कहा जाता है कि जञान की पराकाषठा वैरागय है। इसका अरथ यह लगता है कि जिस वयकति को जितना अधिक जञान होगा वह उतना ही अधिक वैरागय को परापत होगा। अब विचार करते हैं कि क वयकति के अनदर जञान बहत ही कम है। इस पहली परिभाषा के अनसार कहना होगा कि उस वयकति में भौतिक व नशवर वसतओं के परति राग अधिक तथा वैरागय नगणय है। जैसे –जैसे को यथारथ जञान होता जायेगा, वैसे-वैसे वह वयकति वैरागय को परापत होता जायेगा। ईशवर में जञान की पराकाषठा है इससे यह अनमान होता है कि ईशवर पूरण वैरागय में सथित है। हमें लगता है कि जञान की पराकाषठा के लि मखयतः दो चीजों की आवशयकता है। क तो भाषा व दूसरा जञान। सरवोतकृषट भाषा संसकृत है व उसमें जञान की पराकाषठा वेदों में है। वेदों का अधययन किया हआ वयकति ही जञान की पराकाषठा को परापत हो सकता है। इतर वयकतियों का जञान व उनमें वैरागय नयूनातिनयून होगा। हम कोई भी भाषा कयों सीखते हैं? इसलिये कि हम अपनी बात दूसरों को संपरेषित कर सके और दूसरों की बातें व वाकयों को सम सकें। इसलिये भी भाषा सीखते हैं कि उस भाषा का जो साहितय है उसका अघययन कर सकें।

इन सबसे हमें जीवन में अनेक लाभ होते हैं। भाषा को शदध व सारगरभित वं परभावशाली रूप से बोलने वाला वयकति ही सममान पाता है और जीवन में सफल होता है। यदि हमें भाषा का आधा-अधूरा अधकचरा जञान है तो यह हमारी सफलता में बाधक होता है। अतः सभी का यह परयास होता है कि वह उस भाषा को अधिक से अधिक जाने। इसके लि उस भाषा के वयाकरण आदि को पढ़ने व उसके अभयास के साथ उस भाषा के सामानय व उचच कोटि के साहितय का अधययन करने से यह कमी पूरी होती है। जितने भी महान वयकति हमारे देश, विशव व समाज में ह हैं वह सब शिकषा, संसकार, अधययन, लेखन, वकता-संवाद-वयाखयान आदि में उचच सथिति परापत करने के कारण ही बने हैं। पं. परकाशवीर शासतरी आरय समाज के विदवान, उपदेशक व परचारक थे। आप अपने हिनदी-संसकृत के जञान तथा सरस, मनोहर, सारगरभित व परभावशाली भाषण शैली के कारण लोकपरिय ह और बिना किसी पारटीं के निकट के अनेक बार सवतनतर रूप से संसद बने और बड़े-बड़े दिगगजों को निरवाचनों में पराजित किया।

इतना ही नहीं वह अपने समय में संसद के अनदर व बाहर लोकपरिय सांसदों में से क थे जिनहें देश के परधान मंतरी सहित सभी दलों के नेता आदर देने के साथ नके वकतवयों को पसनद करते थे। हम शरी नरेनदर दामोदर मोदी का भी उदाहरण परसतत करना चाहते हैं जिनका परधानमंतरी नना इस लि संभव हो सका कि उनहें अपनी बात को सहसरों लोगों की सभा में परभावशाली रूप से कहने में महारत हासिल रही है। इसके साथ उनका राजनैतिक अनभव व अनेका विषयों का चिनतन व जञान तथा उनका वयकतितव व साफ सथरी छवि भी परमख कारण रहा है। यदि उनमें भाषा बोलने पर पकड़ व सरस व सरल वाणी में अभिवयकति का जञान न होता तो जिस बलनदी पर वह आज हैं, वह यहां तक न पहंच पाते। यदि हम यह कहें कि उनहोंने अपने इस गण से वरतमान मय के सब नेताओं को पीछे छोड़ दिया है और पूरव के सभी नेताओं से वह आगे निकल गये हैं, तो इसमें कोई अनयोकति न होगी। अतः भाषा का जीवन में बहत अधिक महतव है।

