महरषि दयानंद के जनमोतसव पर राषटरपति डॉ शंकर दयाल शरमा दवारा दिया गया भाषण

हमारे देश के अगरणी चिंतक और महान समाज-सधारक महरषि दयानन‍द सरस‍वती के जन‍म-दिन पर आयोजित इस समारोह में उपस‍थित होकर मे परसन‍नता हो रही है। मैं दयानन‍द सरस‍वती जी के परति अपने शरदधा-समन अरपित करता हू।

दयानंद सरस‍वती जी ने जब सारवजनिक जीवन में परवेश किया था, तब देश में विदेशी हकूमत थी। अंगरेजी सतता ने भारतीय सभ‍यता और संकृति की आलोचना करके भारतीयों के मन में हीन भावना पैदा कर दी थी। वैसे भी चूंकि वे सतता में थे, और हम गलाम थे, इसलि हममे आत‍मविश‍वास की कमी आ गई थी। महरषि दयानंद सरस‍वती का सबसे बड़ा योगदान मैं यह मानता हू कि उन‍होंने उस समय भारतीयों के खो ह आत‍मविश‍वास को फिर जागृत किया, और उनकी सोयी हई शक‍ति को कोरा। उन‍होंने ‘वेदों की ओर लौट चलो’ का नारा देकर यह बताया कि भारत की पराचीन संस‍कृति और चिंतन विश‍व की सरवशरेष‍ठ संस‍कृति और चिंतन में से क हैं।

मे यह बात भी महत‍वपूरण लगती है कि उन‍होंने अपनी बात उपदेश-पदधति के दवारा ही नहीं, बल‍कि वाद-विवाद और तरक-वितरक के दवारा कही। इस बारे में उनकी शक‍ति अदभत थी। उन‍होंने लोगों को केवल आस‍थावान नहीं बनाया, बल‍कि बात सपरमाण कहकर जञानवान बनाया। लोग परश‍न पूछते थे, और वे उनका सपरमाण उततर देते थे। चूंकि उनके उततर तरक पर आधारित होते थे, इसलि लोगों पर उनका परभाव पड़ता था।

तरक को वे जञान का मख‍य आधार मानते थे। दिनांक 24 जलाई, 1877 को बंबई में आरय समाज के जो 10 मूल सिदधांत बना ग थे, उनमें चौथा और पाचवा सिदधांत तरक की परधानता वाले हैं। चौथे सिदधांत के अंतरगत कहा गया है-

       ‘’हमें हमेशा सत‍य को स‍वीकार करने, तथा असत‍य को अस‍वीकार करने के लि तैयार रहना चाहि।‘’  

अगले नियम में कहा गया है-

       ‘’हमारे परत‍येक कारय सही वं गलत का निरणय करने के बाद धरमा के अनकूल होने चाहि।‘’

यहां तक कि उन‍होंने ईश‍वर पर भी विश‍वास करने की बात नहीं कही, बल‍कि जञान के आधार पर उसे जानने की बात कही। आरय समाज के पहले नियम में उन‍होंने स‍पष‍ट रूप से कहा-

       ‘’ईश‍वर उन सभी सच‍चे जञान और सभी वस‍तओं का आदि स‍तरोत है, जिन‍हें जञान दवारा जाना जा सकता है।‘’

दयानंद सरस‍वती जी ने उस समय समाज की करीतियों, अंधविश‍वासों और जड़ताओं के विरोध का जो बीड़ा उठाया, उसका भी मूल आधार तरक ही था। स‍वाभाविक है कि इसलि उन‍होंने शिकषा पर बहत अधिक जोर दिया। वे शिकषा को व‍यक‍ति और राष‍टर की उन‍नति का आधार मानते थे। ‘सत‍यारथ परकाश’ के तृतीय समल‍लास में हमें शिकषा के बारे में उनके विचार जानने को मिलते हैं। उन‍होंने तृतीय समल‍लास के आरंभ में ही लिखा है-

       ‘’संतानों को उततम विदया, शिकषा, गण, करम और स‍वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचारय और सम‍बन‍धियों का मख‍य करम है।‘’

उन‍होंने यहां तक लिखा है-

       ‘’राजनियम और जातिनियम होना चाहि कि पाचवे-आठवें वरष की आगे अपने लड़कों ओर लड़कियों को घर में न रखें। पाठशाला में अवश‍य भेज देवें। जो न भेजे, वह दंडनीय हो।‘’

