मनुष्य को ईश्वर की उपासना करनी चाहिये अथवा नहीं? जो मनुष्य वैदिक परम्पराओं से दूर हैं और पढ़े-लिखे नास्तिकों के सम्पर्क में रहते हैं वह तो वैदिक विद्वानों के न तो तर्कों को सुनते हैं और न ही उनमें सत्यासत्य की परीक्षा करने की योग्यता होती है। जो सज्जन मनुष्य होता है, जिसमें पूर्वाग्रह नहीं होता और साथ ही जो सत्य को जानने का इच्छुक वा जिज्ञासु होता है, उसे ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तर्कों व वैदिक ऋषियों के प्रमाणों से समझाया जा सकता है। हम अपनी आंखों से संसार को देखते हैं। यह संसार कोई स्वप्न व मिथ्या दृश्य न होकर सत्य व यथार्थ सृष्टि है। यह सृष्टि अनादि काल से बनी हुई नहीं है अपितु किसी काल विशेष में इसे बनाया गया है। वैज्ञानिक भी मानते है कि यह सृष्टि बनी है तथा यह विनाश को भी प्राप्त होती है। अब प्रश्न केवल यह जानना रह जाता है कि यह सृष्टि बनी कैसे? यह अपने आप बनी या किसी अदृश्य सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सत्ता ने इसे बनाया है। कोई भी ज्ञानयुक्त रचना अपने आप स्वतः कदापि नहीं होती। इस सृष्टि के सबसे छोटे भौतिक कण परमाणु में भी नियम कार्यरत हैं और सर्वत्र समान रूप से इनका पालन पूरे ब्रह्माण्ड में होता है। इससे यह निश्चय होता है कि सृष्टि स्वरचित न होकर किसी परम व महान चेतन सत्ता के द्वारा बनकर अस्तित्व में आयी है। ऐसा कदापि सम्भव नहीं है कि सूर्य, पृथिवी, चन्द्र व अन्य लोक लोकान्तर अपने आप बन गये और उन्होंने अपनी धूरी व सूर्य आदि ग्रहों की परिक्रमा करना आरम्भ कर दिया हो। ऐसा होना असम्भव है इसलिये इसे अपौरूषेय रचना कहा जाता है।

 

यह सृष्टि मनुष्य वा उनके समूह द्वारा भी नहीं रची गई है, न रची जा सकती है, अपितु यह एक अपौरूषेय सत्ता ईश्वर से रची गई है। इस सृष्टि की रचना को देखकर इसके कर्त्ता ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है, इसका तर्कपूर्ण उत्तर यह है कि ईश्वर की सत्ता है, वह चेतन पदार्थ है, इसी कारण वह ज्ञान व कर्म करने की क्षमता रखता है। ज्ञानयुक्त वा चेतन सत्ता को सुख व दुख अनुभव होते हैं। ईश्वर का विचार करें तो वह दुःखों से सर्वथा रहित है। इसका एक कारण उसका शरीर रहित होना है। ईश्वर सर्वज्ञ है और इस कारण वह आनन्दस्वरूप है। विशाल ब्रह्माण्ड को देखकर उसका सर्वव्यापक व निराकार होना भी सिद्ध होता है। इस विशाल सृष्टि का भली प्रकार से संचालन करने के कारण वह जन्म व मरण से रहित भी सिद्ध होता है। यदि वह जन्म-मरण धर्मा होता तो वह इस सृष्टि को कदापि न बना सकता। ईश्वर की सत्ता का विस्तृत ज्ञान सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद्, योगदर्शन आदि सभी दर्शनों सहित वेद व ऋषियों के अन्य ग्रन्थों से होता है। ईश्वर के बाद मनुष्य व प्राणियों के विषय में भी कुछ प्रमुख बातों को जानना आवश्यक होता है। मनुष्य व सभी प्राणियों में एक अल्पज्ञ चेतन जीवात्मा होता है। यह जीवात्मा अनादि, अमर, नित्य, अनुत्पन्न व अविनाशी है। यह अति सूक्ष्म, एकदेशी एवं ससीम होते हैं। चेतन होने से ही यह ंज्ञान व कर्म से युक्त होते हैं। मनुष्य योनि के जीव अपने ज्ञान को माता-पिता व आचार्यों से अध्ययन व स्वाध्याय से बढ़ा सकते है व साथ ही सुखपूर्वक अपना जीवन भी व्यतीत कर सकते हैं। यह भी जानना आवश्यक है कि जिस प्रकार हमारा यह जन्म हुआ है इसी प्रकार से सभी प्राणियों में विद्यमान जीवात्माओं के अतीत काल में अनन्त जन्म व मरण, जैसे अब देखे जाते हैं, उसी प्रकार से होते आये हैं और आगे भी होते रहेंगे।

