The Arya Samaj | Article : महातमा नारायण सवामी

महरषि दयाननद दवारा परसतत आरय विचारधारा में वह परभाव व शकति है जिसका अनकरण व अनसरण करने पर क सामानय वयकति दूसरों के लि आदरश परसतत कर देश, धरम वं समाज की सरवोततम सेवा करने के साथ उनका पररेणासरोत बनकर सवयं के जीवन को धनय बना सकता है। यह शबद महातमा नारायण सवामी के जीवन में पूरणतया चरितारथ ह देखे जा सकते हैं।

संनयास गरहण करने से पूरव महातमा नारायण सवामी जी नारायण परसाद के नाम से जाने जाते थे। उनका जनम विकरमी संवत 1922 व ईसवी सन 1865 की वसनत पंचमी को अलीगढ़ में मंशी सूरय परसाद जी के यहां हआ था। उनकी परारमभिक शिकषा क मौलवी के पास हई जिसने उनहें उरदू व फारसी का अधययन कराया। वह उरदू के अचछे कवि बन ग। मासिक उरदू पतरों में उनकी कवितां परकाशित होती रहती थी। उनहोंने अंगेजी भाषा का भी अधययन किया। 14 वरष की अवसथा होने पर उनके पिता का देहानत हो गया।

बालक नारायण परसाद ने अलीगढ़ में आरय समाज के संसथापक सवामी दयाननद सरसवती के दरशन कि थे। यह घटना समभवतः सवामी दयाननद जी के अलीगढ़ के 22 से 25 अगसत, 1878 के अलपकालीन परवास के मधय घटी। महातमा जी के ही शबदों में घटना परसतत है। वह लिखते है - ‘‘क दिन जब मैं क अंगेजी सकूल में पढ़ता था, सकूल में चरचा हई कि आज क बड़े सधारक सवामी दयाननद सरसवती आने वाले हैं। उतसकता से बहत से विदयारथी और अधयापक देखने के लि सकूल से बाहर उस रासते में जहां से वह गजरने वाले थे, खड़े हो ग। थोड़ी ही देर में देखा कि क जोड़ी (बगघी) में सवामी जी सवार होकर हम सबके सामने से जा रहे थे। उनके दिवय वं चमकते ह चेहरे के देखने मातर. ही से सा कोई न था, जो परभावित न हआ हो।’’

आरय समाज में परविषट होने से पूरव महातमा जी शैवमत के अनयायी थे। वह वरष में दो बार वरत रखते थे। आरय समाज के विषय में उनकी धारणा थी कि ये हिनदू समाज में परचलित मूरतिपजा, अवतारवाद वं फलित-जयोतिष आदि का खणडन ही करते है। आरय समाज, मरादाबाद के सभासद महाशय हर सराय सिंह के समपरक में आकर और उनसे आरयसमाज के नियम जानकर उनका भरम दूर हआ। उनहोंने महरषि दयाननद परणीत विशव की कालजयी रचना ‘‘सतयारथ परकाश’’ को पढ़ा जिसने उनकी आंखे खोल दीं और वह आरयसमाज के महतव को सम सके। सवाधयाय ने उनहें यजञोपवीत धारण करने की परेरणा दी। रामगंगा के तट पर उनहोंने यजञोपवीत धारण कर यजञ के पशचात जीवन में कछ वरत धारण करने की घोषणा की जिसके अनतरगत नितय परति सनधया हवन करना, ईमानदारी वं परिशरम से जीविका परापत करना, सदगृहसथ की तरह जीवन वयतीत करना तथा संसकृत वं अंगरेजी की शिकषा परापति के पूरण परयतन सममिलित थे। क वरष बाद वरतपालन में पूरण सफलता मिलने पर उनहोंने आरयसमाज मरादाबाद की सदसयता गरहण की। सन 1891 में साहू शयामसनदर दवारा परदतत भूमि, धन वं अनयों से संगरहीत धन से मरादाबाद में आरयसमाज मनदिर का भवन तैयार हो गया। वह समाज के उपमंतरी बनाये गये थे। समाज के वारषिकोतसवों में भोजन के परबनध के कारय का उततरदायितव उन पर था जिससे वह ततकालीन परमख आरय वैदिक विदवानों वं नेताओं के निकट समपरक में आ। इन परमख विदवानों में पं. तलसीराम सवामी, पं. लेखराम, लाला मंशीराम, पं. आरय मनि, पं. घनशयाम शरमा मिरजापरी वं अनय अनेक मनीषी थे।

