महाराष्ट्र के पालघर में महाराष्ट्र पुलिस की ही मौजूदगी में कैसे संतों की हत्या कर दी पूरे मामले पर सोशल मीडिया में कई सवाल पूछे जा रहे हैं. आखिर लॉकडाउन में 300 लोगों की भीड़ कैसे इकट्ठा हुई थी ? पुलिस संतों के बचाने के बजाय क्यों भाग रही थी? पुलिस ने संतों को बचाने के लिए हवाई फायरिंग क्यों नहीं की? ये भी कहा जा रहा है कि आदिवासी कभी भी संत पर हमला नहीं करते हैं। लेकिन सवाल ये भी है कि दोनों संतों को बचाने की किसी ने बीच बचाव करने की कोशिश क्यों नहीं की?

वीडियो देखकर किसी के भी मन में ऐसे सवाल उतना लाजिमी है जैसे घटना किसी सोची समझी साजिश के तहत हो। जिसमें दो निरपराध सन्यासियों को खुद राज्य के रक्षक पुलिस बल ही भूखे भेडियों के झुण्ड में फैंक देते हो? और जिस तरह हमलावर लोग सन्यासियों को पहले सड़क के बीच से खदेड़ते हुए, पीटते हुए लाते हैं, पूरे हंगामे में सन्यासी सिर पर हाथ रखकर मार खाते रहते है, दया की भीख मांगते रहते है। जैसे शिकारी कुत्तों के बीच घिरा हुआ कोई मेमना हो। लेकिन हत्यारी भीड़ से कोई एक आवाज सामने नहीं आती कोई यह नहीं कहता कि अरे ये गलत है!

जहाँ अक्सर छोटे बच्चें हिंसा से डरकर इधर उधर छिप जाते है लेकिन यहाँ बच्चें भी शामिल होते है। हमलावर भीड़ में हर किसी के सिर पर ख़ून सवार है और वो जितना उन्हें पीटते हैं उनका गुस्सा उतना ही बढ़ता जाता है। यहाँ तक कि सन्यासियों और ड्राइवर को पीट-पीट कर मार कर देने के बावजूद उनके सिर से खून नहीं उतरता, बताया जा रहा है उनकी आँखे तक निकाली गयी। लेकिन गुस्सा बरकरार रहता है और खड़ी सफेद रंग की एक गाड़ी को भी पत्थर मार मारकर तोड़ देते है।

कहाँ से पैदा हुई ये नफरत कौन इस नफरत की सप्लाई कर रहा है इस ओर किसी का ध्यान नहीं है बेशक समाज और दुनिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे है आधुनिकता से लोग जुड़ते जा रहे है लेकिन इस घटना को देखकर लगता है मानों मध्यकाल का कोई जिरगा पंचायत का फरमान हो।

जब हम खून से लथपथ हुए एक साधु को पुलिस वाले का हाथ पकड़ जाते हुए या फिर भयाक्रांत हो उनका कन्धा थामने की कोशिश करते देखते हैं तो यकीन मानिए उस वक्त पूरी मानवता एक साथ शर्मसार होती है। तुरंत प्रश्न उठता है कि क्या इससे भी बुरी कोई तस्वीर कभी देखी है हमने?

हिंसा का वीडियो जिसने भी देखा उसने पहला सवाल यही किया कि पास खड़े पुलिस के जवान बेबस क्यों दिखाई दे रहे है? एक दो नहीं बल्कि पुरे पन्द्रह जवान वहां तैनात थे, किसलिए तैनात थे जुर्म रोकने के लिए या जुर्म करवाने के लिए कि आप लोग जो कर सकते है कर लीजिये कोई भी बाधा आपकी हिंसा में पैदा नही होने देंगे?

कहा जा रहा है कि पुलिस वाले डर गये थे ये लोजिक समझ से बाहर है। अगर कल पाकिस्तान सीमा हमला हो जाये और आर्मी के जवान इधर उधर छिप जाये कि हमें तो डर लग रहा है तो इसे क्या कहेंगे?

