The Arya Samaj | Article : मूलशंकर, महाशिवरातरि और मूषक

बालक मूलशंकर दवारा शिवरातरि पर चूहे की घटना के विरोध का परिणाम कया हआ?

महरषि दयाननद सरसवती के आतम कथन में हम पढ़ते हैं कि उनहोंने 14 वरष की अवसथा में पिता के कहने से शिवरातरि का वरत रखा था। रातरि में शिव मनदिर में सभी वरती जागरण कर रहे थे परनत देर रातरि बालक मूलशंकर के अतिरिकत सभी को नींद आ गई। बालक मूलशंकर इसलि जाग रहे थे कि शिवरातरि के वरत का जो फल उनहें मिलना बताया गया था उससे वह वंचित न हो जायें। देर रातरि को वह कया देखते हैं कि कछ चूहे अपने बिलों से निकले और शिवलिंग पर पहंच कर वहां भकतों दवारा चढ़ाये गये अनन मिषठानन आदि पदारथों का भकषण करने लगे। वह सवतनतरतापूरवक शिवलिंग पर उछल.कूद कर रहे थे। उन चूहों को इस बात का किंचित भी डर नहीं था कि यह सरवशकतिमान ईशवर शिव की मूरति हैं। यदि उनहें करोध आ गया जो कि आना भी चाहिये था | तो उनहें अनेक परकार की कषति पहंच सकती थी। परनत बालक मूलशंकर देखते हैं कि उस देवमूरति शिवलिंग पर चूहों की उछल.कूद का कोई परभाव नहीं पड़ रहा था। बालक मूलशंकर इस घटना को देखकर आशचरयानवित थे। उनहोंने पिता को जगाया और पूछा कि यह शिव अपने ऊपर से इन चूहों को कयों नहीं भगा रहे हैं| पिता ने भी इसका सीधा उततर देने के सथान पर कहा कि कलियग का समय है इसलि सा हो रहा है। मूलशंकर इस उततर से सनतषट नहीं ह। उनहें शिवलिंग की पूजा करना निररथक अनभव हआ। उनहोंने पिता को सूचित कर घर जाने का बात कही और रातरि में घर जा कर अपने शिवरातरि के उपवास को तोड़ दिया और माता से लेकर भोजन किया और सो गये। इस घटना से उनके बालक मन पर मूरतिपूजा के परति अविशवास हो गया और आगे के जीवन में हम देखते हैं कि उनहोंने जीवन के शेष भाग में मूरतिपूजा का तयाग कर दिया।

 

इस घटना के परिपरेकषय में यह विचारणीय है कि हम और परायः सभी लेाग अपने जीवन में इस परकार की घटनायें देखते हैं परनत हमें सतय जानने की जिजञासा नहीं होती। हमने बड़े.बड़े शिकषित वयकतियों को भी अनधविशवास में फंसे ह देखा है। परनत महरषि दयाननद के जीवन में यह घटना 14 वरष की आय में घटी। यदि उनकी आय कछ अधिक होती तो समभवतः उसका परभाव कछ होता या नहीं भी हो सकता था। बालयकाल या किशोरावसथा में जो बालक सृषटिकरम के विरूदध या तरक वा बदधि की कसौटी पर अनकूल न होने वाली घटनाओं के समपरक में आते हैं तो उनका मन व मसतिषक उस घटना पर शंका करता है। वह अपने बड़ों से उसका कारण पूछते हैं। बड़ों के पास उनका उततर नहीं होता तो वह परशन को टालने के लि बालक को घमा फिराकर उततर देते हैं। बालक भी बहत अधिक सतय का आगरही यदि नहीं होता तो वह बड़ों के आदर आदि के कारण अपने अनदर उठे परशन की उपेकषा कर देता है। इसका परिणाम भावी जीवन में वह कोई बड़ा तारकिक व आम वयकतियों से पृथक कोई नामी व परसिदध वयकति नहीं बनता है। परनत वह समचित व सनतोषजनक उततर न मिलने पर यदि समाज में बगावत करता है तो समिये कि उसका भावी जीवन असाधारण होने की समभावन अधिक होती है। अतः बड़ों को छोटे बचचों व बालकों के परशनों को जो उनहंत न आते हों टालना नहीं चाहिये अपित उनहें परोतसाहित करना चाहिये और उनके परतयेक परशन का समाधान करने का परयास करना चाहिये। इतना ही नहीं उनहें अपने व अनय बचचों को अधिक से अधिक परशन करने के लि परोतसाहित करना चाहिये। हमें लगता है कि इससे उन बचचों का भविषय अधिक उजजवल हो सकता है।

 

