राजेंद्र प्रसाद के एक और प्रश्न का निराकरण करते हैं। ये ऋग्वेद में "बौद्ध स्तूप" का वर्णन दिखाकर वेदों को बुद्ध के बाद बना सिद्ध करना चाहते हैं:-
 
Rajendra Prasad Singh
यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवां अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है। इसमें अबौद्ध ( अबुध्ने ) राजा वरुण का स्तूप उलटने का वर्णन है, वे इस कार्य में पूतदक्ष हैं, उलटने के बाद स्तूप का मुख नीचे और जड़ ऊपर है जिसमें बुद्ध वास करते हैं-बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः। आगे के श्लोक में ह्रदय को कष्ट देनेवाले को हराने में समर्थ वरुण का जयगान है।
 
समाधान:- आप भी विचित्र प्राणी है! आपको जो सूझती है, अनोखी ही सूझती है। पहले रामायण में चैत्य शब्द पर हल्ला मचाकर मुंह की खाई,अब वेद पर आक्षेप कर रहे हैं।
भला! त्रिपिटक में जो "तिण्ण वेद,वेदगू,वेदांतगू,यज्ञ,गायत्री मंत्र, वेदों व व्याकरण आजि ग्रंथों के नाम हैं" उनके आधार पर बौद्ध मत को संस्कृत के बाद का क्यों नहीं मानते? व्यर्थ ही वितंडा क्यों करते हैं।
इस तरह से तो हम आपका भी नाम दिखा सकते हैं, देखिये:-
“कर्म्मणैतेन राजेन्द्र । धर्म्मश्च सुमहान् कृतः ॥”
महाभारते । २ । ४५ । ४१ ।
यहां महाभारत में "राजेंद्र" शब्दप्रयोग है। तो क्या ये मान लें कि महाभारत आपके जन्म के बाद बनी है? असली अर्थ है - राजश्रेष्ठ।
 
अब आपके ऋग्वेद मंडल १ सूक्त २४ पर आते हैं।
ये सूक्त शुनःशेप से संबंधित है। प्राचीन भाष्यकार सायण आदि यहां शुनःशेप नामक व्यक्ति विशेष की चर्चा मानते हैं।उसे नरबलि देने के लिये लाया गया है। वो अपने प्राण बचाने के लिये इंद्र,अग्नि,वरुण आदि देवों की स्तुति कर रहा है। दरअसल शुनःशेप नामक किसी व्यक्ति विशेष की चर्चा वेद में नहीं हो सकती। वेद में इतिहास का निषेध निरुक्तकार महर्षि यास्क करते हैं और अन्य आचार्य भी। अतः यहां पर महर्षि दयानंद ने जो अर्थ किया है,वही उचित है।
इस पर आर्यसमाज की पुस्तकें पढ़ें, यथा " वैदिक इतिहासार्थ निर्णय" आदि।
 
वेद में इतिहास मानने का निषेध सायण ने भी अपनी भाष्यभूमिका में किया था, पर अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत यत्र तत्र इतिहास, व्यक्ति विशेष के चरित्र लिख डाले, सो उनका वदतोव्याघात दोष है।
जो भी है, इस सूक्त में कोई भी न तो किसी बौद्ध स्तूप का अस्तित्व मानता है, न किसी वरुण नामक राजा का किसी स्तूप को तोड़ने का। यहां पर हर भाष्यकार "वरुण" से परमात्मा या किसी देवता का अर्थ ग्रहण करता है, नाकि किसी बौद्ध विध्वंसक व्यक्ति विशेष राजा का।
 
हम आरंभ के दो मंत्रों का अर्थ महर्षि दयानंद के अनुसार देते हैहैं।
कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥१॥
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥२॥
( ऋग्वेद १/२४/१-२)
 
"यहां पर प्रश्नोत्तर शैली में परमात्मा उपदेश कर रहा है। यहां प्रश्न है कि हम किसका नाम पवित्र जानें? कौन अमृतमय है? कौन हमें मोक्ष रूप अमृत का पान कराकर पुनः माता पिता का दर्शन कराता है?
उत्तर है कि परमात्मा=अग्नि= सबसे अग्रगणी ईश्वर का नाम सबसे पवित्र है, वही अमृतमय मोक्ष देता है, व पुनः माता पिता के दर्शन कराता है।"
 
पूरी जानकारी के लिये महर्षि दयानंद का ऋग्वेद भाष्य देखिये।है।
(B):--*"स्तूप" वाले वेदमंत्र का सत्यार्थ*
 
अब विवादास्पद मंत्र पर आते हैं। हम पहले इसका अर्थ महर्षि दयानंद, निरुक्तकार आदि के अनुसार करते हैं, फिर राजेंद्र प्रसाद के लेख की समीक्षा करते हैं:-
मंत्र का देवता यानी प्रतिपाद्य विषय वरुण है।
 
अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः ।
नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्ंतर्निहिताः केतवः स्युः ॥७॥
( ऋग्वेद १/२४/७)
 
