हे परठ! मेरी पकार सनो
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Manmohan Kumar AryaDate
24-Apr-2015Category
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सृषटि के आरमठमें परमातमा ने मनषयों को अमैथनी सृषटि में उतपनन किया था। परमातमा ने हमें पांच जञानेनदरियों व पांच करमेनदरियों के साथ मन, बदधि, चितत व अहंकार à¤à¥€ परदान किये हैं जो अपना-अपना कारय करते हैं। ईशवर के दवारा हमें बदधि दिया जाना तà¤à¥€ सारथक कहला सकता है कि यदि वह बदधि के लि अपना सवरूप à¤à¥€ हम पर परकाशित करे। इतना ही नहीं, उससे यह à¤à¥€ अपेकषा है कि वह हमारे लि आवशयक व हितकर सà¤à¥€ परकार का सतय जञान हमें परदान करें जिससे हम दिगà¤à¤°à¤®à¤¿à¤¤ न होकर सतय व ऋत मारग पर चलकर जीवन के उददेशय को पूरा कर सके। जीवन का उददेशय कया है? यह à¤à¥€ मनषय नहीं जान सकता जब तक कि उसकी ठीक-ठीक जानकारी हमें ईशवर से परापत न हो। वेदों वं आपत परमाणों के अनसार जीवन का उददेशय धरम-अरथ-काम व मोकष की परापति है। इस लकषय को परापति करने के सà¤à¥€ उपाय वेदों व ईशवर का साकषातकार किये ह ऋषियों-योगियों ने हमें परदान किये हैं जिससे हम जीवन में अà¤à¤¯à¤¦à¤¯ व मृतय के पशचात मोकष को परापत हो सकते हैं। मोकष से बड़ा कोई लकषय मनषय जीवन का नहीं हो सकता।
वेद ईशवर से परापत वह जञान है जो उसने सृषटि के आदि में सबसे अधिक पवितर चार शदध आतमाओं को दिया था। इस कारण से ईशवर पर पकषपात का आरोप नहीं लगता कयोंकि सृषटि की आदि में अनय मनषयों की इन चार ऋषियों के समान योगयता व पातरता नहीं थी। आज à¤à¥€ हम देखते हैं कि किसी विदयालय में जो विदयारथी परथम आता है व इसके बाद दूसरे व तीसरे सथान पर आने वाले विदयारथियों को ही परसकृत करते हैं और इनहें इसके बाद की उचच शरेणी में सहरष परवेश दिया जाता है जबकि दूसरों को परवेश तो मिल सकता है परनत उनका सथान इनके बाद में आता है। आज हम ईशवरीय जञान ऋगवेद 1/45/3 मनतर के à¤à¤¾à¤µà¥‹à¤‚ को परसतत कर रहें हैं जिनहें वेदों के सपरसिदध आचारय डा. रामनाथ वेदालंकार जी ने परसतत किया है। वेद मनतर है—‘परियमेधवदतरिवज जातवेदो विरूपवत। अंगिरसवनमहिवरत परसकणवसय शरधी हवम।।‘ वेदाचारय रामनाथ जी ने इसे ‘हे परठ! मेरी à¤à¥€ पकार सनो’ शीरषक देकर इसकी वयाखया की है।
मनतर के à¤à¤¾à¤µà¥‹à¤‚ की वयाखया करते ह वह कहते हैं कि परठके आगे खड़े-खड़े à¤à¤²à¥‡ ही दिन-रात पकार मचाते रहो, पर वे परतयेक की पकार पर कान नहीं देते। वे पकार सनते हैं परियमेध की, अतरि की, विरूप की, अंगिरस की। परियमेध उसे कहते हैं जिसे मेधा या उतकृषट बदधि परिय होती है। परियबदधि मनषय सदा बदधिसंगत परारथनां ही करता है। क अचछे-खासे बालक को अकसमात यह रोग हो गया कि वह रातरि में चिलला उठता था कि राकषस पकड़ रहा है, बचाओ, बचाओ, और फिर उसकी घिगघी बंध जाती थी। उसका कारण था उसके पिता की ओर से छोटी-छोटी बातों पर उसे à¤à¤¯à¤‚कर ताड़नां और यातनां दिया जाना। पर पिता इस कारण को न सम, देवी का परकोप जान बालक के सवासथय के लि देवी-जागरण कराने लगे। यह बदधिसममत पकार नहीं थी, इसलि उनकी पकार अनसनी हो गयी। बालक के सवासथय का बदधिसंगत उपाय तो यह था कि पिता बालक को शारीरिक यातनां देना बनद कर देते तथा उस पर परेम दरशाते।