ईशवर ने हमें हमारा शरीर बना कर भेंट किया है जो कि ईशवर की सभी रचनाओं से अधिक महतवपूरण, कठिन व जटिल होने के साथ सरवोततम रचना है। हमारे शरीर में आंख, नाक, कान, जिहवा, तवचा पांच इनदरियां हैं जिनका परयोग हम देखने, सूंघने, सनने, चखने या सवाद के लि वं सपरश कर नरम व कठोर, ठणडा व गरम आदि वसत के अनेक गणों को जानने के उददेशयों से करते हैं। इनहीं उददेशयों के लि यह इनदरियां परमातमा ने बना कर हमें दी है और हमें इनके उपयोग का जञान भी सवयं ही पदइनपसज रूप से दिया हआ है।यदि हम इन जञान इनदरियों से यह उपयोग न लें तो फिर ईशवर से हमें इनका मिलना वयरथ सिदध होता है।  जिन लोगों को यह या इनमें से कछ शकतियां नहीं हैं वह जीवन भर उनहें ठीक कराने में इधर उधर घूम कर व चिकितसा कराकर अपना सारा जीवन वयतीत कर देते हैं, इससे इन इनदरियों की महतता का पता चलता है। इसी परकार से ईशवर ने हमें वेदों का जञान व वेदों की भाषा वैदिक संसकृत का जञान भी दिया व कराया है। यदि हम संसकृत भाषा के जानकर वेदों का सरवांगपूरण अधययन नहीं करते तो हमारी सथिति इनदिरय विहिन क अपंग वयकति के समान सिदध होती है। भाषा के अधययन से हमें विदित होता है कि हमारे आदि-कालीन सभी पूरवज इस भाषा को बोलते थे, वेदों का अधययन सनकर करते थे व वेदों का जञान परापत करते थे।

वेदों का जञान परापत कर उस जञान का उपयोग वह सवकलयाण, समाज, देश व विशव के कलयाण के लि करते थे। से परमाण मिलते हैं कि अधिकांश लोगों को वेदों के सभी मंतर समरण व कणठागर होते थे। वह इनके अरथ भी जानते हैं। हमें हिनदी भाषा का जञान है। हिनदी में लिखी अधयातम, समाज, राजनीति, कहानी, सरल भाषा के पदय व गदय को हम आसानी से सम सकते हे। यदि हमें संसकृत भाषा का जञान होता तो हम संसकृत में लिखी हई पसतकों का जञान पढ़कर परापत कर सकते थे। सामानय पसतकें ही कयें, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, दरशन, मनसमृति, आयरवेद आदि के गरनथ और चारों वेदें के पढ़कर अधिकांशतः या पूरणतः जान सकते थे। हमारा दरभागय है कि हमें संसकृत का जञान नहीं है अतः हम इन सभी गरनथें को पढ़ने व समने में असमरथ है। हम ही कया संसकृत पढ़े लिखे सभी सतरी व परूष भी इन सभी पठनीय गरनथों को नहीं पढ़ते हैं।

हमें लगता है कि वह सब करत वयचयत हैं। ईशवर ने वेदों व संसकृत भाषा का जञान कयों व किसलि दिया था?, इस परशन पर विचार करने पर जो तथय सामने आते हैं उनसे विदित होता है कि ईशवर ने वेदों का जञान मानव जीवन को सरवांगपूरण रूप से जीने, जञान विजञान को जानने व समने तथा उससे अपने जीवन को सफल करने, धरम, अरथ, काम व मोकष की सिदधि आदि परयोजनों के लि दिया था। वेदों से दूर जाने या रहने का अरथ है कि जीवन के यथारथ उददेशय से दूर जाना या रहना है। इससे जीवन विफल होता है। भारी हानि होती है जिसका संसार में कोई उदाहरण नहीं दिया जा सकता। इतना सम सकते हैं कि यदि किसी की करोड़ों अरबों की समपतति लूट ली जाये तो उसकी जो हानि होती है उससे अधिक हानि वेद व वैदिक साहितय का अधययन न करने व उसे जानने में कृतकारय न होने से होती है। यह बात वेदों के मरम व रहसयें के न जानने वालों को सम में नहीं आ सकती।

इसे तो महरषि बरहमा, महरषि दयाननद, मरयादा परूषोततम राम, योगेशवर शरी कृषण, महरषि पतंजलि, महरषि कपिल, महरषि कणाद, महरषि गौतम, महरषि वेद वयास व महरषि जैमिनी आदि ने ही जाना था या वह लोग जान सकते हैं जिनहोंने वेद और वैदिक साहितय रूपी महासागर में डूबकी या गोते लगाये हों। हम यह भी कहना चाहते हैं जिसने सतयारथ परकाश गरनथ पढ़ा है उसे पूरे वैदिक साहितय को पढ़कर होने वाले जञान का अधिकांश जञान हो जाता है। अतः समसत संसारवासियों को राग-दवेष व पकषपातशूनय होकर नयूनातिनयून सतयारथ परकाश अवशय पढ़ना चाहिये। हम यहां परो. सनतराम लिखित संकषिपत महाभारत से दरौपदी, यधिषठिरजी के धरम विषय में शंका करने पर ह परसपर समवाद को उदधृत कर रहे हैं।