दयानंद सरस‍वती ने जिस ‘आरय समाज’ की स‍थापना की थी, उसका हमारे देश में शिकषा के विकास में अत‍यंत महत‍वपूरण योगदान रहा है। मे इससे भी अधिक महत‍वपूरण बात यह लगती है कि दयानंन‍द सरस‍वती ने लड़कियों के लि शिकषा की बात कहकर अपने समय के समाज में क हलचल पैदा की थी। अभी मैंने जो उदाहरण दिया, उसमें उन‍होंने लड़कियों के लि भी शिकषा की बात कही है। केवल इतना ही नहीं, बल‍कि उन‍होंने नारी-विकास के लि अन‍य अनेक महत‍वपूरण बातें कहीं। इनका उल‍लेख ‘सत‍यारथ परकाश’ में मिलता है। उन‍होंने वेदों का उदाहरण देते ह कहा-

- लड़कियों को भी लड़कों के समान पढ़ाना चाहि।

- परत‍येक कन‍या का अपने भाई के समान यजञोपवित संस‍कार होना चाहि।

- लड़कियों का विवाह न तो बाल‍यावस‍था में हो, न हो उसकी इचछा के विपरीत हो।

-  à¤ªà¤¤à¤°à¥€ भी अपने भाई के समान दायभाग में अधिकारिणी हो।

-  à¤µà¤¿à¤§à¤µà¤¾ को भी विधर के समान विवाह का अधिकार है।

 

उन‍होंने स‍पष‍ट रूप से कहा-

       ‘’विवाह लड़के और लड़की की पसंद के बिना नहीं होना चाहि, क‍योंकि क-दूसरे की पसंद से विवाह होने से विरोध बहत कम होता है, और संतान उततम होती है।‘’

निश‍चित रूप में आरय समाज ने इस दिशा में महत‍वपूरण काम किया। दयानन‍द जी के इन परगतिशील विचारों का परभाव समाज पर पड़ने से धीरे-धीरे नारी के परति समाज का दृष‍टिकोण बदला। यह बात अत‍यंत महत‍व की है कि दयानंद सरस‍वती के निधन से पचास वरष से भी पहले बाल-विवाह को रोकने के लि ‘शारदा विवाह कानून’ पारित हआ। इसी परकार अंतरजातीय विवाहों को वैध घोषित करने के लि ‘आरय विवाह कानून’ भी पारित किया गया।

यदि वेदों का आशरय लिया जा, और तरक के आधार पर सोचा जा, तो मानव-मानव में कोई भेद मालूम नहीं पड़ता। वेदों में कहा गया है-‘’कैव मानषि जाति’’। स‍वामी दयानन‍द सरस‍वती ने भी संपूरण मानव-जाति को क मानते ह, उनके आचारण को परधानता दी है। ‘सत‍यारथ परकाश’ में उन‍होंने स‍पष‍ट रूप से लिखा-

       ‘’जो दष‍टकरमकारी-दविज को शरेष‍ठ और शरेष‍ठकरमकारी-शूदर को नीच माने, तो इससे परे पकषपात, अन‍याय, अधरम दूसरा अधिक क‍या होगा।‘’

स‍पष‍ट है कि उनके लि आचारण महत‍वपूरण था, जन‍म नहीं। वे धरम को भी सीधे-सीधे आचारण से जोड़ते थे। उन‍होंने धरम से जड़े सभी आडंबरों, पाखंडों और अंधविश‍वासों का अपने तरक के बल पर खण‍डन किया, और धरम को सीधे-सीधे जीवन-व‍यवहार का अंग बनाया। उन‍होंने ‘स‍वमन‍तव‍यामन‍तव‍यपरकाश’ के अनच‍छेद 3 में लिखा है-

       ‘’जो पकषपातरहित न‍यायाचरण, सत‍यभाषणादियक‍त ईश‍वराजञा वेदों से अविरदध है, उसको धरम...... मानता हू।‘’

इसी परकार ‘’ऋग‍वेदादिभाष‍य०’’ के पृष‍ठ के 395 पर धरम के लकषण की चरचा करते ह वे लिखते है-

          ‘’सत‍यभाषणात सत‍याचरणाच‍च परं धरम लकषणां किचिंन‍नास‍त‍येव’’