"हे मनुष्यों! तुम जो पवित्र बल वाला प्रकाशमान श्रेष्ठ सूर्यलोक या जलसमूह अंतरिक्ष से पृथक् असदृश पड़े आकाश में, जोकि व्यवहारों से सेवने योग्य संसार है,जो ऊपर अपनी (स्तूपः) किरणों को छोड़ता है जिसकी नीचे को गिरती हुई किरणें इस संसार के पदार्थों पर ठहरती हैं । जो इनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ हैं, और जो किरणें वा प्रज्ञान हैं, ये यथावत् जानो।
 
(C):- *सायणाचार्य, स्कंदस्वामी का अर्थ*
 
हम यहां इस मंत्र पर सायणाचार्य व स्कंद स्वामी का भाष्य भी देते हैं:-
 
सायणाचार्य- (पूतदक्षः) शुद्धबलः (वरुणः) राजा (अबुध्ने) मूलरहिते अंतरिक्षे तिष्ठन् (वनस्य) वननीयस्य तेजसः (स्तूपं) संघम् (ऊर्ध्वम्)उपरिदेशे ददते धारयति।... ऊर्ध्वदेशे वर्तमानस्य वरुणस्य रश्मय इत्याध्याहार्यम्। स्तूपं स्त्यैः' शब्दसंघातयोः। स्त्यै संप्रसारणच्च इति।
 
" (पूतदक्ष) शुद्धबलवाला (वरुण) राजा,सूर्य ( अध्याहार किया है) अंतरिक्ष में स्थित है । वरणीय तेजों का स्तूप=संघ=समूह(यानी किरणों का समूह) ऊपरीय प्रदेश में जाता है। उर्ध्वदेश में वरुण(सूर्य)की रश्मियां स्थित है, ये अध्याहार किया। "स्तूप" में "स्त्यै" का अर्थ है, संघात,समाहार और संप्रसारण ।"
 
सायणाचार्य के भी बहुत पहले स्कंद स्वामी नामक वेद भाष्यकार हुये हैं।उनका अर्थ भी कुछ ऐसा ही है:-
 
स्कंदस्वामी-(अबुध्ने) अनाश्रये अनालंबनेsन्तिरिक्षे राजा दीप्त ईश्वरो वा वरुण वनस्य ऊर्ध्वम् स्तूपम् दृश्यते वनम्(निघंटु १/६) इति रश्मि नाम। स्तूप शब्दे संघातम् 
... अनाश्रयेsन्तरिक्षे आदित्यमंडलोर्ध्वमय स्ताश्च रश्मीन धारयतीत्यर्थ,इत्यादि ।"
" आलंबनरहित, बिना आधार वाले अंतरिक्ष में राजा=सूर्य या दीप्तिमान ईश्वर स्थित है। यहां वरुण से स्कंद आदित्यलोक का अर्थ लेते हैं। यहां वनम् से रश्मियों,सूर्यकिरणों का ग्रहण है। स्तूप का अर्थ संघात=समाहार है। 
... संक्षेप में, आश्रयरहित अंतरिक्ष में स्थित सूर्यलोक ऊपर की ओर किरणें धारण करता है।"
 
(D):- *स्तूप शब्द का अर्थ*
 
पं श्रीराम शर्मा का भी कुछ ऐसा ही अर्थ है। यहां स्कंद स्वामी, सायण,दयानंद, श्रीराम शर्मा- कोई भी किसी कपोलकल्पित राजा वरुण किसी बौद्ध स्तूप को तोड़ने का वर्णन नहीं मानता। सब लोग यास्कमुनि रचित निरुक्त के आधार पर "स्तूप का अर्थ संघात=किरणों का" करते हैं।
 
(क):-निरुक्तकार ने स्पष्ट लिखा है-
 
हिरण्यमयः स्तूपः अस्य इति वा ।
स्तूपः स्त्यायतेः संघातः ।
हिरण्यस्तूपः हिरण्यमयः स्तूपः ।
हिरण्यस्तूपः सवितः यथा त्वा अङ्गिरसः जुह्वे वाजे अस्मिन् ।
। । १०.३३ ।
 
ऋग्वेद 10-149-5 में भी आया है - हिरण्यस्तूपः सवितार्यथा" यहाँ स्तूप शब्द के साथ हिरण्य शब्द है जिसका अर्थ है - सूर्य वा सूर्यकिरण और स्तूप का अर्थ निरूक्तकार करते है - "स्तूपः स्त्यातेः। संघातः - निरूक्त 10-33 
अर्थात् स्तूप कहते है संघात को अर्थात् समूह वा ढेर को। 
अतः स्तूप का अर्थ बौद्ध विहार नहीं बल्कि समूह है जैसे ईंटों का समूह तो ईटों का स्तूप
रेतों का समूह तो रेतों का स्तूप या टीला 
इसी प्रकार यहाँ हिरण्यस्तूप में षष्ठी तत्पुरूष हो कर हिरण्यस्य संघातः इति हिरण्यस्तूप अर्थात् किरणों के समूह या संघात को यहाँ बताया गया है।
लौकिक कोष भी देखें:-
 
(ख):-वाचस्पत्यम्:-
स्तूप¦ पु॰ स्तु--पक् पृषो॰ स्तूप--अच् वा।
 
१ राशोकृते मृत्तिकादो २ संघाते ३ बले ४ निष्प्रयोजने च संक्षिप्त॰।
 
(ग):-शब्दसागर:-
1. A heap, a pile of earth, &c. 
2. A funeral pile. 
3. A Bud'dhistic construction for keeping holy relics.
 