महातमा नारायण सवामी जी सन 1919 तक कई वरषों तक परांतीय सभा की अंतरंग के सदसय रहे और सभा के कारयों में सकरिय भाग लेते रहे। आरयसमाज के विदवान के लि संसकृत, हिनदी वं अंगरेजी का जञान अपरिहारय है। हिनदी जञान तो आपको था ही, अतः संसकृत का अधययन आपने पं. कलयाण दतत राजवैदय से किया। अंगरेजी अधययन में उनहोंने बाबू हरि दास जी अधिवकता से भरपूर सहायता ली।

महातमा नारायण सवामी ने रामगढ़ तलला, जनपद नैनीताल में अपने निवास के लि 20 मई सन 1920 को क कटिया का निरमाण आरमभ किया था जो ‘‘नारायण आशरम’’ के नाम से जाना गया। 8 दिसमबर सन 1920 को महातमा जी ने इस आशरम में परवेश किया। निरमाण अवधि में वह ठाकर कृषण सिंह जी की वाटिका में रहे और वहां अपने असथायी निवास को उनहोंने पाठशाला का रूप दिया। हम यहां यह बताना भी चाहते हैं कि महातमा जी उचच कोटि के साधक थे और योगदरशन निरदिषट साधना पदधति का वह अपने जीवन में पूरी तरह से पालन करते थे। उनकी साधना की सथिति को उनके जीवन में घटित इस घटना से जाना जा सकता है जिसके अनसार उनहोंने अपेणडिकस रोग के जान लेवा आपरेशन में बिना पूरण बेहोश ह आपरेशन करवाकर डाकटरों को आशचरय में डाल दिया था।  नारायण आशरम, रामगढ़ में जाने पर हमें वहां बताया गया था यहां महातमाजी ने न केवल उपनिषदों का भाषय आदि साहितयक कारय ही किये अपित साधना में ही वह अपना अधिकांश समय वयतीत करते थे। आरय समाज में उन जैसे उचच कोटि के साधक कम ही ह हैं।

संसथा गरूकल वृनदावन ने देश को उचच कोटि के अनेक विदवान, साहितयकार व देशभकत दि हैं। सन 1919 में गरूकल को फररूखाबाद से मथरा के निकट पौराणिकों के गढ़ वृनदावन लाया गया था। अतः पोपों की इस नगरी में वेद-शासतर जञान से शूनय अंहकारी बराहमणों ने इसके विरोघ के साथ यहां के बरहमचारियों वं शिकषकों के साथ असभयता वं पशता के वयवहार कि। इस सथिति में महातमा नारायण सवामी जी के धैरय, गरूकल के बरहमारियों वं कलवासियों की परतिकरिया में परेम वं सौहारदपूरण वयवहार ने गरूकल के सामानय करिया-कलापों में सथानीय पौराणिक बनधओं दवारा उपसथित की जाने वाली समसयाओं पर नियंतरण पा लिया गया। महातमा नारायण सवामी इस गरूकल के सरवाधिकारी बना ग थे। उनके वं बरहमचारियों के सहयोगातमक वयवहार ने जिलाधिकारी मि. डैमपीयर को गरूकल का परशंसक बना दिया। यह भी क तथय है कि गरूकल वृनदावन की सथापना परसिदध करानतिकारी राजा महेनदर परताप से दान में परापत भूमि पर की गई थी। गांधी जी का भी यहां पदारपण हआ था और अपने इस गरूकल के परवास को उनहोंने महतवपूरण वं सखद कहा था। गरूकल के संबंध में यह भी महतवपूरण तथय है कि उसके भवनों का शिलानयास गवरनर जेमस मैसटन ने किया था। इसके बाद महातमा जी ने आजीवन अपनी जमा पूंजी रूपये 2,000 के मासिक बयाज रूपये 13 से जीवनयापन किया। गरूकल वृनदावन में वह जो भोजन किया करते थे, उसका मासिक भगतान हेत 10 रूपये देते थे और शेष 2 रपयों  à¤®à¥‡à¤‚ वसतर, यातरां आदि करते थे। तयाग का यह उदाहरण ही इस गरूकल की उननति का सबसे बड़ा कारण था।

