हमारे देश का नाम भारत है। इसका प्राचीन नाम आर्यावर्त था। इसका नाम आर्यवर्त प्राचीन काल वा सृष्टि के आरम्भकाल में पड़ा। इसका कारण यह था कि इस देश को आर्यों ने बसाया था। प्राचीन इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ईश्वर ने लगभग 1.96 अरब वर्ष पहले इस सृष्टि को उत्पन्न करने के बाद मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि तिब्बत में की थी। यह सृष्टि का आरम्भ काल था। इससे पूर्व पूरी पृथिवी पर कहीं कोई मनुष्य व मनुष्य समुदाय नहीं रहता था। सारी पृथिवी खाली पड़ी थी। कुछ समय बाद तिब्बत में आर्यों में परस्पर मतभेद हुए तो कुछ सज्जन पुरुषों ने तिब्बत छोड़कर इस आर्यावर्त वा भारत को पूरी पृथिवी में सबसे उत्तम जानकर यहां आकर इसे बसाया था। इसी कारण इसका नाम आर्यावर्त पड़ा था। उससे पूर्व यहां अन्य कोई मनुष्य जाति नहीं रहती थी। उसके बाद समय-समय पर तिब्बत व भारत से अन्य देशों में लोगों ने पलायन किया और उन देशों को बसाया। इससे यह भी ज्ञात होता है कि संसार के सभी लोगों के पूर्वज तिब्बत व आर्यावर्त देश के निवासी थे। विदेशी विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने भी इस बात को अपने शब्दों में स्वीकार किया है और कहा है कि उनके पूर्वज भारत अर्थात् पूर्व दिशा के देश अर्थात् भारत से वहां गये थे।

इतिहास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत के बाद से भारत की सीमायें छोटी होती गईं और इसमें से अनेक देश निकलते या बनते गये। इसके कारणों पर विचार करते हैं तो इसका कारण भारत का वेदमार्ग का त्याग करना तथा उसके स्थान पर अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित ईश्वर व जीवात्मा के सच्चे स्वरूप को भूलकर यज्ञो में हिंसा, जड़़पूजा, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मांसाहार, सामाजिक असमानता एवं छुआछूत जैसी परम्पराओं सहित जन्मनाजातिवाद, अविद्यायुक्त मत-मतान्तर, ज्ञान-विज्ञान व वेदाध्ययन की उपेक्षा था। आज भी यह सब बातें हमारे देश व समाज में विद्यमान है। इस कारण देश की एकता, अखण्डता सहित वैदिक धर्म व संस्कृति असुरक्षित अनुभव होती है और अन्धविश्वासों तथा मत-मतान्तरों के कारण अनेक अशुभ परिणामों का भय सताता है। महर्षि दयानन्द ने एक बार किसी के पूछने पर कहा था कि यह राष्ट्र तभी शक्तिशाली व संगठित हो सकता है जब देश के सभी नागरिकों के विचार, भाव, भाषा, ज्ञान व गुण-कर्म-स्वभाव आदि एक-समान हों। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने अपने विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से असत्य, अज्ञान व अविद्यायुक्त मतों का खण्डन और वेद व वैदिक साहित्य की विद्या प्रधान मान्यताओं का युक्ति व तर्क आदि के द्वारा मण्डन किया था। ऋषि दयानन्द ने देशदेशान्तर में घूम कर मौखिक प्रचार सहित विपक्षी मतों के आचार्यों से शंका समाधान एवं शास्त्रार्थ भी किये। इन सबमें वेदों की मान्यतायें सत्य सिद्ध हुई व मत-मतान्तरों की अनेक बातें मिथ्या व अविद्यायुक्त सिद्ध हुईं। धर्म सम्बन्धी सत्यासत्य के निर्णय हेतु ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश नाम से विश्व के एक अद्भुद महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। यह ग्रन्थ चौदह समुल्लासों में है जिसके प्रथम दस समुल्लास मण्डनात्मक हैं। यदि कोई व्यक्ति इस ग्रन्थ के प्रथम दस समुल्लास जो कि ग्रन्थ के आकार का आधा भाग हैं, पढ़ ले तो वह धर्माधर्म सहित धर्म विषयक सभी बातों को विस्तार से जान सकता है। सत्यार्थप्रकाश का पाठक ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि के मूल कारण व इन तीनों के स्वरूप आदि से भी परिचित हो सकता है। वह ईश्वर की सत्य उपासना व उससे प्राप्त होने वाले धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति को भी जान व समझ सकता है। ऐसा व्यक्ति सत्यार्थप्रकाश के विधानों के अनुरूप साधना कर उन्हें सत्य सिद्ध कर सकता है। इससे मनुष्य का यह जन्म व परजन्म उन्नति व सुख को प्राप्त होता है। पाप कर्मों से होने वाली हानियों का भी उसे परिचय मिलता है और इस कारण वह पाप कर्मों का त्याग कर दुःखों से बचकर सुखी जीवन को प्राप्त होता है।