कुछ लोग कह रहे है कि सन्यासी खुद सिपाही का बाजू पकड़कर बाहर आया लेकिन वीडियो में देखिये वो आ नही रहा है बल्कि लाया गया। क्योंकि उसे पीछे से भी लात मारी जा रही थी। क्या इससे साफ नहीं हो जाता कि भूखे दरिंदो के झुण्ड में वयोवृद्ध सन्यासी को फेंका गया कि लो नोच लो इसकी बोटी?

एक पल को मान लीजिये कि वहां के लोग रात में चोरी के डर से पहरा देते है लेकिन इसका अर्थ ये है कि वहां से गुजरने वाला हर कोई चोर है और उस गाँव के लोग न्यायपालिका? मान भी लिया जाये संदेह में हिंसा हो सकती, मान लो उन्हें भी संदेह हुआ कि ये चोर है लेकिन जब पुलिस आ गयी तो फिर संदेह का आधार क्या बचता है ?लेकिन फिर भी संदेह बरकरार रहा और हिंसा तब तक जारी रही जब तक उनके प्राण नहीं निकल गये।

इस निर्मम हत्या के पीछे भाजपा ने वामपंथी विचारधारा को जिम्मेदार बताया है। आरएसएस के प्रचारक रहे सुनील देवघर ने ट्विटर के माध्यम से वामदलों पर हमलावर होते हुए कहा कि आदिवासी कभी भगवाधारी पर हमला नहीं कर सकते। वर्षों से वामपंथियों का गढ़ रहे इस दहानू क्षेत्र का एमएलए भी सीपीएम-एनसीपी गठबंधन का है। जिस क्षेत्र में लिंचिंग हुई, वह ईसाई मिशनरी गतिविधि का केंद्र है, जिन पर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए आदिवासियों को भड़काने देने का आरोप है। ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रभावित इस क्षेत्र में वर्षों से भारी मात्रा में धर्मान्तरण हुए हैं। वह लगातार लोगों में हिन्दू देवी-देवताओं और साधु-संतों के खिलाफ जहर भरने में लगे रहते हैं।

साजिश किसकी है यह अभी जाँच का विषय है, कोई फैसला अभी नही सुनाया जा सकता। लेकिन जिस तरह नव वामपंथ और मिशनरी छद्म ईसाई गठजोड़ से आदिवासी इलाकों में नफरत का कारोबार बढ़ रहा है इससे आगे भी किसी घटना से इंकार नही किया जा सकता। मध्यप्रदेश महाराष्ट्र झारखण्ड कई आदिवासी क्षेत्रों में रेडिकलाईजेशन करना चालू है और उसी क्षेत्र में ईसाई मिशनरी सबसे अधिक सक्रिय होते जहाँ अशिक्षा और गरीबी हैं। दोनों साधुओं के भगवा वेश के प्रति ऐसी घृणा ईसाई मिशनरी प्रचार और हिंसा का अभ्यास नक्सली प्रभाव से संभव संपन्न दिख रहा है। 

भले ही भारत भूमि को साधू संतों की भूमि कहा जाता है साधू संतों भी अपना एक अलग जीवन जीते रहते है इनकी एक अलग दुनिया है चाहें वह किसी अखाड़े या समुदाय से जुड़ें हो।  कल्पवृक्ष गिरी और सुशील गिरी भी जूना अखाड़े से जुड़ें थे।

जो भी हुआ पालघर मामले ने हमें एक बार फिर ये सिखाया है कि भीड़ का कोई धर्म नहीं होता, न हिंसा कोई धर्म मानती है। अफवाहों के कारोबारी बड़ी चालाकी से लोगों के बीच नफरत का जहर फैलाते हैं और वो जहर इस तरह की भयानक घटनाओं के रूप में बाहर निकलता है। इस जहर को काटने का एक ही तरीका है कि समाज में कानून का राज कायम होने दें, जो धर्म, जाति की सीमाओं के परे जाकर सबके लिए समान रहे। तभी हम खुद को बचा पाएंगे।

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