The Arya Samaj | Article : जीवातमा

संसार की उतपतति व इसमें विदयमान पदारथों पर विचार करने पर यह जञात होता है कि जड़ व चेतन दो परकार के पदारथ हैं। जड़ संवेदना से रहित होते हैं और चेतन संवेदनशील होते हैं। यदि हम जड़ पदारथों को अगनि में जलाते हैं तो उनहें कोई पीड़ा नहीं होती परनत यदि हमारा कोई अंग अगनि के समपरक में आ जाता है तो हमें जलन की पीड़ा होती है। हमने कई लोगों की जलने से मृतय होती देखी है। हलकी जलन में ही मनषय को अतयनत कषट होता है और वह बेचैन हो उठता है। हमारा शरीर जड़ ततवों से मिलकर बना है। साधारण भाषा का परयोग करें तो हम कह सकते हैं कि हमारा शरीर मिटटी का बना हआ है। यह कैसे? इसलि की यह शरीर अननमय है। माता ने जो अनन आदि पदारथों को भोजन के रूप में गरहण किया उससे शिश का शरीर बना। मां का दूध भी अनन को खाकर ही बनता है। अनन व सभी वनसपतियां भी मिटटी से ही उतपनन होती हैं। जनम के बाद बचचा कछ बड़ा होता है तो वह अनन का सेवन करता है और मृतय परयनत करता है। इससे जञात होता है कि हमारा शरीर अननमय है और अनन, वनसपतियां तथा ओषधियां भूमि माता अरथात मिटटी व जल तथा सूरय के परकाश आदि से बनी हैं। अब कयोंकि मिटटी, जल व सूरय का परकाश आदि जड़ पदारथ हैं, अतः हम सबके पारथिव शरीर में इन सबसे भिनन क चेतन पदारथ का असतितव है। वह सवरूप कैसा है, तो इसका उततर शिश के जनम, उसके आकार व मृतय के समय की सथिति आदि से जञात होता है।

बालक का जब जनम होता है तो उसका आकार छोटा होता है। जनम होने के बाद दिन-परतिदिन उसके शरीर में वृदधि देखी जाती है। यदि विजञान की भाषा में कहें तो बचपन में शरीर में नाना परकार के परकृति के परमाण व अण होते हैं जिनकी संखया आदि समय के साथ वृदधि को परापत होकर शिश बालयावसथा, किशोर अवसथा, यवावसथा, परौढ़ावसथा से होकर वृदधावसथा तक पहंचता है और कछ समय बाद उसकी मृतय हो जाती है। पहले मृतय के दृशय पर विचार करते हैं। मृतय के समय जीवातमा शरीर से पृथक होता है। कोई भी वयकति मरना नहीं चाहता परनत क अजञात सतता जीवातमा को परेरित करती है व उसकी शकति से उसे मजबूर होकर शरीर से बाहर निकलना पड़ता है कयोंकि आतमा की शकति उस परेरक शकति की तलना में अति नयून व अलप होती है और वह चाह कर भी शरीर में नहीं बनी रह पाती और शरीर को छोड़कर उस सतता जिसने उसे शरीर से बाहर निकाला है, उसकी परेरणा से नये शरीर की ओर बढ़ती है व ईशवर की वयवसथा से उसे परापत करती है। जब जीवातमा पराण आदि यकत सूकषम शरीर सहित सथूल शरीर से निकलते हैं तो वह अदृशय रहते हैं। इसका अरथ है कि आतमा व हमारा सूकषम शरीर अतयनत सूकषम है जिस कारण वह हमें व अनयों को दिखाई नहीं देते। हमने 38 वरष पूरव अपने जीवन में शरी वचन सिंह नाम के अपने क कारयालीय साथी की मृतय का दृशय देखा है। मृतय के समय वह वृदध वयकति चपचाप आंखे बंद किये लेटे ह थे। कछ कषणों तक उनकी दोनों आंखों की पलके फड़़फड़ाती रही। और जैसे ही पलकों का फड़फड़ाना बनद हआ, उनकी मृतय हो गई। आंखों के फड़फड़ाने के अतिरिकत हमें अनय कछ दिखाई नहीं दिया था। वरषों परानी यह घटना आज भी हमारी समृति में यथावत विदयमान है। इस घटना से यह निषकरष निकलता है जीवातमा अतयनत सूकषम वं परिमित आकार वाला सा ततव व पदारथ है जो आंखों से दिखाई नहीं देता। यह सरवदेशी या सरववयापक न होकर कदेशी व अलप आकार वाला है। जनम के समय इसके आकार से अनमान होता है कि यह सूकषम पदारथ है जिसकी लमबाई, चैड़ाई व ऊंचाई को शूनय ही कह सकते हैं।