सवामी शरदधाननद जी के 23 दिसमबर सन 1926 को क धरमानध अबदल रशीद दवारा हतया कि जाने के पशचात देश भर में आरयसमाजों के नगर कीरतनों और उतसवों में विघन पैदा कि जाने लगे। आरयसमाजियों की हतयां भी सामानय हो गईं तो दिलली में महातमा हंसराज जी की अधयकषता में परथम आरय महासममेलन हआ। इस सममेलन में महातमा नारायण सवामी ने परसताव किया कि आरयसमाज के विरूदध जारी हिंसा वं नगर कीरतनों आदि में बाधाओं के विरोध में सतयागरह किया जा जिसके लि 10,000 आरयवीर भरती कि जां वं 50,000 रूप कतर कि जा। इस परसताव के अनसार 10,000 आरयवीरों की भरती वं धनसंगरह का उततरदायितव अपने ऊपर लेकर महातमा जी ने अपूरव साहस वं दूरदरशिता का परिचय दिया। कछ समय पशचात 10,600 आरयवीर धरमरकषक भरती कि ग। इसका शरेय महातमा जी के साथ परो. रामदेव, सवामी बरहमाननद (भैंसवाल) वं आचारय परमाननद (जजर) आदि को भी है जिनहोंने महातमाजी को सकरिय सहयोग दिया। इसी बीच गरूकल कांगड़ी के वारषिकोतसव के अवसर पर चहसं आयोजित आरय सममेलन का महातमाजी को सभापति बनाया गया था।

गरूकल वृनदावन में वह क छपपर की कटिया में रहते थे। महातमा नारायण सवामी जी ने मरादाबाद की राजकीय सेवा में जिन पदों पर कारय किया वहां हजारों रूप कमा जा सकते थे। विततैषणा शूनय महातमाजी ने जीवन भर कभी क पैसा भी घूस न लेकर क आदरश परसतत किया। कलेकटर पी. हरीसन, जिसके अधीन उनहोंने कारय किया था उनहोंने लिखा है कि महातमा नारायण सवामी की ईमानदारी में निषठा उललेखनीय थी। आगे चलकर इन पी. हरिसन ने परयाग में क अंगरेज भकत बाबा आलाराम दवारा आरयसमाज वं सतयारथ परकाश के विरूदध सथापित अभियोग में उनकी जमकर खिंचाई की थी। इसका कारण महातमा नारायण सवामी जी के वयकतितव का उन पर परभाव था। 

