आर्य समाज के कारण कैसे बचा अफ्रीका का हिन्दू समुदाय


Author
Rajeev ChoudharyDate
04-Jul-2018Category
लेखLanguage
HindiTotal Views
306Total Comments
0Uploader
RajeevUpload Date
04-Jul-2018Download PDF
0.06 MBTop Articles in this Category
Top Articles by this Author
भारतीय उपमहाद्वीप से निकली आर्य समाज की वैदिक विचाधारा देश-विदेश जहाँ भी गयी अपने साथ लेकर गयी अपनी वेदवाणी, अपनी भाषा और सत्य सनातन वैदिक धर्म की वह जीवंत संस्कृति जो समस्त मानव जाति पर सहिष्णुता के साथ उपकार का कार्य करती है।
देखा जाये तो महर्षि दयानन्द सरस्वती की शिक्षाएं भारतीय भूभाग से निकलकर दक्षिण अफ्रीका में 20वीं सदी के आरम्भ में पहुँचीं। दक्षिण अफ्रीका में जाने वाले पहले आर्य समाजी भाई परमानंद 1 9 05 में पहुंचे थे। अपने चार महीने के प्रवास के दौरान, उन्होंने जोहान्सबर्ग, प्रिटोरिया और केप टाउन की यात्रा की थी। वह अंग्रेजी और हिन्दी दोनों के प्रखर वक्ता थे। उन्होंने हिन्दू संस्कृति, धर्म, भारतीय सभ्यता, ईश्वर में विश्वास, अपने समारोह, मातृभाषा हिन्दी और शिक्षा के महत्व पर भाषण दिए। उन्होंने अपने त्यौहारों के महत्व पर जोर दिया और तब से वहां दीपावली को हिन्दुओं के त्यौहार के रूप में पहचाना जाने लगा है। उन्होंने भारतीयों के बीच हिन्दू धर्म को मजबूत करने के लिए जमीनी आर्य समाज समितियों की स्थापना की और विभिन्न हिन्दू समूहों को एक मंच पर लाने का कार्य करने के साथ भारतीयों को अपने संस्कृति एवं विरासत पर गर्व करने की शिक्षा दी तथा सामाजिक सुधार एवं शिक्षा के प्रसार का कार्य किया।
असल में वर्ष 1 9 08 से पहले अफ्रीका में हिन्दू समुदाय के लोगों को दीपावली मनाने का अधिकार नहीं था। आप लोग सुनकर आश्चर्य करेंगे कि उस समय अफ्रीका के हिन्दू समुदाय का सबसे बड़े रूप में मनाया जाने वाला त्यौहार ताजिया था। मुहर्रम के दौरान हिन्दू समुदाय ताजिये का जुलूस निकाला करते थे। यह देख वहां पहुंचे आर्य समाज के विद्वान स्वामी शंकरानन्द को बड़ी निराशा हुई हृदय दुःख से भर आया कि अपने उत्सवां को भूल आज यहाँ हिन्दुओं का सबसे बड़ा उत्सव ताजिया बन चुका है। स्वामी जी ने लोगों की चेतना जगाने का निर्णय लिया और अप्रैल 1 9 10 में, स्वामीजी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के जन्म का जश्न मनाने के लिए डरबन की सड़कों पर एक रथ जुलूस का आयोजन किया। भीड़ उमड़ी स्वामी ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए लोगों को अपने उत्सवों के सही महत्व को समझाया।
स्वामीजी की मेहनत रंग लाई और परिणामस्वरूप दीपावली को हिन्दुओं के मुख्य त्यौहार के रूप में स्थापित किया गया। हिन्दुओं से अपने वैदिक धर्म पर गर्व करने का आग्रह किया और धार्मिक व्याख्यान, संस्कार और भारतीय स्थानीय भाषाओं के अध्ययन पर जोर दिया। वह श्रीराम के जन्म और हिन्दू कैलेंडर में योगिराज कृष्ण की महत्वपूर्ण तिथियों से जुड़े उत्सवों के साथ वैदिक संस्कृति को पुनः स्थापित करने में सफल रहे। साथ ही उन्होंने डरबन और पीटर्सबर्ग में वेद धर्म सभा की स्थापना भी की। उन्होंने गाय के लिए हिन्दुओं के मन में गहरे सम्मान पर प्रकाश डाला और गौहत्या को रोकने के लिए लड़ाई को लड़ा। स्वामी ने हिन्दू चेतना और उद्देश्य की एकता को बढ़ाने में बड़ी जीत हासिल की।