अरथात, सत‍यभाषण और सत‍याचरण के अतिरिक‍त धरम का कोई दूसरा लकषण नहीं है।

मैंने ये उदधरण यहां इसलि दिये हैं, ताकि इस बात को अच‍छी तरह से समा जा सके कि महरषि दयानंद सरस‍वती का धरम न तो किसी जाति, कषेतर और लोगों तक सीमित था, और न ही उसका संबंध किसी परकार की संकीरणता और अव‍यवहारिकता से था। उनके लि धरम व‍यक‍ति के आचरण का निरमाण करने वाला तत‍व था। इसके साथ ही वह समाज का विधान करने वाली व‍यवस‍था थी। मैं समता हूं कि दयानंद सरस‍वती के विचारों को इसी संदरभ में समा जाना चाहि। विशेषकर क से समय में, जबकि निहित स‍वारथ धरम की अपनी-अपनी दृष‍टि से व‍याख‍या कर रहे हों, यह जरूरी हो जाता है कि दयानंद सरस‍वती जैसे महापरषों के विचार लोगों के सामने रखे जां, ताकि लोग धरम के सच‍चे स‍वरूप को सम सकें, और उसके अनकूल आचरण कर सकें।

यदि दयानंद सरस‍वती जी को स‍वराज‍य का परवक‍ता कहा जा, तो गलत नहीं होगा। शरीमती नी बेसेंट ने ‘इडिया नेशन’ से बिल‍कल सही लिखा है-

       ‘’स‍वामी दयानंद जी ने सरवपरथम घोषणा की कि भारत भारतीयों के लि है।‘’

ठीक इसी परकार लोकमान‍य तिलक ने उन‍हें ‘’स‍वराज‍य का परथम संदेशवाहक तथा मानवता का उपासक’’ कहा।

मातृभाषा, मातृसंस‍कृति, मातृभूमि और मातृशक‍ति के परति दयानंद जी के मन में अगाध और गहरा लगाव था। वे स‍वेदशी के समरथक थे। उन‍होंने विदेशी कपड़ों के बहिष‍कार की बात कही थी। संस‍कृति के परकांड विदवान और गजरातीभाषी होने के बावजूद उन‍होंने लोगों की सविधा की दृष‍टि से अपनी बात हिन‍दी में कही, और ‘सत‍यारथ परकाश’ हिन‍दी में लिखी। निशचित रूप से इससे उस समय के भारतीयों की आत‍मशक‍ति जागरत हई, और उनका आत‍मविश‍वास बढ़ा। हमारे देश की सोई हई शक‍ति को उन‍होंने सकरिय करके राष‍टरीय आंदोलन तथा सामाजिक वं सांस‍कृतिक करांति की दिशा में परेरित किया।

पंडित नेहरू ने अपनी पस‍तक ‘भारत क खोज’ में उन‍हें बिल‍कल सही ‘’विचारों की नयी परकरिया शरू करनेवाले चिंतकों में से क’ माना है। डॉ. राधाकृष‍णन ने उनके कारयों को ‘’मूक करांति’’ का नाम दिया। मे इससे कोई दो मत नहीं मालूम पड़ते कि उन‍होंने चिंतन में जिस दूरदृष‍टि का परिचय दिया, और जिन कारयों को शरआत की, उसका हमारे देश पर सकारात‍मक परभाव पड़ा। आज हम अपने सामने उन कारयों की उपयक‍तता देख सकते हैं।

मे सा लगता है कि क से समय मे, जबकि क नयी विश‍व व‍यवस‍था उभर रही है, स‍वदेशी की भावना की अनदेखी नहीं की जानी चाहि। हम विश‍व-व‍यवस‍था में अलग नहीं रह सकते। लेकिन हमें इस बात का भी संकल‍प लेना होगा कि हम अपनी संस‍कृति, अपनी जड़ों से भी अलग नहीं रह सकते। मैं समता हू, कि दयानंद सरस‍वती जी के दरशन का यह क महत‍वपूरण संदेश था और आज हमारे देश को इसे पूरे मनोयोग के साथ अपनाना चाहि। मे विश‍वास है कि इस तरह के समारोह दयानंद सरस‍वती जी के जीवन-दरशन को देश के लोगों तक पहचाने में सहायक होंगे।

बापू ने ‘हरिजन’ के 5 मई, 1932 के अंक में लिखा था-

       ‘’दयानन‍द जी की आत‍मा आज भी हमारे बीच काम कर रही हैं। वे आज उस समय से भी अधिक परभावशाली हैं, जबकि, वे हमारे बीच सदेह थे।‘’

मैं आशा करता हू कि देश के लोग भी इसी तरह का अनभव कर रहे होंगे। हमारे लोगों को से परगतिशील दृष‍टिकोण वाले समाज की स‍थापना के लि काम करना है, जिसमें कोई अशिकषित नहीं होगा, कोई अस‍पृश‍य और छोटा-बड़ा नहीं होगा तथा जिसमें नारी के परति पूरण सम‍मान का भाव होगा। और यही इस महापरष के परति सच‍ची शरदधांजलि होगी।

आप लोगों ने मे इस कारयकरम में शामिल किया, इसके लि मैं आप सबका आभारी हू।

जय हिन‍द

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