कछ दिन पूरव हम वैदिक साधन आशरम तपोवन, देहरादून में सतसंग में बैठे ह आरय विदवान शरी उमेश चनदर कलशरेषठ जी का ईशवर दवारा चार आदि ऋ़षियों को वेद जञान परदान करने का वरणन सन रहे थे। इसी बीच हमारे मन में अचानक क विचार आया। हम सनते व पढ़ते आयें हैं  à¤•à¤¿ यह ऋषि सबसे अधिक पवितर आतमा थे। सृषटि उतपतति होने पर यह आतमायें मोकष से सीधी इस पृथिवी लोक पर आईं थीं और परमातमा ने इनको अमैथनी सृषटि में जनम दिया था। अतः मन में यह विचार आया कि मोकष में तो इनहें ईशवर का साननिधय और वेदों का जञान भी सलभ रहा ही होगा। इसका कारण यह है कि मोकष में जीवातमा जो भी इचछा करती है वह ईशवर की कृपा से ततकाल पूरी हो जाती है। फिर उनके सृषटि के आरमभ में जनम लेने पर वह सारा जञान अचानक समापत हो गया और परमातमा को उनहें पनः जञान देना पड़ा, इस पर हमें यह शंका हई। हमें लगा कि मोकष से आने वाली आतमाओं को तो वेदों का जञान पहले से ही होना चाहिये कयोंकि वहां तो वह आननद की सथिति में रहते हैं। आननद जञान में है और अजञान में दःख ही दःख होता है। मोकष भी विदयामृतमशनते के अनसार वेदों के जञान व तदनसार आचरण से ही मिलता है। हमें लगा कि इस परशन व इसके कछ पहलओं पर विचार किया जाना उचित है। हमने उन विदवान वकता से भी अपने मन की इन बातों को बताया और उनहोंने कहा कि मोकष की अवसथा में जीवातमाओं को वेदों का जञान नहीं होता। बाद में हमने भी विचार किया तो विदित हआ कि उनहें 36000 कलप पूरव जब मोकष हआ होगा, उसके बाद मोकष की अवधि में वेदजञान की आवशयकता ही नहीं होगी। दरशन पढ़ने से यह जञात होता है कि मोकष की शरत है कि साधक में विवेक जञान का उतपनन हो। इसके लि जीवातमा को ईशवर के साकषातकार की आवशयकता होती है जो कि समाधि अवसथा में होता है। असमपरजञात समाधि में जीवातमा को ईशवर का परतयकष होता है और जीवातमा अपने असतितव को विसमरण कर ईशवर के सवरूप में निमगन होता है। अपने असतितव को असमपरजञात समाधि में जीवातमा भूल जाता है। यह समाधि ही मनषय जीवन की सफलता की अनतिम सीढ़ी है। इसके बाद मनषय को अनय किसी साधना की आवशयकता नहीं पड़ती। शेष जीवन में इसी परकार समाधि को परापत होकर ईशवर का साकषात करना और निषकाम करम करना ही उददेशय रहता है। इससे उसके बचे ह अभकत करम दगधबीज हो जाते हैं। मृतय आने पर समाधि परापत विवेकी मनषय की मकति हो जाती है। उदाहरण के रूप में हमें महरषि दयाननद का उदाहरण विदित है। हो सकता है कि आचारय चाणकय को भी यह सथिति परापत हई हो। वह भी धरम जञानी थे। ईशवर व वेदभकत थे। सवाभाविक है कि वह सनधया व योग की सभी करियायें अवशय करते होंगे। इसी कारण उनहोंने देश हित में अपने समय में अपूरव कारय किया था। महरषि दयाननद जी ने भी उनके अनरूप ही किया है।

चाणकय कौटीलय का कारय वैदिक धरम व संसकृति की सथापना सहित मातृभूमि के शतरओं का विरोध व उनकी अवनति वं सदृण, सशकत व संगठित सवदेशी राजय की सथापना था। सा वयकति विषयों में अलिपत या निरलिपत ही रहता है और उसके सममख ईशवर की आजञा व करतवय ही परमख होता है। इतने जञानी होने पर भी उनहोंने किसी करम व करतवय की उपेकषा नहीं की और अनतिम समय तक वह करमशील रहे। यही करमयोग वा सचचा अधयातमवाद है जिसमें अविदया व विदया अरथात करम व जञान का भलीभांति समनवय हो। उनके योगदान से ही आज हम सवतनतरता की शवांस ले रहे हैं अनयथा आज हमारा धरम व संसकृति जीवित होते या न होते, कहा नहीं जा सकता।