विचार करने पर दो अनय बाते भी समाने आती हैं। पहली यह कि सवामी दयाननद के चितत पर पूरव जनमों की कोई सी समृति अंकित हो जो मूरतिपूजा की विरोधी हो। इसका उनहें जञान नहीं था। परनत जब शिवलिंग व चूहे वाली घटना घटी तो वह कदम आनदोलित हो गये और उनहोंने अपने पिता से परशन किये कयोंकि उनहोंने ही शिवपराण की वह कथायें उनहें सनायी थी जिनमें भगवान शिव को सरवशकतिमान बताया गया था। पिता का करतवय था कि वह नयाय दरशन के अनसार परतयकष अनमान शासतर व आपत आदि परमाणों से शिवपराण की कथाओं को सतय सिदध करते या सवयं भी मूरति करना छोड़ देते। पिता ने सवयं सा नही किया परनत उनके पतर पर उनके धारमिक विशवासों का कोई असर नहीं हआ। उस पतर दयाननद ने सवयं को मूरतिपूजा व वरत.उपवासों से पृथक कर लिया। दूसरी समभावना हमें यह परतीत होती है कि ईशवर महरषि दयाननद को भावी जीवन में मूरति पूजा का विरोधी बनाना चाहते थे और उनकी परेरणा से बालक मूलशंकर के रूप में दयाननद जी ने अपने पिता से इस परकार के परशन किये और उततर न मिलने पर उनहोंने मूरतिपूजा करना असवीकार कर दिया।

 

महरषि दयाननद ने अपने पिता से जो परशन पूछा था वह परशन उनके भावी जीवन में निरणायक जनतदपदह चवपदज सिदध हआ। उनहोंने आधयातम और धरमशासतरों का सा गमभीर अधययन किया जैसा कि विगत 5,000 वरषों में किसी ने भी नहीं किया था। उनके इस अधययन का निषकरष निकला कि इस संसार को बनाने चलाने व परलय या संहार करने वाला ईशवर निराकार व सरववयापक है। आकार रहित होने के कारण उसकी मूरति या आकृति किसी भी परकार से बन ही नहीं सकती। वेद भी कहते हैं कि उस ईशवर की कोई मूरति व आकृति नहीं है। वह तो सरवातिसूकषम सरवानतरयामी निरवयव करस आननद का भणडार व आननद से परिपूरण है। जिस परकार दो पतथरों को रगड़ने पर चिंगारियां निकलती हैं उसी परकार से धयान व चिनतन दवारा ईशवर की उपासना करने पर हृदय गहा में मौजूद ईशवर का आतमा मंग परतयकष निरभरांत जञान होता है। महरषि दयाननद ने यह भी खोज की कि परतयेक मनषय को ईशवर की सतति परारथना व उपासना करनी चाहिये जिसके लि उसे योग पदधति का आशरय लेना चाहिये। अषटांग योग के अनसार यम नियम आसन पराणायाम परतयाहार धारण धयान व समाधि दवारा उपासना करने से ईशवर मनषय की आतमा में अपने सवरूप का परकाश करता है जैसा कि पूरव उललेख किया है। इसको ईशवर का साकषातकार या दरशन देना भी कह सकते हैं। यह सथिति किसी मनषय के जीवन में सरवोचच सफलता की सथिति है। संसार के सारे धनों व शवरयों से भी अधिक व महान यह ईशवर का साकषातकार का होना है। यही वासतविक शवरय है जिससे कि मनषय का जीवन सफल होता है। इस शवरय से बढ़कर व इसके समान संसार में दूसरा कोई शवरय नहीं है। सवामी दयाननद जी को ईशवर की यह परापति शिवरातरि़ के दिन घटित घटना के कारण हई। इतना ही नहीं महरषि दयाननद ने अपने जीवन में जो परूषारथ व साधनायें कीं उससे उनहें संसार के अनेकानेक छपे रहसयों का जञान हआ। इन सबका उदघाटन उनहोंने अपने गरनथों सतयारथपरकाश, ऋगवेदादि भाषय भूमिका ऋगवेद.यजरवेद.संसकृत.हिनदी.भाषय संसकार विधि आरयाभिविनय वयवहारभान व गोकरूणानिधि आदि गरनथों में किया है। महरषि दयाननद का यह समगर साहितय अपने आप में पूरा धरम.शासतर है। यह संसार में उपलबध सभी मत व पनथों के गरनथों से मनषयों का सरवाधिक हितकारी उपयोगी, धरम के सथान पर आचरणीय धारण करने के योगय परचार व परसार करने योगय तथा अधययन.अधयापन.उपदेश करने के योगय है।

 

हमने लेख में महरषि दयाननद के जीवन में 14 वरष की आय में उठे परशन के उततर को जानने के साथ महरषि दयाननद की विशव को देन को भी संकषेप में जाना है। हमें चूहे की घटना से अपने जीवन में यह शिकषा लेनी चाहिये कि जब भी हमारे मन में कोई परशन या शंका उतपनन हो तो हम उसकी उपेकषा कदापि न करे अपित उसका समचित उततर तलाशने में लग जाये। हर परशन का उततर संसार में अवशय ही विदयमान है। परयास करने पर वह परशन व शंका का उततर अवशय मिलेगा इसका विशवास रखना चाहिये। इसी भावना को अपने मन व बदधि तथा आतमा में रखकर और यथावशयकता परूषारथ करके हमारा विजञान आज आकाश की ऊंचाइयों को छू रहा है। धारमिक जगत सामाजिक जगत व राजनैतिक जगत में भी इसी भावना से आगे बढ़ने से सफलता का मिलना निशचित है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म शम।

 

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