 

ईश्वर के आनन्दस्वरूप होने से उसका संसार को बनाने व चलाने में अपना कोई निजी प्रयोजन नहीं है। यह संसार उसने अपनी अनादि प्रजा, जिसे जीव कहते हैं, उनके भोग व अपवर्ग के लिये बनाया है। भोग का अर्थ है सुख व दुःख जो ईश्वर की व्यवस्था से सभी जीवों को उनके पूर्व व वर्तमान के कर्मों के अनुसार मिलते हैं। दुःख आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीन प्रकार के होते हैं। इनसे बचने के लिये ही मनुष्य को आसन व व्यायाम करने के साथ आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना होता है। शास्त्रों में इनके नियम व इनकी उपादेयता पर प्रकाश डाला गया है। सभी मनुष्य सुख चाहते हैं। सुख का आधार धर्म अर्थात् ज्ञानयुक्त सत्य कर्म होते हैं। असत्य कर्मों का परिणाम दुःख व अवनति होता है। सुख का एक साधन ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र यज्ञ करना भी होता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य दुःखों से बचता है और सुख प्राप्त करता है। यह बात सत्य,युक्ति एवं तर्क से सिद्ध हैं। ईश्वर के सच्चिदानन्दस्वरूप होने से जीवात्मा ईश्वर की उपासना करते हुए ईश्वर से युक्त व जुड़ कर दुर्गुणों व दुःखों से दूर होकर ईश्वर के आनन्द से युक्त होता है। इसी लिये सभी ज्ञानी, विप्र, बुद्धिमान, मननशील, विवेकशील मनुष्य प्रातः व सायं कम से कम एक घंटा सन्ध्या व ईश्वर की उपासना करते हैं और प्रति दिन प्रातः व सायं देवयज्ञ अर्थात् दैनिक अग्निहोत्र करके प्राण वायु को शुद्ध करके रोगों व अल्पायु पर विजय प्राप्त करते हैं। सन्ध्या से न केवल दुःख व दुर्गुण ही दूर होते हैं अपितु हमारी आत्मा भी उन्नति को प्राप्त होकर सद्गुणों से युक्त होती है। ऋषि दयानन्द अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर कहते हैं कि ईश्वर की उपासना से मनुष्य की आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान अपनी व अपने परिजनों आदि की मृत्यु व अन्य दुःखों के प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है और विवेकपूर्वक उन दुःखों को सहन कर लेता है। महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में उपासना का लाभ बताकर कि पहाड़ के समान के दुःख आने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है, पाठकों से पूछते हैं कि क्या यह छोटी बात है? यह वस्तुतः छोटी बात न होकर बहुत महत्वपूर्ण बात है। प्रायः सभी मनुष्यों के जीवन में दुःख आते जाते रहते हैं। यदि वह आरम्भ से ही उपासना करते हैं तो वह दुःखों में अधिक विचलित नहीं होते। जीवन के अन्त समय में जब मृत्यु आती है उसे भी वह आसानी से सहन कर लेते हैं। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द की अपनी मृत्यु की घटना एक आदर्श उदाहरण हैं।

 