फरवरी, 1925 में आरयसमाज के संसथापक महरषि दयाननद सरसवती की जनम शताबदी मथरा में अंतरराषटरीय सतर पर मनाने का निरणय लिया गया था। गरूकल शिकषा परणाली के परसकरता, सवतनतरता आनदोलन के लोकपरिय नेता वं शदधि आनदोलन के परमख सूतरधार सवामी शरदधाननद सारवदेशिक आरय परतिनिधि सभा वं शताबदी सभा के परधान थे। आरय समाज में पारटीबाजी के कारण सहयोग न मिलने की आशंका से सवामीजी ने 1923 में दोनों पदों से तयाग पतर दे दिया। दिसमबर 1923 में समपनन शताबदी सभा की बैठक में महातमा नारायण सवामी जी को सरवसममति से दोनों सभाओं का परधान चना गया। जनम शताबदी समारोह 15 फरवरी से 21 फरवरी, 1925 तक आयोजित किया गया। इस आयोजन का महतव इसी तथय से जाना जा सकता है कि इस आयोजन में सममिलित होने वाले सरकारी करमचारियों को भारत सरकार ने क सपताह का अवकाश परदान किया था। परांतीय सरकारों वं देशी रजवाडों ने भी इसी परकार की घोषणां की थी। रेल विभाग ने इस आयोजन के लि अनेक सथानों से विशेष रेलें चलाईं थी। सथानीय लोगों ने भी समारोह के आयोजकों वं आगंतकों का सहयोग वं वयापक सहायता की। इन सब कारणों से यह आयोजन भारत के इतिहास मे अपने समय का अभूतपूरव आयोजन सिदध हआ। मथरा जंकशन पर रेलयातरियों से कतर टिकटों के अनसार 2,54,000 यातरी इस समारोह में उपसथित थे। अनय साधनों से की गणना करने पर लगभग 4 लाख ऋषि दयाननद के भकतों ने इसमें भाग लिया था। जापान, चीन, बमरमा, अफरीका, मारीशस, मेडागासकर, वेसटइंडीज, जावा, समातरा, फिलीपाइन और अमेरीका आदि देशों के परतिनिधि भी इस समारोह में बड़ी संखया में सममिलित ह थे। महातमा नारायण सवामी जी ने इस उतसव के विषय में सवयं लिखा है कि सतरियां शायद इतनी सवतनतरता के साथ बेखटके किसी भी मेले में नहीं घूम सकती थीं जितनी सवतनतरता उनहें इस मेले में थी। विशेषजञों का कहना है कि इतना बड़ा धारमिक मेला हजारों वरषों के बाद हआ। न कहीं चोरी की वारदात, न ठगी। न किसी की गांठ काटी गई न और परकार से किसी को ठगा गया। भोजन की वयवसथा भी परशंसनीय थी जिसमें सबको परयापत मातरा में सविधापूरवक अति सवादिषट भोजन सलभ था। छूत-अछूत किसी परकार का भेदभाव न था। इतना बड़ा मेला केवल शिकषितों का था, कोई मैला कपडा पहने ह कहीं भी दिखाई नहीं दे सकता था। 

मेले में कहीं भी सिगरेट वं नशीले पदारथ उपलबध नहीं थे। सरवतर रामराजय की सथिति थी। लाउडसपीकर का उन दिनों परचलन नहीं था। अतः वकताओं को अपने सथान पर मेजों पर खड़ें होकर बोलना पड़ा। 19 फरवरी को जो शोभायातरा निकली वह भी अभूतपूरव थी। आरय जगत के परखयात विदवान पं. यधिषठिर मीमांसक ने अपने आतम परिचय में इस समारोह की परशंसा करते ह लिखा है कि यहां भोजन में जो सवाद आया वह फिर कभी नहीं परापत हआ। इस अवसर पर मथरा नगर में अभयागत आरयों का जो जलूस निकला वह अपने आप में अभूतपूरव था। परतयेक नर-नारी के हृदय में ऋषि दयाननद के परति जो शरदधा और उललास इस अवसर पर दिखाई पड़ा वह अनय किसी शताबदी समाराह में देखने को नहीं मिला।