यहां पर स्तूप अर्थ हैं:-
१:- पार्थिव पदार्थों, यथा, मिट्टी आदि का ढेर
२:- चिता की लकड़ियों का समाहार
३:- बौद्ध निर्माण
४:- किसी भी वस्तु का संघात।
 
इतने अर्थ होने पर केवल बौद्ध स्तूप अर्थ करना पक्षपात है।
 
(E)- *'बुध्ने' और 'अबुध्ने'*
 
बुध्नः का अर्थ है- "बुध्नमंतरिक्षं बद्धा धृता आप इति "( निरुक्त १०/३३)
बुध्न का अर्थ है-" अंतरिक्ष में बंधा हुआ जल=मेघ"
 
बुध्न इति मेघनामसु पठितम्।- बुध्न मेघ के लिये पठित है क्योंकि मेघ ही अंतरिक्ष में जल को बांधकर रखता है।
( निघंटु १/१२)
 
तो "अबुध्ने" का अर्थ होगा , जो "मेघादि से परे आश्रयरहित आकाश है" ।
यहां "बुध्ने" "अबुध्ने" का बुद्ध से कोई संबंध नहीं है।
*'बुध्ने' और 'अबुध्ने'* इस मुर्ख का कहना है कि यह वरूण की उपाधि है लेकिन इसे ज्ञात होना चाहिए कि उपाधि अर्थात् विशेषण और कर्त्ता अर्थात् विशेष दोनो में समान विभक्ति होती है , जहां अबुध्ने इन प्रत्यय अन्तर्गत नकारान्त शब्द तृतीया विभक्ति एकवचन है वहीं वरूण शब्द में अकारान्त पुल्लिंग प्रथमा एकवचन है तो अबुध्ने वरूण की उपाधि नहीं ।
बुद्ध और बुध्न् शब्द का धात्वांतर भी इस मुर्ख को पता नहीं तो किस बात का भाषा वैज्ञानिक है। बुद्ध शब्द बुध अवगमने (धातु.6-579) से बना है और बुध्ने शब्द बध, बऩ्धने(धातु. 8-700) से बना है। यदि बुद्ध और बुध्न समान होते तो धातु भी समान होती।
( इस समाधान के लिये हम नटराज मुमुक्षु जी का आभार व्यक्त करते हैं।)
 
(F):- *राजेंद्र के लेख की समीक्षा*
 
प्रश्न:-इसमें अबौद्ध ( अबुध्ने ) राजा वरुण का स्तूप उलटने का वर्णन है।
उत्तर:- अबुध्ने का अर्थ ऊपर कर आये हैं, यानी अबुध्न= जो बंधा हुआ नहीं है,मेघादि से परे है यानी आकाश "
अबुध्न का अर्थ "अबौद्ध" बौद्ध मत को न मानने वाला, कौन से व्याकरण और कोश से किया है?
 
प्रश्न-वे इस कार्य में पूतदक्ष हैं, उलटने के बाद स्तूप का मुख नीचे और जड़ ऊपर है।
 
उत्तर: पूतदक्ष की अर्थ है, पवित्र बलरूपी किरणों वाला सूर्य। और यहां किसी कपोलकल्पित वरुण राजा का बौद्ध स्तूप पलटमे का वर्णन नहीं है। जरा बतायें, ये वरुण कौन था,कब हुआ था, इसने कब कितने बौद्ध स्तूप तोड़े? 
वेद में वरुण शब्द परमात्मा, सूर्य,शिक्षक आदि यौगिक अर्थों में है, नाकि किसी कपोलकल्पित बौद्ध विरोधी नरण राजा के
 
प्रश्न-जिसमें बुद्ध वास करते हैं-बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः। आगे के श्लोक में ह्रदय को कष्ट देनेवाले को हराने में समर्थ वरुण का जयगान है।
उत्तर:- "बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः"- का ये अर्थ कि " उसमें बुद्ध " वास करते हैं, कौन से निरुक्त,व्याकरण या भाष्यकार के अनुसार है? या बिना जाने बूझे व्याकरण की टांग तोड़कर झूठ बोलने का अभ्यास है?
 
यहां बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः का अर्थ है -"जिस अबुध्न यानी आकाश में बुध्न=जल को बांधने वाला मेघ, स्थित है"
 
अगले मंत्र में अत्याचारी को दमन करने वाला परमात्मा या कोई भी धार्मिक राजा- का वर्णन है। किसी व्यक्ति निशेष की चर्चा वेद में नहीं होती।
 
निष्कर्ष:- वेद में कहीं भी किसी बौद्ध स्तूप का वर्णन नहीं है। केवल किरणों के समूह का वर्णन है। राजेंद्र प्रसाद की एक और गप्प का सरे बाजार में भंडाफोड़ हो गया।

ALL COMMENTS (0)