जरा कुछ पल सोचकर देखिये कि आज से कुछ समय बाद आप तो होंगे, आपके आस-पास भीड़ भी होगी लेकिन इस भीड़ में अपनेपन और स्नेहभाव का कोई एक स्पर्श नहीं होगा यानि आपको कोई अपना कहने वाला नहीं होगा, अब कोई कहे ऐसा कुछ नहीं होगा! ये सिर्फ एक खोखला भय है तो उन्हें आज चीन के बुजुर्गां से यह सब सीख लेना चाहिए। असल में चीन ने 1979 से एक बच्चे की नीति को लागू किये रखा, जिससे उनकी औरतों में एक तरह की नकारात्मक भावना ने जन्म लिया और औरतों में प्रजनन शक्ति दर तेजी से गिरती चली गयी। इसी कारण आज चीन में इस एक बच्चे की बालनीति से वहां बुजुर्ग अकेले और बेसहारा दिखाई देते हैं। उनके पास अनुभव भी हैं और पैसा भी लेकिन रिश्तों नातों से खोखले होकर नितांत अँधेरे में हैं जहाँ अपनेपन की उम्मीदों की किरण दिखाई नहीं देती।

अब चीन इस सबसे सबक लेकर अपने नागरिकों के भविष्य के लिए एक योजना बना रहा है जिसके तहत जो परिवार जितने बच्चे पैदा करना चाहते हैं वह कर सकते हैं और इसके लिए कोई सीमित संख्या तय नहीं की जाएगी। चीन के इस हाल को देखते हुए अगले कुछ वर्षों में भारतीय समाज में भी यही हाल होने जा रहा है क्योंकि अभी तक भारतीय समाज की पहचान और प्राणवायु रहे संयुक्त परिवार आज सिमट रहे हैं। शायद धीरे-धीरे लुप्त हो जायेंगे। यदि गांवों को अलग रखे तो देश के बड़े शहरों में परिवार और समाज विघटन की कगार पर हैं। अस्सी नब्बे के दशक में ट्रकों आदि के पीछे लिखे गये स्लोगन ‘‘छोटा-परिवार सुखी परिवार’’ आज दुखी परिवार नजर आ रहा है। देश में बढ़ते वृ( आश्रम इस बात का प्रमाण हैं जैसे माता-पिता या बुजुर्ग हमारी जिम्मेदारी नहीं बल्कि एक बोझ बनते जा रहे हैं। 

इसका सबसे बड़ा कारण है एक ही बच्चा पैदा करने का रिवाज, जो आज बुजुर्गों को घर से घसीटकर बाहर वृद्ध आश्रम जैसी जगहों पर ले गया। आज हर कोई एक बच्चे को ही अपने जीवन में पर्याप्त समझता है तो कोई दो बच्चों से अपने परिवार को पूरा करना सही समझता है। हालांकि ये सबके विचार और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। कारण अधिकांश जगह आजकल दोनों पति-पत्नी कामकाजी होते हैं, इसलिए वो एक बच्चा पैदा करना ही ठीक समझते हैं तथा दूसरों को भी एक ही बच्चा पैदा करने की सलाह देते हैं। बात सलाह तक तो सही है किन्तु सलाह के बाद सवाल ये है कि एक ही बच्चे की नीति से उसे समाज में कहाँ से बुआ, कहाँ से मामा, चाचा, बहन, भाई दिए जायेंगे? जब वह अकेला बड़ा होगा तो उसके लिए माँ बाप भी कोई मायने नहीं रख पाएंगे। 

इसे कुछ ऐसे समझिये कि मान लिया आपने एक बच्चा पैदा कर लिया आपके यहाँ बेटा हुआ तथा अन्य किसी दूसरे के यहाँ बेटी हुई। दोनों को अच्छी शिक्षा भी दे दी गयी, वह भी कामकाजी हो गये। अब दोनों की शादी हो गयी। उनके यहाँ भी एक बच्चा हो गया, क्या आपको नहीं लगता आगे चलकर उक्त दम्पति के ऊपर दो लड़की के तथा दो लड़के के माता-पिता मिलाकर अब चार बुजुर्गो की देखभाल की जिम्मेदारी हो गयी? क्या वह इन रिश्तों की जिम्मेदारी ईमानदारी और स्नेह के साथ निबाह पाएंगे? दिल पर हाथ रखकर कितने लोग जवाब दे सकते हैं कि उस समय उन चार बुजुर्गो की जगह घर में होगी या बाहर किसी संस्था में?

