि आज भी दलितों पर अत्याचार होता है और अत्याचार करने वाले सिर्फ हिन्दू होते हैं।

 

दरअसल देश में सरकारी आंकड़े बताते हैं कि दलित करीब 20 फीसदी है और मुसलमान 15 फीसदी। दोनों मिलकर 35 फीसदी के लगभग हैं। क्यों न इसकी वर्तमान में राजनितिक और भविष्य में धार्मिक खुराक बनाई जाये। क्योंकि सभी जानते हैं कि बाकी हिन्दू समाज तो ब्राह्मण, बनिया, यादव, जाट, राजपूत आदि में विभाजित है। गौरतलब बात यह है कि दलितों को भड़काने वालों के दलित नेताओं के लिए डॉ. अम्बेडकर के इस्लाम के विषय में विचार भी कोई मायने नहीं रखते। डॉ. अम्बेडकर ने इस्लाम स्वीकार करने का प्रलोभन देने वाले हैदराबाद के निजाम का प्रस्ताव न केवल खारिज कर दिया अपितु 1947 में उन्होंने पाकिस्तान में रहने वाले सभी दलित हिन्दुओं को भारत आने का सन्देश दिया। डॉ. अम्बेडकर 1200 वर्षों से मुस्लिम हमलावरों द्वारा किये गए अत्याचारों से परिचित थे। वे जानते थे कि इस्लाम स्वीकार करना कहीं से भी जातिवाद की समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि इस्लामिक फिरके तो आपस में ही एक दूसरे की गर्दन काटते फिरते हैं। वह जानते थे कि इस्लाम स्वीकार करने  में दलितों का हित नहीं अहित है। लेकिन आज डॉ. अम्बेडकर की तस्वीर मंच पर सजाकर उसके इस्लाम के प्रति विचारों को किनारे कर दफनाने का कार्य किया जा रहा है। वामपंथी सोच वाला प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस षडयंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका सी निभाता दिख रहा है। समाजवाद का ढ़ोल पीटने वाले भारतीय राजनितिक दल इस्लामवाद की चपेट में आकर दलित समुदाय के सामाजिक विकास को प्रोत्साहन देने के बजाय उल्टा उनको इस्लामवाद की भट्टी में झोंकने में तत्पर से दिखाई दे रहे हैं।

 

जनवाद के नाम से नये मंच तैयार किये जा रहे हैं। जिनमें दलितों को भारतीय महापुरुषों के प्रति घृणा का पाठ पढ़ाया जा रहा है। उन्हें बताया जा रहा है कि दलित एवं पिछड़े वर्ग को तो होली, दशहरा, दिवाली एवं भारतीय महापुरुषों के जन्मोत्सव तक नहीं मनाने चाहिए। रावण को उनका आराध्य देव बताकर राम से नफरत सिखाई जा रही है। क्या ये जनवादी और अम्बेडकर के नाम पर रोटी तोड़ने वाले तथाकथित दलित हितेषी दल इस नफरत से दलितों को अपने ही धर्म और समाज से दूर करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?

 

आर्य समाज हमेशा से ही सामाजिक समरसता, जातिवाद और छुआछूत का विरोधी रहा है। आर्य समाज ने दलित उत्थान को सामाजिक धरातल पर तो उतारा ही साथ में बलिदान भी दिए। पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द यदि दलित समाज के उत्थान के लिए  शुद्धि का आन्दोलन न चलाते तो क्या मजहबी उन्मादी उनकी हत्या करते? सबसे पहले आर्य समाज ने पुरोहितवाद पर हमला किया, शूद्र समझे जाने वाले वर्ग को सीने से तो लगाया ही साथ ही उनको वह सब अधिकार दिलाये जिस पर हिन्दू धर्म को अपनी बपौती समझने वाले अपना जन्म सिद्ध  अधिकार समझते थे। लोगों को बताया कि वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी न कि जन्म के आधार पर! 

 

आज यदि कोई जाति व्यवस्था को जन्म साथ जोड़ता है तो वह निःसंदेह धर्म को तोड़ने का कार्य कर रहा है। यदि हम भारत को पुनः वैभवशाली बनाना चाहते हैं तो यह धारणा स्थापित करनी पड़ेगी कि सम्पूर्ण हिन्दू एक हैं, उसका प्रत्येक जन मेरा प्रिय भाई है। उन्हें महसूस होना चाहिए कि हम हिन्दू समाज का अटूट अंग है और हमें जाति के नाम पर अलग करने वाले अपना राजनैतिक स्वार्थ पूरा कर रहे हैं। इस बार पंडित लेखराम जी के बलिदान दिवस पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम सभी जातिमुक्त और जाति के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने की प्रक्रिया को अधिक निष्ठा के साथ व्यावहारिक जीवन प(ति में अपनायें यही पंडित लेखराम जी के प्रति सच्ची श्रद्धाजली होगी और दलित मुस्लिम गठजोड़ को अमली जामा पहनाने वालों के मुंह पर कालिख होगी।

ALL COMMENTS (0)