समय तेजी से बदल रहा है मानव 21वीं सदी की ओर तेजी से बढ़ रहा है। ग्रामों में कच्ची, उबड़-खाबड़, रास्तों पर नालियों के बहते पानी के स्थान पर पक्की सड़कें बन रही हैं। सभी के हाथों में स्मार्टफोन हैं, यातायात की सुविधा है, बड़े-बड़े अस्पताल बने हुए हैं। सभी मकान पक्कें हैं और बड़ी-बड़ी बिल्डिंग है, हर माता-पिता अपने बच्चों को बड़े स्कूलों और कालेंजों में भेज रहें हैं।

 

उन्नति की इसी मानसिकता के कारण सारे प्रयासों का लक्ष्य भौतिक उन्नति हो चुका है, मनुष्य के प्रगतिशील होने का मापदण्ड भी प्रायः भौतिकता ही हो चुकी है। इतनी उन्नति होने के पश्चात् भी हर व्यक्ति कहीं न कहीं दुःखी है वह सुख को इस भौतिकता में ढुंढ रहा है जो इसमें है ही नहीं। हर व्यक्ति चाहता है की मेरे पुत्र मेरी आज्ञाओं का पालन करें किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है।

 

सभी जन इस आधुनिकता के दौर में हताश, निराश और उदास अपने भाग्य को कोस रहे है वो इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे है पश्चात् सभ्यता ने हमारे जीवन को अस्त, व्यस्त कर दिया है। हमें अकेला कर दिया है।

 

इस एक पक्षीय भौतिक उन्नति के प्रयास में नैतिकता, सभ्यता, कर्तव्य पारायणता, पारिवारिक व समाजिक रिश्तों का महत्व खत्म होता जा रहा है, इसी कारण मानसिकता पर पाश्चात्य सभ्यता का आवरण चढ़ता जा रहा है।

 

उसकी उन्नति के आगे स्वसंस्कृति व सारे अन्य कर्तव्य गौण हो रहे हैं। काका, मामा, चाचा ये अंकल और मौसी, मामी, काकी, आन्टी शब्दों में बदल गये हैं। संस्कारों के साथ शिक्षा व उसमें आर्थिक प्रगति जब होती है तभी सब कुछ सुखमय व सुरक्षित रहता है।

हम क्या थे, क्या हो गए, क्या होगें अभी, आओं मिल बैठकर विचारें सभी।

 

लेखक- आचार्य अनूपदेव

 

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