हम मनुष्य हैं। हमारा जन्म माता-पिता से हुआ है। माता-पिता से मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया सृष्टि के आरम्भ काल में मैथुनी सृष्टि आरम्भ होने के साथ आरम्भ हुई। वर्तमान में भी यह विद्यमान है और सृष्टि की प्रलय होने तक यह प्रथा इसी प्रकार से चलती रहेगी। माता-पिता से सन्तान का जन्म होने का सिद्धान्त व प्रक्रिया परमात्मा की देन है। यदि परमात्मा न होता और वह इस सृष्टि को बना कर संचालित न करता तो मनुष्यों की उत्पत्ति होना असम्भव था। सृष्टि की रचना व पालन, मनुष्य आदि प्राणियों की विधि विधान पूर्वक उत्पत्ति व जन्म मरण तथा सुख दुख की व्यवस्था देख कर ईश्वर की सत्ता का ज्ञान व अनुभव होता है। मनुष्य में हम दो प्रकार के पदार्थ वा पदार्थों का अस्तित्व देखते हैं। एक जड़ पदार्थ है और दूसरा चेतन पदार्थ है। मनुष्य का शरीर जब मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह मृत्यु होने पर निर्जीव व आत्मा विहिन होने से पूर्णतया जड़ व अचेतन हो जाता है। उसे कोई कांटा चुभाये, अंगों को काटे या फिर अग्नि को समर्पित कर दे, उसे किंचित पीड़ा नहीं होती जबकि उसके जीवनकाल में एक छोटा सा कांटा चुभने पर भी मनुष्य तड़फ उठता है। यह जो तड़फ व पीड़ा होती है यह मनुष्य शरीर में चेतन तत्व की विद्यमानता है। जब तक आत्मा शरीर में रहती है शरीर सुख व दुःख, भूख, प्यास, रोग व शोक आदि का अनुभव करता है और जब आत्मा निकल जाती है तो उसे ही मृत्यु कहते हैं। उसके बाद जो जड़ शरीर बचता है उसे किसी प्रकार की संवेदना वा सुख, दुःख की अनुभूति नहीं होती है।

हमारा व अन्य प्राणियों का यह आत्मा का स्वरूप कैसा है? इसका उत्तर है कि शरीर से सर्वथा भिन्न जीवात्मा एक चेतन तत्व व पदार्थ है। मेरे शरीर में जो चेतन पदार्थ है वही मैं हूं। मनुष्य जब बोलता है कि मैं हूं, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह कह रहा है कि मैं मेरा शरीर हूं। शरीर के साथ मेरा शब्द का प्रयोग ही यह बता रहा है कि आत्मा शरीर से भिन्न है, शरीर स्वयं में वह मनुष्य नहीं है जिसके लिए मैं शब्द का प्रयोग करते हैं। बोलचाल में भी हम यह कहते हैं मेरा शरीर, मेरा हाथ, मेरी आंख आदि। यह सब प्रयोग वैसे ही होते हैं जैसे हम कहते हैं कि मेरा पुत्र, मेरा भाई, मेरे माता-पिता, मेरा घर, मेरी साईकिल व स्कूटर, मेरे मित्र, मेरी पुस्तक आदि। जिनके साथ मेरा शब्द लगता है वह मैं व मुझ से पृथक सत्ता का संकेत करता है। अतः शरीर मैं नहीं हूं अपितु यह शरीर मैं का अर्थात् मेरी आत्मा का है। हमारी आत्मा की सत्ता है। सत्तावान होने से आत्मा सत्य कहलाती है। इस आत्मा की उत्पत्ति कैसे होती है? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि यदि हम यह कहते हैं कि आत्मा किसी जड़ व चेतन से उत्पन्न हुई तो फिर प्रश्न होगा कि वह पदार्थ, जिनसे आत्मा उत्पन्न हई, किससे उत्पन्न हुए? इस प्रकार विचार करते करते अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। वेद एवं ऋषियों ने इस प्रश्न का समाधान किया है। उनके अनुसार ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि तत्व हैं। अनादि तत्व का अर्थ है कि उनकी कभी किसी अन्य पदार्थ से उत्पत्ति नहीं हुई। कारण या तो कारण रूप में ही रहता है या फिर वह कार्य में परिणत होता है। ईश्वर व जीव यह दो ऐसे पदार्थ हैं है जिनका कारण कोई नहीं और न यह किसी अन्य पदार्थ के कारण हैं। यह सदैव अपनी अवस्था में ही रहते हैं। ईश्वर से न कोई नया पदार्थ बनता है और न ही आत्मा से कुछ बनता है। अतः आत्मा व जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी वा अमर पदार्थ हैं। गीता में बहुत सुन्दर रुप में कहा गया है ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।’ अर्थात् आत्मा ऐसा तत्व है जिसको शस्त्र काट नहीं सकते हैं, अग्नि आत्मा को जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। परीक्षणों व विश्लेषण से आत्मा का यही स्वरूप सत्य सिद्ध होता है।