शताबदी समारोह के निरविघन समापत होने के पशचात आयोजन में उपसथित आरय जगत की समसत विभूतियों वं भारत और उपनिवेशों के समसत आरय नर-नारियों की ओर से महातमा नारायण सवामी जी महाराज कारयकतरता परधान शरीमददयाननद जनम शताबदी सभा वं परधान, सारवदेशिक सभा की सेवा में 20 फरवरी 1925 की क बैठक में अभिननदन पतर भेंट किया। अभिननदन पतर शाहपराधीश राजाधिराज सर नाहर सिंह जी ने पढ़ा। आप जो वाकय पढ़ते थे उनहें परिंसिपल दीवान चनद जी कानपर उचच सवर से दहराते थे। अभिननदन पतर में कहा गया था कि जो अथक परूषारथ, जो निःसपृह तपसया आपने इस दयाननद महायजञ को पूरण करने के लि की है, उससे हमारा हृदय कृतजञता के सचचे भावों से गदगद हो रहा है और हमें निशचय है कि आपकी आदरश निःसवारथ सेवा, अगली पीढ़ी के लि दृषटानत बनेगी और उसकी विदयत से न जाने कितने यवक हृदय परभावित होंगे। आरयसमाज का गौरव है कि उसमें आप जैसे दयाननद के सचचे भकत विदयमान हैं। उनहोंने आरय समाज और उसके परवरतक महरषि दयाननद के काम पर सरवसव नयोछावर किया है। आपका विशदध उननत चारितरय, विदवता दृढ़ अधयवसाय, आतम सवाधयाय, शांति यकत करमणयता ये से गण हैं जिनहें हम सब अनभव कर रहे हैं।

पराधीन भारत में सवतनतर हैदराबाद रियासत में नवाब उसमान अली दवारा अपनी 85 परतिशत बहसंखयक आरय हिनदू परजा के परायः सभी धारमिक वं मानवीय अधिकारों के हनन के विरूदध आरय समाज दवारा लगातार सात वरष तक उनके समाधान का परयास किया गया। रियासत की सामपरदायिक वं हठधरमिता की नीति के विरोध में महातमा नारायण सवामजी जी के नेतृतव में 3 जनवरी सन 1939 से शानतिपूरण सतयागरह आरमभ किया गया जो 17 अगसत 1939 को सफलता परापत कर समापत हआ। हैदराबाद रियासत के भारत में विलय के अवसर पर भारत के परथम गृहमंतरी सरदार पटेल ने विलय का सारा शरेय आरय सतयागरह को दिया। उनहोंने कहा कि आरयसमाज ने यदि पहले से भूमिका तैयार न की होती तो 3 दिन में हैदराबाद में पलिस कशन सफल नहीं हो सकता था। हैदराबाद में यह पलिस कारयवाही 15 से 17 सितमबर, सन 1948 के बीच हई जिसमें रजाकारों के 800 सैनिक मारे ग थे।   

महातमा नारायण सवामी इस हैदराबाद सतयागरह के परथम सरवाधिकारी थे। उनकी परथम गिरफतारी 31 जनवरी 1939 को हैदराबाद में वं दूसरी गलबरगा में 4 फरवरी, 1939 को हई। जेल में उनहें लोहे के भारी कड़े पहना ग। 6 फरवरी को उनहें क वरष की कड़ी कैद की सजा सनाई गई। जेल जीवन के परथम डेढ़ महीनों में आपको परतिदिन आठ घंटे कठोर परिशरम करना पड़ा। वह चरखे पर दो सेर सूत दहरा करते थे। इस बीच उनका शारीरिक भार 166 से घट कर 161 पौणड हो जाने पर काम में छूट दी गई। जेल सपरिटेणडेंट उनके आचरण वं वयवहार से उनका भकत बन गया। क दिन वह अपनी पतनी और बचचों को जेल ले गया और महातमा जी से आगरह किया कि वह उनके सिरों पर हाथ रखकर उनहें आरशीवाद दें। महातमाजी ने उसकी इचछा पूरण की। जेल डायरेकटर सर हालेंस भी उनके परति शरदधा भाव रखते थे। गलबरगा के बनदी जीवन में उनहोंने छांदोगय-उपनिषद का भाषय किया। वह जेल मे सायं 4 बजे तक उपनिषदों की

ALL COMMENTS (0)