हमारा विचार व चिनतन यहां आकर टिकता है कि अमैथनी सृषटि में इन चार ऋषियों के जनम से कछ ही समय पूरव यह आतमायें मोकष का आननद भोग रही थी। अब कछ अवसथा परिवरतन अरथात पृथिवी पर आदि सृषटि में जनम लेकर कया इनहें पूरव जञान की विसमृति हो गई थी? हमें यह भी लगता है कि मृतय के बाद वा मोकष के बाद जनम लेते ह जीवातमा को अपना पूरव जञान परायः विसमृत ही हो जाता है। यदि कछ समृति हो भी हो, तब भी परमातमा दवारा जञान दिया जाना आवशयक वं उचित ही है, अनयथा भरानतियां रहेंगी। सा लगता है कि इन चारों आतमाओं के आदि सृषटि में जनम लेने पर मोकष के आननद व सथितियों का पूरा जञान समरण नहीं रहा होगा। अतः इनकी पातरता को जानते ह परमातमा इनहें अनतरयामी सवरूप से इन चारों ऋषियों को क-क वेद का जञान देता है। यह चारों ऋषि बरहमाजी को क-क वेद का जञान कराते हैं और इस परकार बरहमा जी चारों वेदों के जञान से समपनन हो जाते हैं। यहां हमें लगता है कि यह चारों ऋषि भी चारों वेदों के जञान से बरहमाजी की ही तरह व क साथ जञान समपनन ह थे। कारण यह है कि जब यह चारों ऋषियों ने क क करके बरहमाजी को क क वेद का जञान दिया व समाया होगा तो वहां साथ में उपसथित अनय तीन ऋषियों ने भी बरहमाजी के साथ अनय तीन वेदों का जञान परापत व धारण कर लिया होगा। हमें यह जञान व मानयता निभररानत लगती है। हम आरयसमाज के विदवानों को अपने विचार सूचित करने का अनरोध करते हैं।

हम यह भी अनभव कर रहे हैं कि आरय विदवान शरी उमेशचनदर कलशरेषठ जी का परवचन सनते ह हमारे मन में जो विचार आया था कि आदि चार ऋषियों के मोकष से आने के कारण उनको वेदों का जञान रहा होगा और ईशवर को जञान देने की आवशयकता नहीं होनी चाहिये थी, वह भरानतिपूरण विचार था। जब जीवातमा अमैथनी वा मैथनी शरीर व गरभ में परविषट होती है तो शरीर में जो इनदरियां व अनय अवयव हैं उनकी टयूनिंग ईशवर को करनी होती है। सा होने पर शरीर कारय करने लगता है।  हम सबका यह अनभव है कि जब हम बात कर रहे होते हैं तो 15 मिनट ही बोलने के बाद यदि हमें उनहीं शबदों व वाकयों को दबारा उसी करम से बोलने को कहा जाये तो हम नहीं बोल पाते यदयपि हमारा शरीर व सभी इनदरियां व शरीरांग वहीं हैं।  जिन वाकयों को दोहराना है, वह भी मातर कछ मिनट पहले ही बोले गये हैं। परनत उनहें किसी के भी दवारा दोहराया नहीं जा सकता। इसका कारण विसमृति के सिवा अनय नहीं होता। अतः क मोकष व परलय के बाद जनम लेने वाली आतमाओं से यदि हम यह अपेकषा करें कि उनको पूरव अवसथा वा जनम आदि का जञान हो तो यह सयात उचित नहीं है। कछ को अपवादसवरूप कछ-कछ हो भी सकता है और नहीं भी। सिदधानत के अपवाद हो सकते हैं परनत अपवाद सिदधानत नहीं हो सकता। इन विषयों का पूरा जञान तो ईशवर को है जिसे हम उनसे पूछने की योगयता नहीं रखते। हां, यदि पहली पीढ़ी के ऋषियों ने उन चारों ऋषियों व अनय ऋषि व जञानी परूषों से उनके पूरव जनम वा मोकष अवसथा के बारे में परशन पूछ कर उसे बराहमण गरनथों में लिख दिया होता तो आज यह क बहत बड़ी उपलबधि हो सकती थी। यह बात इस लि समभव कोटि में हैं कयोंकि शतपथ बराहमण में यह बताया गया है कि परमातमा ने आदि चार ऋषियों अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा को करमशः ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद का जञान दिया था। इसी परकार वह मोकष की अवसथा व जनम से पूरव की अवसथा के बारे में उनसे परशन कर उसका उललेख भी कर सकते थे। जो भी हो, हमारी शंका कि मोकष अवसथा के वयकति को जनम लेने पर वेदों का जञान होना चाहिये, उचित नहीं लग रही है और हम अनभव कर रहें हैं कि हमारे मन में आया यह विचार मातर क भरानति थी। हम समते हैं कि परायः सभी सधी पाठकों में इस परकार के परशन यदा-कदा उठते होंगे और वह उनका समाधान भी सवयं ही कर लेते होंगे।

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