महातमा परठआशरित जी
Author
Manmohan Kumar AryaDate
15-May-2015Category
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HindiTotal Views
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16-May-2015Download PDF
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महातमा परठआशरित जी आरयसमाज के उचच कोटि के साधक व वैदिक विचारधारा मखयतः यजञादि के परचारक थे। उनका जनम 13 फरवरी, 1887 को जिला मजफफरगढ़ (पाकिसतान) के जतोई नामक गराम में शरी दौलतराम जी के यहां हआ था। महातमा जी के बरहमचरय आशरम का नाम शरी टेकचनद था। वानपरसथ आशरम की दीकषा लेने पर आपने महातमा परठआशरित नाम धारण किया। यजञ और वैदिक à¤à¤•à¤¤à¤¿à¤µà¤¾à¤¦ के परति आपकी गहरी शरदधा थी। आपने वैदिक à¤à¤•à¤¤à¤¿ साधन आशरम, रोहतक की सथापना की तथा यजञ, à¤à¤•à¤¤à¤¿ तथा उपासना का गहन परचार किया। 16 मारच सन, 1967 को आपका निधन हआ। आपने परà¤à¥‚त मातरा में धारमिक साहितय का सृजन किया जिनकी संखया लगà¤à¤— 6 दरजन है। आपकी कछ रचनायें हैं, सनधया सोपान, यजञ रहसय, अधयातमसधा, आधयातमिक अनà¤à¥‚तियां, अधयातम-जिजञासा, हवनमंतर, गायतरी रहसय, गायतरी कसमांजलि, करम à¤à¥‹à¤—चकर, पथपरदरशक, पृथिवी का सवरग, सपत रतन, सपत सरोवर, दरलठवसत, दिवय पथ, दृषटानत मकतावली, जीवन चकर, परठका सवरूप, à¤à¤¾à¤—यवान गृहसथी, अमृत के तीन घूंट, डरो वह बड़ा जबरदसत है, साकार पूजा, आतम चरितर आदि। सवामी विजञानाननद सरसवती जी ने अपका जीवन चरित 3 खणडों में लिखा है।
अपनी सनधया-सोपान पसतक में आपने क परशन कि मन में आई पाप-वृतति को कैसे दूर à¤à¤—ायें, इस का समाधान परसतत करते ह कहा है कि पाप-वृतति से सामने आया करती है जैसे चोर-डाकू संà¤à¤²-संà¤à¤²à¤•à¤° आता है। यदि घर वाला सावधान न हो और बल न रखता हो तो लूटा और पीटा जाता है, किनत यदि घरवाला तरनत अपना बल दिखलाये तो चोर-डाकू दरबल हो जाते हैं और घर वाले के बल का अनमान कर लेते हैं। यदि उसे अपने से अधिक चैतनय पाते हैं तो तरनत à¤à¤¾à¤— जाते हैं, नहीं तो सामने डटे रहते हैं। नितानत यही दशा साधक के साथ पाप-वृतति के सामने हआ करती है। अतः जब पाप-वृतति सामने आये तो साधक चैकस होकर कड़कर बोले – ‘अपेहि मनससपतेऽपकराम परशचर। परो निरऋतया आ चकषव बहधा जीवतो मनः।।’ (ऋगवेद 10/164/1) इस मनतर में ईशवर मनषयों को परारथना के लि परेरित कर कहते हैं कि ‘हे मन को पतित करने वाले कविचारों, दूर हो जाओ। दूर à¤à¤¾à¤—ो। परे चले जाओ। दूर के विनाश को देखो। जीवित मनषय का मन बहत सामरथय से यकत है।’ क अनय मनतर à¤à¥€ पापवृतति को हटाने की परेरणा करता है। मनतर हैः ‘परोऽपेहि मनसपाप, किमशसतानि शंससि। परेहि न तवा कामये, वृकषां वनानि सं चर, गृहेष गोष मे मन।।’ (अथरववेद 6/45/10) मनतरारथः ‘हे मन के पाप दूर हट जा। कयों तू बरी बातें बताता है? हट जा। मैं तको नहीं चाहता, वनों में व वृकषों में जाकर फिरता रह। मेरा मन घर में और गौ आदि पशओं की पालना में है।’ महातमा जी बताते हैं कि मनतरसथ विचार कि ‘दूर के विनाश को देखो’ का तातपरय यह है कि उस बरे विचार से à¤à¤µà¤¿à¤·à¤¯ में होने वाली हानि का विचार कर उसका निवारण करना है। जो वयकति साधना नहीं करता उसको यह बात सम में नहीं आती है। जब मनषय आधयातमिक विदया का विदयारथी बनता है, तो वह साधनां करता है। उन साधनाओं और तप के परताप से उसके शीशे साफ होने लगते हैं। इन शीशों से वह देखता है। यह शीशे दो हैं-क बदधि का, दूसरा मन का। बदधि का शीशा तो दूरबीन है (दूर की चीज को देखने वाला) और मन का शीशा खरदबीन (छोटी से छोटी चीज को देखने वाला), अतः साधक जब परतयेक कारय को इन शीशों से देखता है, तो उसे क छोटे से छोटा पाप à¤à¥€ मनरूपी लघदरशी यनतर से बड़ा à¤à¤¾à¤°à¥€ दिखाई देने लगता है। उस पाप की गति और बढ़ाने का अनमान वह उसकी हलचल से लगाता है। फिर जब दूरदरशी यनतर लगाकर उसे देखता है, तो उसका à¤à¤¯à¤‚कर रूप उसके सामने आ जाता है और वह सोचता है- 1- इस पाप का बदला पाने के लि क तो मे जनम अवशय लेना पड़ेगा, 2- इस पाप के कसंसकार से दूसरे जनम में à¤à¥€ मे वैसा ही पाप फिर घेरेगा। 3- फिर परकटतः उस पाप के कारण से दणडित हो जाऊंगा और मेरा जीवन कषट में फंस जायेगा। 4- मेरे माता-पिता यदि धनाढय ह, सममानित ह तो उनके धन-माल का सरवनाश होगा, उनकी बड़ी बदनामी होगी और मेरे माथे पर कलंक का टीका रहेगा। 5- यदि मेरी आय थोड़ी हई तो माता-पिता के सामने ही à¤à¤°à¥€ जवानी में मेरे मरने का उनहें अति दःख होगा। 6- यदि मेरा जीवन उस जनम में और à¤à¥€ à¤à¤°à¤·à¤Ÿ तथा पतित हो गया, तो फिर मे नेक जनम लेने पड़ेंगे। 7- यदि मेरे जनम का वायमणडल अचछा हआ और मेरी आय कम हई तो मे यह खेद रहेगा कि मैं कछ कमाई नहीं कर सका। इसका निषकरष बताते ह महातमा परठआशरित जी कहते हैं कि इस परकार साधक जब विचरपूरवक अपना जीवन वयतीत करता है, तो उपासना से सवचछ किये ह इस मनरूपी लघदरशी यनतर और जञान से पवितर किये ह बदधि रूपी दूरदरशी यनतर के परयोग से वह पाप से दूर और पणय के समीप रहकर अपने जीवन-पथ पर चलता जाता है और उननत होता जाता है।
महातमा परठआशरित जी ने क सथान पर इस सृषटि व परकृति की विचितर लीलाओं का à¤à¥€ चितरण किया है जिस पर परतयेक साधक को विचार करना चाहिये। इससे ईशवर के परति परीति व कछ-कछ वैरागय की उतपतति जीवन में हो सकती है। 1- पराणी à¤à¥€ असंखयात हैं और योनियां à¤à¥€ असंखय। कया विचितरता है कि क का रूप दूसरे से नहीं मिलता? जब से सृषटि चली आती है, 1 अरब 96 करोड़ 8 हजार वरष से à¤à¥€ ऊपर हो ग, परनत आज तक क à¤à¥€ सूरत दूसरे से नहीं मिली। परठकैसे और किस बदधि से ये बनाते हैं, 2- परठने धरती बनाई परनत उसके खणड-खणड का परà¤à¤¾à¤µ à¤à¤¿à¤¨à¤¨-à¤à¤¿à¤¨à¤¨ है। कहीं सोना, कहीं चांदी, कहीं लोहा, कहीं पारा, कहीं सोडा, कहीं खान होती है। कोई धरती अनन की, कोई बाग की, कोई चाय-काफी की, कोई पथरीली, कोई मैदानी है। असंखय खानें हैं, कोई लवण, कोई नीलम, कोई हीरे पैदा करती है, कहीं नारियल उगते हैं और कहीं आम। 3- जल है तो उनका परà¤à¤¾à¤µ अलग-अलग। कोई मीठा, कोई तेलिया, किसी से
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