अतरि (अ-तरि) उसे कहते हैं, जो आधिदैविक, आधिà¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• तथा आधयातमिक तीनों परकार की विघन-बाधाओं की परवाह न करता हआ आगे बढ़ने का परयास करता रहता है। आधिदैविक बाधां हैं à¤à¥‚कमप, नदियों की बाढ़, अतिवृषटि, अनावृषटि आदि। अधिà¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• बाधां हैं शतर मनषयों या सिंह, वयाघर आदि पराणियों से उतपनन की गयी विपततियां। आधयातमिक बाधां होती हैं शारीरिक रोगों या काम-करोध आदि के आकरमण। इन सब बाधाओं को नगणय करके आगे बढ़ते रहनेवाले ‘अतरि’ की पकार को à¤à¥€ परठसनते हैं। à¤à¤•à¤·à¤£à¤¾à¤°à¤¥à¤• ‘अद’ धात से तरिप परतयय करने पर à¤à¥€ ‘अतरि’ शबद सिदध होता है, जिसका अरथ होता है काम, करोध आदि शतरओं के वश में न होकर उनहें खा जानेवाला मनषय। उसकी à¤à¥€ परारथना अनसनी नहीं होती। विरूप उस मनषय को कहते हैं, जो विविध अचछे रूपों को धारण करता है। समाजसेवक, जननेता, दीनोदधारक आदि अनेक रूप उसके होते हैं। उसकी पकार à¤à¥€ परठके दरबार में अनसनी नहीं होती। अंगिरस तपसवी मनषय को कहते हैं मानो जो अंगारों पर बैठा हआ है। उसकी पकार à¤à¥€ परठदवारा सनी जाती है।
कणव मेधावी का वाचक है। उसके पूरव ‘पर’ लगा देने पर अतिशय अरथ सूचित होता है। अतः परसकणव का अरथ है अतिशय मेधावी। मनतर में परसकणव कह रहा है कि हे महान वरतोंवाले अगनि परठ! जैसे तम परियमेध आदि की पकार सनते हो, वैसे ही मेरी à¤à¥€ पकार सनो तथा मे संकटों से जूने का बल देकर मेरा उदधार करो। जैसे तम महान वरतों वाले हो, वैसे ही मे à¤à¥€ महावरतों का पालन कतरता बना दो।
इस मनतर से ईशवर ने मनषयों को यह शिकषा दी है कि यदि तम चाहते हो कि मैं तमहारी पकार व परारथनाओं को सनू व उनहें पूरा करूं तो तमहें पहले परियमेध, अतरि, विरूप, अंगिरस व परसकणव बनना होगा जिसका अरथ व तातपरय ऊपर बताया गया है। यदि सा नहीं करेंगे तो हमारी पकार व परारथनां नहीं सनी जायेंगी। हम सà¤à¥€ मतों व धरमों के बनधओं से निवेदन करते हैं कि वह इस वेदमनतर की शिकषा पर विचार कर इससे लाठउठायें।
उपरयकत मनतर का ऋषि परसकणवः काणवः है, देवता अगनिः है तथा मनतर का छनद अनषटप है। वेदमनतर के पदों वा शबदों के अरथ हैं- (परियमेधवत) जैसे परियमेध की {सनते हो} (अतरिवत) जैसे अतरि की {सनते हो} (विरूपवत) जैसे विरूप को {सनते हो}, (अंगिरसत) जैसे अंगिरस की {सनते हो}, वैसे ही (महिवरत) हे महान वरतोंवाले (जातवेदः) सरवजञ सरवानतरयामी परठ! तम (परसकणवसय) म परसकणव की (हवम) पकार (शरधि) सनो।
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