भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात को मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। यह तिथि उसी शुभ घड़ी की याद दिलाती है और सारे देश में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। हर वर्ष की भांति एक बार फिर श्रीकृष्ण जी का जन्मदिवस का उत्सव निकट आ रहा है। एक बार फिर वही होगा जो होता आया है। जगह-जगह दही-हांड़ी के आयोजन होंगे। भागवत गीता के पाठ होंगे, कहीं कथावाचक योगी राज श्रीकृष्ण को माखन चोर बताकर गोपियों से उनकी रासलीला का वर्णन करते दिखेंगे तो कोई गोपियों के कपड़े चुराने का वर्णन करेंगें सजे पंडाल और मंदिरों में जमा लोग चटकारे ले-लेकर कर अपने घरों की ओर लौट जायेंगे। जब यह सब कुछ होगा लोग सोचेंगे कि कृष्ण का जन्म होगा लेकिन असल मायने में ये कृष्ण का जन्मदिवस नहीं बल्कि गीता में कहे गये उनके विचारों की हत्या होगी। 

कथा वाचकों ने मन्त्र घड़ दिया कि जब-जब धर्म की हानि होगी मैं वापस आऊंगा, यानि मेरा जन्म होगा। ये लोग खुद तो कायर थे ही वीर लोगों को भी प्रतीक्षा में बैठा दिया कि कुछ मत करो धर्म की हानि होने पर प्रभु खुद आ जायेंगे। कहा जाता कि चमत्कारों से प्रभावित होकर उत्पन्न हुई श्रद्धा धर्म के विनाश का कारण बनती है लेकिन जिन्होंने गीता के सच्चे अर्थों को जाना है, जिन्होंने योगिराज श्रीकृष्ण के विचारों को आत्मसात किया, वह इस चक्कर में फंस ही नहीं सकते। उनके पास जरूर सवाल होंगे कि जो श्रीकृकृष्ण नग्न द्रोपदी को ढ़क सकते हैं क्या वे श्रीकृष्ण गोपियों को नग्न देखना पसंद करते होंगे? कितनी विरोधभाषी बात है एक ही चरित्र से लोगों ने दो अलग-अलग कार्य करा दिए। इसीलिए महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती सदा धार्मिक हो जाती है जब हम पीछे लौट कर देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है दूसरे अर्थ ले लेती है जो अर्थ कभी नहीं रहे होंगे वह भी जन्म लेते हैं। 

इसी कारण श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती शायद सदी में बार-बार लिखी जाती है। हजारों लोग लिखते हैं हजारों व्याख्या होती चली जाती हैं फिर धीरे-धीरे श्रीकृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती श्रीकृष्ण एक संस्था हो जाते हैं। फिर वह अंधश्रद्धा  के सबूत हो जाते हैं। जब ऐसा होता है तो श्रीकृष्ण मंदिरों के पुजारियों के व्यापार हो जाते हैं। संस्थाओं की दान पेटियों के कान्हा बन जाते हैं वे राधा के प्रेमी हो जाते हैं, वह रासलीला के श्रीकृष्ण बन जाते हैं। वे गोपियों के कान्हा हो जाते हैं फिर वे गीता के वो श्रीकृष्ण कहाँ रह जाते हैं जो मानवता को कर्मयोग का रास्ता दिखाते है।

ध्यान से पढ़े तो भागवत के श्रीकृष्ण में और महाभारत के श्रीकृष्ण में तालमेल समझना कोई बड़ी बात नहीं।  दोनों में बड़ा अंतर दिखेगा। गीता के श्रीकृष्ण बड़े गंभीर हैं, धर्म, आत्मा, परमात्मा, योग और मोक्ष की बात करते हैं। कहते हैं- ‘जब मनुष्य आसक्तिरहित होकर कर्म करता है, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है किन्तु भागवत के श्रीकृष्ण एकदम गैर गंभीर वे माखन चुरा रहे हैं, नहाती हुई लड़कियों के कपड़े चुरा रहे हैं। कितना विरोध है दोनों में एक तरफ परम आत्मा है जो परम को जानती है जो रण में निराश अर्जुन को आरम्भ और अंत की व्याख्या सहज भाव से गम्भीर मुस्कुराहट के साथ समझा रही है कि अर्जुन तू रुकभाग मत! क्योंकि जो भाग गया, स्थिति से, वह कभी भी स्थिति के ऊपर नहीं उठ पाता, जो परिस्थिति से पीठ कर गया, वह हार गया। दूसरी ओर भागवत में एक स्वरचित पात्र है जो चोरी कर रहा है और माँ से झूठ बोल रहा है। क्या दोनों एक हो सकते हैं?

कुछ लोग कह सकते हैं नहीं यही श्रीकृष्ण का बाल्यकाल था और बचपने में बच्चे ऐसा ही करते हैं तब ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण को समझना बहुत आवश्यक है। श्रीकृष्ण महाभारत में एक पात्र हैं जिनका वर्णन सबने अपने-अपने तरीके से किया सबने श्रीकृष्ण के जीवन को खंडो में बाँट लिया, सूरदास ने उन्हें बचपन से बाहर नहीं आने दिया, सूरदास के श्रीकृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े श्रीकृष्ण के साथ उन्हें पता नहीं क्या खतरा था? इसलिए अपनी सारी कल्पनायें उनके बचपन पर ही थोफ दीं। रहीम और रसखान ने उनके साथ गोपियाँ जोड़ दीं, इन लोगों ने वह श्रीकृष्ण मिटा दिया जो वेद और धर्म की बात कहता है और मीरा के भजन में दुःख खड़े हो गये, इस्कॉन वालों ने अलग से श्रीकृष्ण खड़ा कर लिया, श्रीकृष्ण का जो असली चरित्र कर्मयोग का था, जो ज्ञान का था, जो नीति का था, जिसमें धर्म का ज्ञान था, जिसमें युद्ध की कला थी वह सब हटा दिया नकली खड़ा कर दिया। 

धर्म और इतिहास में श्रीकृष्ण अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी अहंकार से परे थे। श्रीकृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, कृश्रीकृष्ण दुख को भी नहीं पकड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं पकड़ रहे हैं। गीता के श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि शरीर मूल तत्व नहीं है, मूल तत्व आत्मा है, जन्म आरम्भ नहीं है और मृत्यु अंत नहीं है क्योंकि आत्मा की यात्रा अनंत है अतः शरीर की यात्रा यानि जन्म मरण पर कैसी खुशी, कैसा उत्सव! और कैसा शोक?

 

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  • bahot achchha aur sachcha bhi.

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