पसतक में विदवान लेखक ने लिखा है - ‘‘वन के दःखों से दखित  दरौपदी ने क दिन धरमराज से कहा - राजन ! आप कहा करते हैं कि संसार को सख-दःख देने वाला  विधाता है। सो मालूम देता है कि विधाता जो सख-दःख देता है, माता पिता की भांति सनेह से नहीं और ना ही नयायकारी विभाजक की तरह पणय और पाप देखकर देता है, किनत साधारण जनवत डंडे के डर से बलवानों को सख और भले मानसों को दःख देता रहता है और कछ नहीं। वमेव धरम अधरम भी परूष को सखी दःखी नहीं करते किनत वे भी जहां बलवानों के भय से उनहें सख देते हैं, वहां दीन-दरिदर और शानत सवभावी लोगें को दःख दे जाते हैं। यदि मेरा विचार ठीक न होता तो दरयोधन आदि पापी नासतिक, सखी और आप सरव परकार के सख वं सख साधनों से लमबे काल के लि वंचित न होते? यह सन धरमराज बोले -- देवी ! आरय होकर अनारयों की भांति धरम और ईशवर पर शंका मत कर, कयोंकि धरम पर शंका करता है उसका कोई परायशचित नहीं। देवि ! धरम सवरग जाने के लि विमान वं भवसागर तरने के लि दृढ़ नौका है।

यदि धरम निषफल हो तो इतने-इतने बड़े ऋषि, मनि, राजे, महाराजे कयों सेवन करें? धरम के बिना यह सारा जगत पाप समदर में कषण में डूब जाय। धरम का करना परूष का करततवय है, यह सम धरम करना चाहिये।

नाहं करमफलानवेषी राजपतरि ! चरामयत। ददामि देयमितयेव यजे यषटवययितयत।। (वन. 13/2)

 à¤§à¤°à¤®à¤µ मनः कृषणे ! सवभावा चैव मेधृतम। धरम वाणिजय को हीनो जघनयो धरमवादिनाम।। (वन. 13/5)

राजपतरि ! मैं फल की इचछा से नहीं, किनत करतवय सम दान, यजन आदि करम करता हूं। धरम को सौदे के ढंग पर करना, धरमवादियों में निनदित करम कहा है। कृषणे ! विधाता पर भी आकषेप मत कर, किनत उसे परणाम कर। उसकी वेद शिकषा का पाठ कर, कयोंकि उस अमृत परूष की कृपा से मतरय सवभाव मनज भी ‘अमृत’ हो जाता है। इस उततर को सन कृषणा तो शदध संकलप से ईशवर और धरम की महिमा अनभव करने लग गई, पर भीमसेन बोल उठे। उनहोंने कहा-राजन ! यदि करततवय पर ही आपकी धारण है तो आप अपने वरण धरम (कषातर धरम) को गरहण कीजिये। भिकषा मांगना और दीन-हीन जनों की भांति लक छिप कर दिनों को बिताना किस करतवय सूतर का वचन है? हमने तो सना है, कषतरिय का पालनीय धरम - बल वं पौरूष दिखाना है। इसलि कायरता छोड़, मेरी और अरजन की सहायता से शतर वन को भसम कर तेज परकाश कीजिये।

आखिर समबनधियों को, मितरों को और अपने को कषट देने वाला करम कहां का धरम है? यह तो हमारे विचार में ककरम (पाप) ही कहलाने के योगय है, अतः इसे छोड़ो ! भीम के उततर में धरम राज ने कहा - वीर ! तम सतय कहते हो, वनवास कषेतरियोचित नहीं, पर हम यहां क सतय परतिजञा रूपी धरम पालने के लि आ हैं। अब इस धरम को तयाग पृथवी का शासन करना, आरयतव के विरूदध ही नहीं किनत मरने से भी बरा है-- आरयसय मनये मरणादगरीयो यदधरममतकरसय मही परशासेत।