ईश्वर ने सृष्टि को सभी जीवात्माओं के लिए बनाया है। वह अनादि काल से हमें मनुष्यादि जन्म देता आ रहा है और अनन्त काल तक हमारे कर्मानुसार हमें अनेकानेक योनियों में जन्म देता रहेगा। वह हमें मानव व अन्य योनियों के शरीर देने के बदले हमसे कुछ धन व अपना गुणगान करना, मांगता व लेता नहीं है। हमें अपने कर्तव्य का बोध होना चाहिये। हम संसार में किसी से थोड़ा सा भी उपकृत होते हैं तो उसका धन्यवाद करते हैं। उसके उपकार के बदले हम उसके लिये सब कुछ करने के लिये तैयार हो जाते हैं। ईश्वर के तो हम पर सबसे अधिक उपकार हैं। वह हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा, न्यायाधीश व मित्र भी हैं। अतः हमें सन्ध्या-उपासना आदि कार्यों को करके उसका धन्यवाद करना चाहिये। इसका फल हमें अवगुणों की निवृत्ति होने के साथ सद्गुणों की प्राप्ति के रूप में प्राप्त होगा। उपासना करने वाले मनुष्यों को ईश्वर का सहाय भी प्राप्त होता है। ईश्वर को सर्वव्यापक, सबका साक्षी और कर्म-फल दाता जानकर हम कभी पाप नहीं कर सकते। पाप नहीं करेंगे तो हमें भविष्य में दुःख भी नहीं होंगे। हम सुखी व प्रसन्न रहेंगे और उपासना से हमारी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होगी। यह सभी लाभ ईश्वर की उपासना से होते हैं। उपासना से हमारा परजन्म भी सुधरता है। हम पश्वादि नीच योनियों में जाने से बच जाते हैं। अतः हम सभी का कर्तव्य है कि हम सब सन्ध्या, स्वाध्याय तथा अग्निहोत्र आदि करें, यदि नहीं करते हैं तो हमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार इसे करना आरम्भ कर देना चाहिये। इससे निश्चय ही हमें लाभ होगा। संसार में सबसे महान सत्ता व सर्वशक्तिमान के हम निकट रहकर कभी दुःखी नहीं होंगे। हमें स्वयं तो उपासना करनी ही है इसके साथ ही अपने निकटवर्ती सभी बन्धुओं को भी वैदिक विधि से उपासना की विधि समझानी चाहिये। इससे हमारा व अन्यों का कल्याण होगा। ओ३म् शम्।

 

“ईश्वर की उपासना से लाभ”

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मनुष्य को ईश्वर की उपासना करनी चाहिये अथवा नहीं? जो मनुष्य वैदिक परम्पराओं से दूर हैं और पढ़े-लिखे नास्तिकों के सम्पर्क में रहते हैं वह तो वैदिक विद्वानों के न तो तर्कों को सुनते हैं और न ही उनमें सत्यासत्य की परीक्षा करने की योग्यता होती है। जो सज्जन मनुष्य होता है, जिसमें पूर्वाग्रह नहीं होता और साथ ही जो सत्य को जानने का इच्छुक वा जिज्ञासु होता है, उसे ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तर्कों व वैदिक ऋषियों के प्रमाणों से समझाया जा सकता है। हम अपनी आंखों से संसार को देखते हैं। यह संसार कोई स्वप्न व मिथ्या दृश्य न होकर सत्य व यथार्थ सृष्टि है। यह सृष्टि अनादि काल से बनी हुई नहीं है अपितु किसी काल विशेष में इसे बनाया गया है। वैज्ञानिक भी मानते है कि यह सृष्टि बनी है तथा यह विनाश को भी प्राप्त होती है। अब प्रश्न केवल यह जानना रह जाता है कि यह सृष्टि बनी कैसे? यह अपने आप बनी या किसी अदृश्य सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सत्ता ने इसे बनाया है। कोई भी ज्ञानयुक्त रचना अपने आप स्वतः कदापि नहीं होती। इस सृष्टि के सबसे छोटे भौतिक कण परमाणु में भी नियम कार्यरत हैं और सर्वत्र समान रूप से इनका पालन पूरे ब्रह्माण्ड में होता है। इससे यह निश्चय होता है कि सृष्टि स्वरचित न होकर किसी परम व महान चेतन सत्ता के द्वारा बनकर अस्तित्व में आयी है। ऐसा कदापि सम्भव नहीं है कि सूर्य, पृथिवी, चन्द्र व अन्य लोक लोकान्तर अपने आप बन गये और उन्होंने अपनी धूरी व सूर्य आदि ग्रहों की परिक्रमा करना आरम्भ कर दिया हो। ऐसा होना असम्भव है इसलिये इसे अपौरूषेय रचना कहा जाता है।

