संसार में सृष्टि के आदि काल से महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं। महाभारत काल का इतिहास महाभारत ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध है। इससे पूर्व रामायण काल का इतिहास भी बाल्मीक रामायण के रूप में उपलब्ध है। सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल तक का इतिहास इन दो ग्रन्थों में ही समाविष्ट है। संसार के अन्य किसी भी देश का इतिहास इतना पुराना नहीं है जितना की आर्यों वा वैदिक धर्मियों का इतिहास। संसार के अन्य देशों में मनुष्य जाति का इतिहास भारत के समान पुराना नहीं है। भारत से अन्य देशों में सबसे पुराना ग्रन्थ जन्दावस्था को माना जाता है। इस पर भी भारत के दर्शन व आध्यात्मिक ज्ञान का प्रभाव स्वीकार किया जाता है। भारत के पुराने महापुरुषो में प्रमुख श्री राम व श्री कृष्ण हैं। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी और मनु जी सहित अनेक ऋषियों के नाम मिलते हैं परन्तु इनकी जन्म तिथि, माता, पिता का नाम, भाई बहिनों के नाम और उनके जीवन काल की अवधि, पुण्य तिथि तथा इनके कार्यों का समुचित ज्ञान नहीं है। यदि रहा होगा तो उसका दीर्घकालावधि के कारण नष्ट होना सम्भव है। महाभारत काल के बाद देश व विश्व के देशों में अनेक महापुरुष उत्पन्न हुए परन्तु ऋषि दयानन्द हमें सभी महापुरुषों की तुलना में शिखर पुरुष प्रतीत होते हैं। महाभारत काल के बाद वेद विलुप्त हो गये थे। वेद की मंत्र संहितायें तो भारत में थी परन्तु वेदों के सत्य व यथार्थ अर्थों को विद्वान व सामान्य कोई नहीं जानता था जिस कारण यज्ञ में पशुओं की हत्या व उनके मांस से आहुतियां देने की मिथ्या व अज्ञानपूर्ण परम्परायें आरम्भ हुई थी। इसी कारण महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी जी को इन कुप्रथाओं व विधानों का विरोध करना पड़ा और कालान्तर में इनके अनुयायियों ने वेद विरुद्ध बौद्ध व जैन मत को प्रचारित किया। इसके बाद वेदों का कुछ-कुछ ज्ञान रखने वाले स्वामी शंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने जैन मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित भी किया और वैदिक धर्म को पुनः प्रचलित व पुनर्जीवित किया। शंकाराचार्य जी ने वेद मत के विरुद्ध नव-वेदान्त मत का प्रचलन किया जो कि वेदों के यथार्थ सिद्धान्तों के अनुरुप न होकर उससे भिन्न था।

प्राचीन सत्य वेदमत का पुनरुद्धार एवं प्रचलन करने का श्रेय उन्नीसवीं शताब्दी में ऋषि दयानन्द जी को प्राप्त है। स्वामी शंकराचार्य जी ने न तो वेदों का कोई भाष्य किया है और न वेदों पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखा है। उन्होंने उपनिषदों, वेदान्त दर्शन तथा गीता पर अपने अद्वैत मत के विचारों के अनुरुप टीकायें ही लिखी है। प्रश्नोत्तरी तथा विवेक चूड़ामणि आदि कुछ संक्षिप्त ग्रन्थों की रचना भी की है। वेदों में उन्होंने प्रवेश नहीं किया। प्रश्नोत्तरी आदि में तो उनकी वेद विरुद्ध मान्यतायें भी विद्यमान है। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने मुख्यतः तत्वमसि ग्रन्थ में उनके सिद्धान्तों की समीक्षा व आलोचना की है। स्वामी शंकराचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के अनुरूप वेदों का प्रचार प्रसार इस लिए भी नहीं किया कि ऐसा करने पर वह अपने अद्वैत मत का प्रतिपादन न कर पाते। ऋषि दयानन्द ने वेदों के अर्थों के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ व खींचतान नहीं की। उन्होंने आर्ष व्याकरण, निरुक्त-निघण्टु व प्राचीन आचार्यों के सिद्धान्तों के अनुरूप वेदों के मौलिक व व्यवहारिक अर्थ किये। उन्होंने वेदभाष्य की त्रिविध प्रक्रिया को स्वीकार किया। सायण आदि पूर्व भाष्यकारों ने वेदों को याज्ञिक प्रक्रिया के ग्रन्थ मानकर सभी मन्त्रों के यज्ञपरक अर्थ ही किये। ऋषि दयानन्द ने वेदों के सरल, सुबोध, ग्राहय, अध्यात्मपरक व व्यवहारिक सत्य अर्थ किये जिससे आज आध्यात्म पिपासु व वेद प्रेमी लाभ उठा रहे हैं और इसी कारण विश्व में वेद प्रतिपादित यथार्थ आध्यात्म प्रतिष्ठित हो रहा है।