जीवात्मा मनुष्य शरीर में हो या अन्य प्राणियों के शरीर में हो, यह सर्वत्र एकदेशी व अल्पज्ञ है। एकदेशी का अर्थ परिमित स्थान में रहने वाला सूक्ष्म पदार्थ है। आत्मा की लम्बाई व चौडाई को न तो मिलीमीटर व उसके अंशों में व्यक्त किया जा सकता। इसकी लम्बाई, चौड़ाई व गोलाई को गणित की रीति से इसलिये व्यक्त नहीं किया जा सकता कि हम जितनी भी कल्पना करेंगे यह उससे भी सूक्ष्म है। हां, ईश्वर की सूक्ष्मता की दृष्टि से ईश्वर जीवात्मा से अधिक सूक्ष्म है और आत्मा के भीतर व्यापक रहता है। आत्मा ससीम है अर्थात् परिमित है। आत्मा का गुण कहें या स्वभाव यह जन्म व मरण धर्मा है और कर्मानुसार उनके सुख-दुःख रूपी फलों का भोगता है। आत्मा का अनेक प्राणियों योनियों में कर्मानुसार जन्म होता है। वहां यह पलता व बढ़ता है। इसमें शैशव, बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्धावस्थायें आती हैं और फिर इसकी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद इसका पुनः उसके कर्मों के अनुसार जन्म होता है। हमारा वर्तमान जन्म से पूर्व भी जन्म था, उससे पूर्व मृत्यु और उससे भी पूर्वजन्म था। इस क्रम व श्रृंखला का न तो आरम्भ है और न अन्त। यह सदा से चला आ रहा है और सदैव इसी प्रकार चलता रहेगा। आत्मा अनादि, नित्य, अमर व अविनाशी पदार्थ है। यह न कभी उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है।

हमारी आत्मा एक अत्यन्त सूक्ष्म चेतन पदार्थ हैं। यही हम है और हमारा शरीर हमारा साधन है जिससे हमें अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करना है। उद्देश्य है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। मोक्ष अन्तिम लक्ष्य है। यह सभी लक्ष्य मनुष्य शरीर रुपी साधन से प्राप्त होते हैं। इन साधनों का उल्लेख वेद और दर्शन आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द कृत ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि में है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थ अविद्या से युक्त होने के कारण न उनसे जीवन के लक्ष्य को जाना जा सकता है और न उसकी प्राप्ति के साधनों को ही। अतः आत्मा को जानकर हमें हमें अपने उद्देश्य व लक्ष्य को जानने व उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें मोक्ष के साधनों को करना होगा। दर्शन ग्रन्थ सहित इसे हम सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास को पढ़कर भी जान सकते हैं। हमारे सभी ऋषि व सच्चे योगी इन साधनों का उपयोग करते थे। ऋषि दयानन्द जी ने भी अपने जीवन में ईश्वर, जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार अपने कर्तव्यों को पूरा किया। अनुमान से हम कह सकते हैं कि वह मोक्ष को प्राप्त हो गये होंगे। मोक्ष मिलना या न मिलना ईश्वर के अधीन है और वह हमारे कर्मों, विद्या व आचरण पर आधारित है। हम यह जानते हैं कि हमारे प्रत्येक कर्म का फल हमें मिलना है। अतः यदि हमने शुभ कर्मों को किया है तो निश्चय ही उनका परिणाम शुभ ही होगा।

जिस प्रकार मनुष्य को मार्जन कर स्वच्छता व पवित्रता को प्राप्त करना होता है उसी प्रकार हमें यह भी देखना है कि हमारे चारों ओर का वातावरण पवित्र हो। यदि नहीं है तो हमें उसके लिए प्राणपण से पुरुषार्थ करना है। हो सकता है कि यह कार्य जानलेवा भी हो सकता है। ऋषि के सम्मुख भी हर क्षण प्राण जाने के संकट रहते थे परन्तु वह अपने कर्तव्य पालन में डटे रहते थे। विद्वानों का अनुमान है कि ऋषि को लगभग 17 बार विष देकर जान से मारने के प्रयत्न किये गये परन्तु फिर भी वह ईश्वर विश्वास के आधार पर मनुष्यों के कल्याण करने के कार्य से कभी च्युत नहीं हुए। हमें भी अपने कर्तव्य का पालन करना है और दूसरों को भी प्रेरित करना है। वेद की भी यही आज्ञा है। हमें समाज से अज्ञान, अभाव, अन्याय, हिंसा, क्रोध, लोभ, अनाचार, दुराचार, अभद्रता, शोषण आदि से मुक्त करना है। आत्मरक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तव्य है जिसे शारीरिक उन्नति के नाम से आर्यसमाज के नियमों में प्रथम स्थान पर रखा गया है। ऐसा करके ही समाज सुधार हो सकता है। ऐसा नहीं करेंगे तो कालान्तर में यह हमें ऐसी चोट कर सकता है कि इसका विकल्प भी हमारे पास तब न होगा। अतः भविष्य के प्रति सचेत रहते हुए हमें वेद एवं स्मृति पर आधारित अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहना है और समाज को स्वच्छ व पवित्र बनाना है। ऋषि दयानन्द ने शास्त्रों के आधार पर कहा है कि हिंसा वह होती है जो निर्दोषों के प्रति की जाती है। हिंसक व्यक्ति संसार में अनेक सज्जनों को कष्ट व दुःख देता है। अतः ऐसे लोगों को हिंसा से पृथक करने के सभी साम, दाम, दण्ड व भेद उपाय अपनाने उचित होते हैं। इससे समाज व सज्जन लोगों को सुख पहुंचता है। अतः हमें अपने कर्तव्यों को जानना व उस पर दृण रहना है।

आत्मा को जाने बिना हम अपना जीवन भली प्रकार से व्यतीत नहीं कर सकते। यदि आत्मा और परमात्मा को नहीं जानेंगे तो हमसे अधिक मात्रा में पाप भी हो सकते हैं। अतः वेद और सत्यार्थप्रकाश आदि का निरन्तर स्वाध्याय कर अपनी आत्मा व परमात्मा को जानें और अपने सभी कर्तव्यों का ईश्वर को साक्षी व फलप्रदाता मानकर पूरी निष्ठा से पालन करें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

 

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