हो सकता है कुछ लोग इस पारिवारिक सामाजिक, समीकरण से इत्तेफाक न रखे और कहें कि महंगाई बहुत है एक बच्चें की परवरिश बड़ी मुश्किल होती है। यदि आप ऐसे सोचते है और अपने इस जवाब पर कायम हैं तथा एक बच्चे की परवरिश को बड़ी बात समझ रहे हैं  तो आखिर वह एक बच्चा दो बुजुर्गों की जिम्मेदारी कैसे उठाएगा? 

एक समय था कभी घर और मन इतने विशाल थे कि चाचा, ताऊ ही नहीं, बल्कि दूर के रिश्ते के भाई, बंधु और उनके परिवार भी इसमें समा जाते थे लेकिन आज परिवार तो दिखाई ही नहीं देते साथ में घर के बुजुर्ग भी वृद्ध आश्रमों में पटक दिए जाते हैं। अब स्थान और सम्बन्ध इतने संकुचित हो चले हैं कि अपने माता-पिता के लिए गुंजाईश निकालना इनको मुश्किल हो रहा है। आज इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो बिखरते हुए समाज में जो रिश्तों का खालीपन होगा, उसे भर पाना फिर असंभव हो जायेगा आपके आस-पास भीड़ होगी लेकिन रिश्ते-नाते नहीं होंगे।

एक समय था जब वृद्ध आश्रम  जैसी संस्थाएं हमारी परिकल्पनाओं से परे थीं लेकिन आज शहर दर शहर खुलते जा रहे हैं वृद्ध  आश्रम जिनमें बुजुर्ग स्वेच्छा या मजबूरियों में पहुंचाए जा रहे हैं। आदर, प्यार और कृतज्ञता के धागे से बंधे रिश्ते हमारी विशेषता थी, क्योंकि हमारे समाज के मूल आधार हमारे मधुर रिश्ते रहे हैं, लेकिन आज की तेज भागती जिंदगी में अपने आप ही ये रिश्ते पीछे छूटते चले गए हैं।

माना आजकल महंगाई बढ़ती जा रही है, ऐसे में डिलिवरी, दवाई के खर्चे और पढ़ाई-लिखाई के खर्च लोगों कुछ हद तक भारी पड़ सकते हैं। किन्तु जो आर्थिक रूप से संपन्न है इन जिम्मेदारियों को बखूबी निभा सकते हैं वह भी इसी भेड़-चाल में फंसकर रह गये हैं और एक ही बच्चे का राग आलाप रहे है जबकि दूसरा बच्चा आ जाने से पहला बच्चा खुद को अकेला नहीं समझता है। पहले बच्चे को एक साथी मिल जाता है जिसके साथ वह घर में खेलकूद सकता है। उसे दूसरे किसी दोस्त की जरूरत नहीं पड़ती है। दूसरा बच्चा आ जाने से आपको अपने लिए थोड़ा समय मिल जाता है, क्योंकि वह दोनों एक दूसरे में व्यस्त रहते हैं। उन्हें रिश्ते मिल जाते हैं जो आगे चलकर एक परिवार का निर्माण करते हैं। उस स्थिति में माता-पिता के पास बुढ़ापे में विकल्प होते है भले ही एक पल उनकी जेब में पैसा न हो पर सामाजिक रूप से तो रिश्तों-नातों से झोली भरी रहती है किन्तु दुर्भाग्य एक ही बच्चे के गीत से आज वह झोली खाली दिखाई दे रही है।

 

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