ऋषि दयानन्द के आने से पूर्व पूरे विश्व में वेदों के सत्यार्थ और वेद वर्णित ईश्वर के यथार्थस्वरूप को लोग भूल चुके थे। मत-मतान्तरों में ईश्वर के अवतारवाद, ईश्वर पुत्र व सन्देशवाहक आदि नाना प्रकार की मान्यतायें प्रचलित हो गईं थीं। ऋषि दयानन्द ने असत्य का खण्डन और सत्य सिद्धान्तों का मण्डन युक्ति, तर्क सहित प्राचीन ऋषियों के प्रमाणों से भी किया। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश के प्रथम व सातवें समुल्लास सहित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं आर्याभिविनय आदि में ईश्वर के सत्यस्वरूप का उल्लेख, प्रकाश व प्रतिपादन किया है। स्वामी जी ने सन्ध्या व देव यज्ञ आदि पंचमहायज्ञों पर पंचमहायज्ञ विधि सहित अपनी संस्कार-विधि पुस्तक में भी प्रकाश डाला है। उनके प्रादुर्भाव से पूर्व वेदों पर पूर्णतया आधारित सन्ध्या पद्धति उपलब्ध नहीं थी। स्त्री व शूद्रों को वेदों के अध्ययन के अधिकार से भी वंचित किया गया था। ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेद के 26 वें अध्याय के दूसरे मन्त्र से न केवल स्त्री व पुरुषों को अपितु मानवमात्र को वेदाधिकार प्रदान किया जो कि महाभारत काल के बाद से बन्द था। यदि महाभारत काल के बाद स्त्रियों व शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार होता तो सनातन धर्म व हिन्दुओं की वह दुर्दशा न होती जो बौद्धकाल के समय से अब तक निरन्तर होती आ रही है। वेदों का उद्धार, स्त्री व शूद्रों को वेदाधिकार एवं समाज को सभी कुरीतियों व मिथ्या परम्पराओं से मुक्त करने की दिशा में ऋषि दयानन्द के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। ईश्वर की सच्ची उपासना भी ऋषि दयानन्द ने ही विश्व के मनुष्यों को सिखाई है। यदि 194 वर्ष पूर्व उनका जन्म और प्रादुर्भाव न होता तो हम वेदों के रहस्यों सहित ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप, सन्ध्या एवं यज्ञ-अग्निहोत्र आदि के ज्ञान व लाभों से वंचित ही रह जाते। समाज अज्ञान, अन्धविश्वासों, कुरीतियों, मिथ्या परम्पराओं सहित अशिक्षा, अनाचार, सामाजिक असमानता एवं पराधीनता आदि से ग्रस्त रहता।

ऋषि दयानन्द जी की महानता का ज्ञान हमें इस बात से भी होता है कि महाभारत के बाद वेदों का ज्ञान विलुप्त हो गया था। लोग ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरूप भूल गये और उसके स्थान पर अवतारवाद व अन्य अनेक प्रकार की कल्पनायें की गईं। यूरोप आदि देशों के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग लगभग दो अरब वर्षों से अस्तित्व में मानव सृष्टि को मात्र कुछ हजार वर्ष पुराना मानते रहे हैं और अभी भी उन लोगों ने अपनी मान्यताओं में संशोधन नहीं किया है। भारत में आज भी मानव व वेद संवत् प्रचलित है जिसके अनुसार इस मानव व वेद सृष्टि को 1.96 अरब से कुछ अधिक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। जब हम भारतवासी और अन्य देशों के लोग यूरोप के वैज्ञानिकों की सभी सत्य बातों को मानते हैं तो वहां के लोगों को भी भारत के सत्य पर आधारित वेद-मानव सृष्टि संवत को स्वीकार करना चाहिये। हमें लगता है कि इसे स्वीकार न करने का कारण पक्षपात है। यदि ऐसा न होता तो वह अवश्य ही वेद संवत् को विश्व स्तर पर स्वीकार कर लिया जाता। ऐसा करने से उन्हें शायद धार्मिक या साम्प्रदायिक दृष्टि से हानि हो सकती है क्योंकि उनके मतों का आविर्भाव सृष्टि की आयु की तुलना में अत्यन्त नवीन है। वेद संवत् को स्वीकार करने पर अन्य मत-मतान्तर भी अप्रसांगिक हो सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने घोषणापूर्वक कहा है कि सृष्टि के आदिकाल से ही वेद मत प्रचलित है और आर्यों का सारे विश्व पर सार्वभौमिक चक्रवर्ती राज्य था। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि वेदों के विलुप्त होने पर अविद्यायुक्त व सत्यासत्य पर आधारित विषसम्पृक्त अन्न के समान मत-मतान्तर संसार में प्रचलित हुए। इस कारण ऋषि दयानन्द के आविर्भाव से पूर्व के सभी मनुष्य ईश्वर, आत्मा, वेद, उपासना, अग्निहोत्र, मनुष्य जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य व कर्तव्य आदि विषयक सत्य वेदज्ञान से विमुख हुए। महाभारत के बाद विगत पांच हजार वर्षों में विश्व में कई खरब लोगों का जन्म व मृत्यु हुई है, वह सब वेद प्रतिपादित सत्य आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित रहे हैं। ऋषि दयानन्द ने वर्तमान व भावी पीढ़ी के लिये उस असत्य के पर्दे को हटा कर सत्य ज्ञान के सूर्य वेद का प्रकाश किया है। ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर मनुष्य अपनी आत्मा की क्षमता के अनुसार सत्य ज्ञान प्राप्त करने सहित योग साधना से ईश्वर को प्राप्त कर मोक्ष को भी प्राप्त हो सकता है। यह ऋषि दयानन्द की बहुत बड़ी देन है। यदि दयानन्द जी न आते और वेद ज्ञान प्राप्त कर उसका प्रचार न करते तो सारा संसार आध्यात्मिक ज्ञान से दूर अन्धकारमय जीवन व्यतीत करने के लिये विवश व अभिशप्त रहता। इस कमी को ऋषि दयानन्द जी ने दूर किया है। यही एक बात उन्हें विश्व का सर्वोत्तम महान् पुरुष बनाती है।