लोगों को राह मिली धीरे-धीरे स्थानीय कार्यकर्ता पैदा होने लगे इसी में एक आर्य कार्यकर्ता थे पंडित भवानी दयाल जो 1 9 12 में बीस वर्ष की उम्र में भारत से लौटे थें उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार किया और दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी के प्रचार की शुरुआत की। वह और उनकी पत्नी, गांधी के सत्याग्रह में भी शामिल थे और दोनों अंगेजों की कैद में थे। किन्तु 1916 में रिहा होते ही उन्होंने एक हिन्दी साहित्यिक सम्मेलन का आयोजन किया और अफ्रीका में दो स्थानीय हिन्दी भाषी समाचार पत्रों का प्रकाशन कराया। एक अन्य प्रचारक, स्वामी मंगलानंद पुरी, 1913 में नाताल ब्राजील गए। उन्होंने आर्य युवक सभा के तहत व्याख्यान दिए और अपने प्रवास के दौरान, उन्होंने आर्य समाज में शामिल होने वाले कई युवा पुरुषों को आकर्षित किया। 1920 के दशक की शुरुआत तक अफ्रीकी देशों में कई आर्य समाज स्थापित करा दिए गए थे।
इसके बाद तो मानो जैसे अफ्रीकी भूमि पर आर्य समाज की लहर चल पड़ी थी। उसी दौरान पंडित पूर्णानंद द्वारा युगांडा में आर्य समाज द्वारा एक बड़ी भव्य इमारत का निर्माण किया गया.।डी ए वी कॉलेज के प्रोफेसर रलामम होशियारपुर पंजाब से 1931 में अफ्रीका पहुंचे और वैदिक धर्म पर व्याख्यान दिए। इसके बाद 1934 में आर्य विद्वान पंडित आनंद प्रियजी, जो भारत के बड़ौदा के आर्य कन्या महाविद्यालय से लड़कियों के गाइड के एक दल के साथ पहुंचे, और शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन किया, राष्ट्रीय और धार्मिक गीत गाए और उनके बलशाली प्रभावशाली भाषणों के माध्यम से वैदिक धर्म की शिक्षाओं को फैलाया। 1937 में प्रोफेसर यशपाल ने योग की शक्तियों का प्रदर्शन किया। पंडित ऋषिराम ने 1937 और 1945 में दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया और वेदों, उपनिषद और गीता के आधार पर शिक्षाएं दीं।
उस समय यूगांडा आर्य समाज पूर्वी अफ्रीका में सबसे सक्रिय समाज था। आर्य समाज के कार्यों से प्रभावित होकर युगांडा के कंपाला में कालिदास मेहता जी ने एक विशाल भव्य ईमारत आर्य विद्यालय के रूप बनवाकर भेंट कर दी। लेकिन आर्य समाज की इन महान गतिविधियों को 70 के दशक में युगान्डा के सैनिक तानशाह इदी अमीन की मजहबी नजर ने कुचलने का कार्य किया। उसने गद्दी पर बैठते ही भारतीय मूल के सभी लोगों को युगांडा छोड़ने और आर्य समाज का काम समाप्त कर दिया। एशियाई मूल के हजारों लोगों को जो इस्लाम से भिन्न मत रखते थे जिनमे भारत का एक बहुत बड़ा हिन्दू समुदाय भी था देश से निकाल दिया गया, उनकी संपत्ति जब्त कर ली और अपने दोस्तों में बाँट दी जब विश्व समुदाय ने इस घटना को उठाया तो समस्त मुस्लिम देष्शें ने एक स्वर में कहा था कि इस्लाम के बीच सिर्फ इस्लाम को मानने वाले ही रह सकते है।
समय गुजरा लगभग एक दशक लम्बी चली इदी अमीन की मजहबी सत्ता के विनाश के बाद कुछ साल पहले फिर से आर्य समाज का कार्य शुरू हो गया है। आज वहां आर्य समाज अपने पूरे वेग से कार्य कर रहा है वहां के आर्य समाजों आर्य शिक्षण संस्थानों पर लहराती ओ३म ध्वज पताका मन में आर्य समाज के प्रति अथाह गर्व की भावना भर देती है कि आर्य समाज के उपकार से केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही ऋणी नहीं हैं बल्कि अफ्रीका में बसे हिन्दुओं पर भी आर्य समाज का कितना बड़ा उपकार है।
ALL COMMENTS (0)