 

यह सृष्टि मनुष्य वा उनके समूह द्वारा भी नहीं रची गई है, न रची जा सकती है, अपितु यह एक अपौरूषेय सत्ता ईश्वर से रची गई है। इस सृष्टि की रचना को देखकर इसके कर्त्ता ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है, इसका तर्कपूर्ण उत्तर यह है कि ईश्वर की सत्ता है, वह चेतन पदार्थ है, इसी कारण वह ज्ञान व कर्म करने की क्षमता रखता है। ज्ञानयुक्त वा चेतन सत्ता को सुख व दुख अनुभव होते हैं। ईश्वर का विचार करें तो वह दुःखों से सर्वथा रहित है। इसका एक कारण उसका शरीर रहित होना है। ईश्वर सर्वज्ञ है और इस कारण वह आनन्दस्वरूप है। विशाल ब्रह्माण्ड को देखकर उसका सर्वव्यापक व निराकार होना भी सिद्ध होता है। इस विशाल सृष्टि का भली प्रकार से संचालन करने के कारण वह जन्म व मरण से रहित भी सिद्ध होता है। यदि वह जन्म-मरण धर्मा होता तो वह इस सृष्टि को कदापि न बना सकता। ईश्वर की सत्ता का विस्तृत ज्ञान सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद्, योगदर्शन आदि सभी दर्शनों सहित वेद व ऋषियों के अन्य ग्रन्थों से होता है। ईश्वर के बाद मनुष्य व प्राणियों के विषय में भी कुछ प्रमुख बातों को जानना आवश्यक होता है। मनुष्य व सभी प्राणियों में एक अल्पज्ञ चेतन जीवात्मा होता है। यह जीवात्मा अनादि, अमर, नित्य, अनुत्पन्न व अविनाशी है। यह अति सूक्ष्म, एकदेशी एवं ससीम होते हैं। चेतन होने से ही यह ंज्ञान व कर्म से युक्त होते हैं। मनुष्य योनि के जीव अपने ज्ञान को माता-पिता व आचार्यों से अध्ययन व स्वाध्याय से बढ़ा सकते है व साथ ही सुखपूर्वक अपना जीवन भी व्यतीत कर सकते हैं। यह भी जानना आवश्यक है कि जिस प्रकार हमारा यह जन्म हुआ है इसी प्रकार से सभी प्राणियों में विद्यमान जीवात्माओं के अतीत काल में अनन्त जन्म व मरण, जैसे अब देखे जाते हैं, उसी प्रकार से होते आये हैं और आगे भी होते रहेंगे।

 