ऋषि दयानन्द जी के समय समस्त विश्व में अज्ञान व अन्धविश्वास छाये हुए थे। आज भी यह पूरी तरह से दूर नहीं हुए है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व आत्मा विषयक तथा अन्य सभी प्रकार का अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर किया है। मनुष्यों को उनके सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान कराया है। सभी प्रकार के पक्षपात व भेदभाव को भी दूर करने का उन्होंने शंखनाद किया था। उन्होंने बताया है कि सभी प्रकार का भेदभाव व पक्षपात अधर्म की कोटि में आते हैं। सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार व यथायोग्य व्यवहार को उन्होंने धर्मसम्मत बताया है। दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझने का स्वर्णिम नियम भी उन्होंने दिया है। किसी मत में यह सिद्धान्त व नियम नहीं है कि अविद्या का नाश करना चाहिये। विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। सभी मत ऐसा कर भी नहीं सकते। यदि करेंगे तो फिर वह अप्रसांगिक हो जायेंगे।

महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म की नींव सत्य व विज्ञान सम्मत नियमों पर रखी है। कोई भी मनुष्य आर्यसमाज व वैदिक धर्म की किसी भी मान्यता को लेकर तर्क कर सकता है। अन्य मतों में यह छूट नहीं है। आर्यसमाज ने किसी भी मत के द्वारा शास्त्रार्थ के लिये अपने द्वार खोल रखे हैं जबकि अन्य सभी मतों ने अपने द्वार बन्द कर रखे हैं। आज तक भी यह सभी मत एकत्रित होकर ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का निर्णय नहीं कर सके। यदि करेंगे तो वह जानते हैं कि वेद और आर्यसमाज की बात को स्वीकार करना पड़ेगा। यदि सत्य को स्वीकार करने में भ्रम की स्थिति है तो मत-मतान्तरों से मानवता के कल्याण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। उन्हें तो धर्मान्तरण द्वारा अपनी संख्या बढ़ाने में ही रूचि है। इस धर्मान्तरण के कार्य के लिये उनके लिए कोई भी अनुचित साधन अनुचित नहीं है। सभी छल, बल, लोभ व मिथ्या बातों व चंगई जैसी अवैज्ञानिक व निर्मूल बातों से लोगों को भ्रमित कर उनका धर्मान्तरण करने की फिराक में रहते हैं। इससे मानवता का कल्याण होने वाला नहीं है।

महर्षि दयानन्द इस लिये भी महान हैं कि उन्होंने मनुष्य जीवन के लिये सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की है। ऐसा ग्रन्थ संसार में अन्य कोई नहीं है। सत्यार्थप्रकाश अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करता है। यह संसार के सभी मनुष्यों का ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप से परिचय कराता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सत्य विधि का भी बोध कराता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुष्य जीवन की उन्नति सत्याचरण से ही हो सकती है। सत्याचरण ही सच्चा मानव धर्म है। सत्याचरण वस्तुत: वैदिक धर्म का पर्याय है। किसी मत में सत्याचरण पर वैज्ञानिक रीति से प्रकाश नहीं डाला जाता। आर्यसमाज में स्त्री व पुरुष दोनों का अधिकार समान है व कई हेतुओं से नारी के अधिकार पुरुषों से कुछ अधिक ही हैं। सन्तान को जन्म देने से नारी, वैदिक नारी जो ईश्वर व देश भक्त हो तथा वैदिक परम्पराओं का पालन करती हो, पूजनीय होती है। आर्यसमाज समलैंगकता तथा विवाहेतर स्त्री पुरुष सम्बन्धों को अनुचित व लज्जाजनक मानता है। इससे समाज का ढांचा जो 2 अरब वर्षों से चलता आ रहा है, उसके समाप्त होने सहित समाज में विकृतियों के होने की पूरी सम्भावना है। वैदिक परम्पराओं की दृष्टि से इन्हें किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह ईश्वर के ज्ञान व शिक्षाओं के सर्वथा विरुद्ध है। आर्यसमाज का यह नियम भी अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि मनुष्य को सार्वजनिक, सर्वहितकारी नियमों को पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र हैं। ऋषि दयानन्द संसार के सर्वतोमहान् पुरुष थे। हम उनके चरणों में अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

 

ALL COMMENTS (0)