देश में विभिन्न विचारधारायें हैं। एक ही विषय में यदि भिन्न मत हों तो उन सबमें तर्क व युक्ति से सत्य सिद्ध होने वाला एकमत ही आचरणीय व माननीय होता है। यदि सभी लोगों में सत्य के ग्रहण एवं असत्य का त्याग करने की प्रवृत्ति आ जाये तो इससे मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन तो लाभान्वित होता ही है, साथ ही इससे समाज व देश में एकत्व, समता, संगठन, सद्भाव व प्रेम का भाव दृणतर होता है। महाभारत के युद्ध से पहले देश व विश्व में सर्वत्र एक ही वैदिक विचारधारा थी। इस कारण देश मजबूत था। अतः वर्तमान ज्ञान व विज्ञान के युग में सभी मनुष्यों को अपने स्वार्थों का त्याग कर सच्चे मन से एकमत होने का प्रयास करना चाहिये और इसके लिये ईश्वर, आत्मा, धर्म, भोजन, परस्पर व्यवहार एवं कर्तव्यों आदि पर वेद, तर्क एवं युक्ति सहित सत्यार्थप्रकाश के आधार पर सत्य का निर्धारण कर सबको एक मत, एक धर्म एवं एक समान भाव व भाषा वाला बनने का प्रयास करना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा देश सबल व शक्तिशाली नहीं हो सकता। हमारे शत्रु राष्ट्र हमें सुदृण नहीं होने देंगे। आज स्थिति यह है कि लोग राष्ट्र द्रोह के कार्य कर भी दण्डित नहीं होते। इससे अन्य लोगों पर बुरा असर भी देखने को मिलता है और यह बुरी प्रवृत्तियां वृद्धि को प्राप्त होती हैं।

हम देखते हैं कि संसार में वैचारिक एकता के कारण अमेरिका, इंग्लैण्ड, जापान, रूस आदि देश एकता एवं अखण्डता के सूत्र में हैं। रूस से जुड़े कुछ देश विगत कुछ दशक पूर्व उससे पृथक भी हुए हैं जिसका कारण उनका वैचारिक व धार्मिक दृष्टि से मतभेद होना था। भारत का विभाजन भी धार्मिक मान्यताओं में अन्तर के कारण ही हुआ था। इस विभाजन के बाद भारत को एकरस, एकमत, एक विचार व एक मन-भावना वाला देश बन जाना चाहिये था परन्तु ऐसा नहीं हुआ है। ऋषि दयानन्द इस बात को जानते थे। इसलिये उन्होंने देश को 136 वर्षों से अधिक पहले देश को आगाह करते हुए सत्यार्थप्रकाश की रचना की थी और सत्यार्थप्रकाश के प्रथम 10 समुल्लासों में सर्वमान्य मान्यतायें दी थीं। आश्चर्य है कि देशवासियों ने उनके प्रदान किये हुए बहुमूल्य विचारों एवं सिद्धान्तों की उपेक्षा की। लोगों ने उनके वैदिक विचारों को उस भावना से नहीं लिया गया जिस भावना से उन्होंने उन्हें लिखा था। आज देश की क्या स्थिति है यह सब जानते हैं। आज भी देश में धर्म, मत, सम्प्रदाय के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं। देश में बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक की खाई है। जन्मना जाति वाद ने भी मनुष्यों को आपस में विभाजित कर रखा है। देश में भ्रष्टाचार भी यत्र-तत्र दिखाई देता है। राजनीति में ऐसे बहुत से लोग हैं जो कुछ वर्ष काम करने के बाद करोडों़ व अरबों रुपयों की सम्पत्ति वा धन के स्वामी हो जाते हैं जबकि दूसरी ओर करोड़ों लोग हैं जिनके पास न रोजगार है, न दो समय का भोजन, वस्त्र, औषधि और चिकित्सा। इन लोगों का शोषण होता है और अपने श्रम का उचित मूल्य नहीं मिलता। ऐसे में ऋषि दयानन्द की बातें प्रासंगिक हो उठती हैं।

देश एकता, अखण्डता और स्वाधीनता विषय पर ऋषि दयानन्द के अनेक वचनों को उद्धृत किया जा सकता है। हम यहां सन् 1883 में लिखे सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के आठवें समुल्लास से उनके वचनों को दे रहे हैं। वह कहते हैं कि अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक् पृथकृ शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है। ओ३म् शम्।

--मनमोहन कुमार आर्य

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