ईश्वर के आनन्दस्वरूप होने से उसका संसार को बनाने व चलाने में अपना कोई निजी प्रयोजन नहीं है। यह संसार उसने अपनी अनादि प्रजा, जिसे जीव कहते हैं, उनके भोग व अपवर्ग के लिये बनाया है। भोग का अर्थ है सुख व दुःख जो ईश्वर की व्यवस्था से सभी जीवों को उनके पूर्व व वर्तमान के कर्मों के अनुसार मिलते हैं। दुःख आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीन प्रकार के होते हैं। इनसे बचने के लिये ही मनुष्य को आसन व व्यायाम करने के साथ आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना होता है। शास्त्रों में इनके नियम व इनकी उपादेयता पर प्रकाश डाला गया है। सभी मनुष्य सुख चाहते हैं। सुख का आधार धर्म अर्थात् ज्ञानयुक्त सत्य कर्म होते हैं। असत्य कर्मों का परिणाम दुःख व अवनति होता है। सुख का एक साधन ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र यज्ञ करना भी होता है। ईश्वर की उपासना से मनुष्य दुःखों से बचता है और सुख प्राप्त करता है। यह बात सत्य,युक्ति एवं तर्क से सिद्ध हैं। ईश्वर के सच्चिदानन्दस्वरूप होने से जीवात्मा ईश्वर की उपासना करते हुए ईश्वर से युक्त व जुड़ कर दुर्गुणों व दुःखों से दूर होकर ईश्वर के आनन्द से युक्त होता है। इसी लिये सभी ज्ञानी, विप्र, बुद्धिमान, मननशील, विवेकशील मनुष्य प्रातः व सायं कम से कम एक घंटा सन्ध्या व ईश्वर की उपासना करते हैं और प्रति दिन प्रातः व सायं देवयज्ञ अर्थात् दैनिक अग्निहोत्र करके प्राण वायु को शुद्ध करके रोगों व अल्पायु पर विजय प्राप्त करते हैं। सन्ध्या से न केवल दुःख व दुर्गुण ही दूर होते हैं अपितु हमारी आत्मा भी उन्नति को प्राप्त होकर सद्गुणों से युक्त होती है। ऋषि दयानन्द अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर कहते हैं कि ईश्वर की उपासना से मनुष्य की आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान अपनी व अपने परिजनों आदि की मृत्यु व अन्य दुःखों के प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है और विवेकपूर्वक उन दुःखों को सहन कर लेता है। महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में उपासना का लाभ बताकर कि पहाड़ के समान के दुःख आने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है, पाठकों से पूछते हैं कि क्या यह छोटी बात है? यह वस्तुतः छोटी बात न होकर बहुत महत्वपूर्ण बात है। प्रायः सभी मनुष्यों के जीवन में दुःख आते जाते रहते हैं। यदि वह आरम्भ से ही उपासना करते हैं तो वह दुःखों में अधिक विचलित नहीं होते। जीवन के अन्त समय में जब मृत्यु आती है उसे भी वह आसानी से सहन कर लेते हैं। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द की अपनी मृत्यु की घटना एक आदर्श उदाहरण हैं।

 

ईश्वर ने सृष्टि को सभी जीवात्माओं के लिए बनाया है। वह अनादि काल से हमें मनुष्यादि जन्म देता आ रहा है और अनन्त काल तक हमारे कर्मानुसार हमें अनेकानेक योनियों में जन्म देता रहेगा। वह हमें मानव व अन्य योनियों के शरीर देने के बदले हमसे कुछ धन व अपना गुणगान करना, मांगता व लेता नहीं है। हमें अपने कर्तव्य का बोध होना चाहिये। हम संसार में किसी से थोड़ा सा भी उपकृत होते हैं तो उसका धन्यवाद करते हैं। उसके उपकार के बदले हम उसके लिये सब कुछ करने के लिये तैयार हो जाते हैं। ईश्वर के तो हम पर सबसे अधिक उपकार हैं। वह हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा, न्यायाधीश व मित्र भी हैं। अतः हमें सन्ध्या-उपासना आदि कार्यों को करके उसका धन्यवाद करना चाहिये। इसका फल हमें अवगुणों की निवृत्ति होने के साथ सद्गुणों की प्राप्ति के रूप में प्राप्त होगा। उपासना करने वाले मनुष्यों को ईश्वर का सहाय भी प्राप्त होता है। ईश्वर को सर्वव्यापक, सबका साक्षी और कर्म-फल दाता जानकर हम कभी पाप नहीं कर सकते। पाप नहीं करेंगे तो हमें भविष्य में दुःख भी नहीं होंगे। हम सुखी व प्रसन्न रहेंगे और उपासना से हमारी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होगी

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