(वन परव 34/15) और मेरी परतिजञा तो धरम तथा सतय पालन के समबनध में यह है -- मम परतिजञांच निबोध सतयां वृकषे धरमममृताजीविताचच। राजयं च पतरांशच यशोधनं च सरवं न सतयसय कलामपैति।। (वन परव 34/22) जीवन और अमृत से भी मैं ते सतय धरम को खरीदूगां, कयोंकि मैं समता हूं राजय, पतर, यश, धन आदि सरव पदारथ सतय की अंश कला को भी परापत नहीं हो सकते। इतयादि विचारों से सबको सनतषट किया।’’ वेदालोचना के समबनध में आईये, महरषि दयाननद के जीवन पर दृषटिपात करते हैं। महरषि दयाननद ने मूरतिपूजा की सतयता व यथारथ सथिति, सचचे ईशवर का सवरूप, उसकी परापति के उपाय, मृतय कया है व उस पर किस परकार से विजय परापत की जा सकती है, परशनों के उततर खोजने और उन पर विजय पाने के लि गृह तयाग किया था। वह अपने भावी जीवन में देश भर में घूमें और विदवान साधू, महातमा व योगियों के समपरक में आये। उनकी संगति व निकटता से उनसे ईशवर व योग समबनधी जञान परापत किया। देश के क सथान से दूसरे व इसी परकार भरमण करते ह उनहें अनेक पसतकालयों को देखने व अनेकानेक गण-करम-सवभाव वाले वयकतियों से मिलने का अवसर मिला जहां उनहें हसतलिखित पाणडलियों व परतिकृतियों के रूप में अनेक दरलभ, जञान व विदया से परिपूरण गरनथों के देखने व पढ़ने का सअवसर मिला जो शायद ही उनसे पूरव अनय किसी को सलभ हआ हो? जहां कभी कोई योगी मिलता था तो वह उसे टटोलते थे और सचचे योगियों का शिषयतव परापत कर उनसे योग व उपासना विषयक सभी जञान व करियायें समते थे, उनका अभयास कर कृतकारय होते थे। उनहें योग के योगय गरू मिले जिनसे उनहोंने योग विदया सीखी व उनका अभयास कर सफलता परापत की।

इस पर भी उनकी पूरण सनतषटि नहीं हई जबकि आजकल नाममातर की योग सिदधि को भी पूरण सफलता मान लिया जाता है। इसका कारण कया था? हमें लगता है कि जब उनहोंने नाना परकार के पराचीन दरलभ गरनथ देखें तो उनमें सथान-सथान पर ईशवर परदतत वेदों के जञान का चरचा मिलती थी जिनसे उनका चितत वेदों को पूरण रूप से जानने को उदवेलित होता था। योगियों  à¤µ गरूओ से पूछने पर उनहें बताया गया था कि इसके लि किसी योगय गरू से आरष परमपरा का संसकृत वयाकरण का अधययन करना होगा। हमें यहां यह भी अनभव होता है कि योग  à¤¸à¥€à¤–कर सफलता परापत करने पर यदयपि हृदय की गरंथियों के टूटने व सरवसशयों की निवृतति होने पर भी वेदों में जो जञान का समदर है, उसका जञान व परकाश योगी की आतमा को नहीं होता। इस अपूरणता को दूर कर पूरणता परापत करने के लि योगी को भी वेदाधययन या वेदालोचन आवशयक होता है।

महरषि दयाननद ने इस रहसय को जाना व इसका साकषात किया था। इसी कारण पूरण योग सिदधि से सब कछ परापत कर लेने पर भी वह वेदों के अधययन में ततपर ह। वह सन 1860 में मथरा पहंच कर परजञाचकष सवामी गरू विरजाननद सरसवती से मिले और उनका शिषयतव गरहण किया। ढाई व तीन वरष उनके चरणों में बैठकर उनसे आरष वयाकरण का अभयास किया व अपने मनोरथ में सिदधी को परापत हेकर आपत काम ह। सवामी गरू विरजाननद सरसवती जी के बारे में कहा जाता है कि वह वयाकरण के सूरय थे। यह पूरण सतय है, परनत वयाकरण का सूरय कयों व किसके लि व किस कारण से थे? हमें अनभव होता है कि यह सब कछ उनहोंने वेदालोचन के लि ही परापत किया था। परजञाचकष होकर भी वह वेद के रहसयों से पूरणतया विजञ व परिचित थे, सा निषकरष अधययन व मनन करने पर निकलता है। तभी तो वह महरषि दयाननद को यह मूलयवान रहसय बता सके थे कि मनषय कोटि के लोगों ने जे गरनथ लिखे है उनमें हमारे ऋषियों व महरषियों की निनदा व मिथया कथायें हैं, वह अनारष होने से तयाजय हैं और ऋषि परणीत गरनथ ही आरष गरनथ हैं जिनका अधययन करना सतयानवेषक के लि आवशयक व अपरिहारय है। आरष कोटि के गरनथों का अधययन कर ही वेदोलोचन किया जा सकता है अनयथा मातर वयाकरण के अधययन से वेदालोचन भली परकार से नहीं होता ।

महरषि दयाननद ने आरष व अनारष सभी परकार के गरनथों का अधययन किया था। अतः वह आरष-अनारष का जितना गहन जञान रखते थे, वह महाभारत काल के बाद किसी क वयकति में कहीं दृषटिगोचर नहीं होता। इतिहास पर दृषटि डालने पर सपषट होता है कि महरषि दयाननद जितना वेदों व आरष गरनथों का जञान किसी के लि समभव भी नहीं था। अतः महरषि दयाननद के योग परवीण होने पर भी विदया व जञान परापति की जो अवशिषट भूख उनमें थी, वह गरू विरजाननद के यहां अधययन करने व बाद में उस पर मनन à

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