जीवातमा की उतपतति कैसे हई, अब इस पर विचार करते हैं। हमने उपरयकत विवरण से यह जाना है कि जीवातमा क अतयनत सूकषम ततव व पदारथ है जो आंखों से दिखाई नहीं देता। जब मृतय के समय पर यह शरीर से निकलता है तो शरीर का आकार पूरववत रहता है और निकलने वाले पदारथ का दिखाई न देने का कारण इसका सूकषम होना व अलप परिमाण वाला होना है। नवजात शिश में जनम से पूरव यह माता के गरभ में आता है। वहां क भरूण के रूप में रहकर इसका विकास होता है। महरषि दयाननद इसे पिता के शरीर से माता के शरीर में आना बताते हैं। अतः सवाभाविक है कि जीवातमा का आकार तो अवशय है परनत अतयनत सूकषम है और शिश के शरीर के आकार से तो अतयलप होता है। शरीर बढ़ता है जिसका कारण भोजन होता है, वह चाहे माता का दगध हो या फिर अनय खादय पदारथ। अनन से तो अननमय शरीर ही बन सकता है। जीवातमा चेतन ततव है, अतः उसमें वृदधि भौतिक पदारथों से कदापि नहीं हो सकती। हम जानते है कि किसी भी पदारथ का कोई न कोई मूल कारण होता है जिससे वह बनता है। मूल कारण में विकृति होकर नया पदारथ बनता है। बनाने वाली या विकृति परदान करने वाली सतता पृथक होती है। इस सतता को निमितत कारण कहा जाता है। मूल परकृति में जो विकार होकर कारय परकृति अरथात हमारी जञानेनदरियां, करमेनदरिय, मन, बदधि, चितत व अहंकार तथा सूरय, चनदर, पृथिवी व अनय गरह वं उनके उपगरह आदि बने हैं, वह ईशवर से, जो कि इनका निमितत कारण है, उसके दवारा बनाये गयें हैं। जड़ ततव से जड़ पदारथ ही असतितव में आते हैं। परमातमा चेतन ततव है और सरववयापक तथा निरवयव है। इसमें विकार नहीं होता। यदि होगा तो विकार करने वाला व इससे नई रचना करने वाला पृथक परमेशवर मानना पड़ेगा। सा इस जगत में दिखाई नहीं देता। यदि होता तो वयवसथा दोष उतपनन होता और फिर संसार की वयवसथा चलने में बाधा आती। इस वयवसथित संसार को देखकर केवल क ही ईशवर होने का अनमान व परमाण मिलता है। अब जीवातमा के असतितव व इसकी उतपतति पर विचार करते ह यह देखते हैं कि कया यह ईशवर के दवारा तो नहीं बना है। यदि मान लें कि ईशवर से बना है तो यह विचार करना होगा कि ईशवर ने इसे किस वसत से बनाया है? जीवातमा बनाने का कोई पदारथ सृषटि में दृषटिगोचर नहीं होता या धयान में नहीं आता है। केवल क ही समभावना पर विचार कर सकते हैं कि ईशवर का क आतमा के परिणाम वाला भाग उससे अलग होकर जीवातमा बना है? कछ मतवादी लोग जीवातमा को ईशवर का अंश मानते भी हैं। यदि इस बात को सवीकार करते हैं तो मानना होगा कि इससे ईशवर का सरववयापक आकार घटेगा भी और खणडित भी होगा। यदि इस वयवसथा को मान लेते है तो फिर अननत संखया वाली जीवातमाओं के कारण ईशवर के अननत खणड व टकड़े होना मानना पड़ेगा जिससे ईशवर, ईशवर न रहकर क खणडनीय पदारथ बन जायेगा और वह सरववयापक व सरवानतरयामी कदापि नहीं रह सकेगा। दूसरा कारण जिससे यह जञात होता है कि जीवातमा ईशवर से नहीं बना वह, ईशवर व जीवातमा, दोनों के गणों में अनतर का होना है। ईशवर सरववयापक है तो जीव कदेशी है। ईशवर सरवजञ है तो जीव अलपजञ वा अलपजञानी है। ईशवर आननद से पूरण है तो जीवातमा आननद से रहित है और इसका जनम धारण करने का कारण आननद व सख की परापति करना है। जीवातमा जनम व मरण का धारण करने वाला है तो ईशवर अजनमा व जनम धारण नही करता है। इन विरोधी गणों के कारण यह सपषट है कि जीवातमा का सवतनतर असतितव है और वह ईशवर से या उससे पृथक होकर नहीं बना है अनयथा दोनों के सवरूप व गणों में भेद व अनतर न होता। यदि जीवातमा ईशवर से बनता तो गेहूं से आटे व आटे की रोटी में अपने पूरव पदारथ के गणों की तरह जीवातमा में ईशवर के गण अवशय होने चाहिये थे तथा कोई भी विरोधी गण कदापि नहीं होना चाहिये था जबकि सा नहीं है। सबसे बड़ा परमाण वेद का है और हमारे दरशनकारों की विमल बदधि से निकले विचारों का है। नयाय दरशन 1/1/10 में गौतम ऋषि कहते हैं- “इचछादवेषपरयतनसखदःख-जञानानयातमनों लिंगमिति।।“ जिसमें इचछा=राग, दवेष=वैर, परयतन=परूषारथ, सख, दःख, जञान=जानना गण हों, वह ‘जीवातमा’ कहलता है। महरषि कणाद ने वैशेषिक दरशन 3/2/4 में कहा है कि “पराणापाननिमेषोनमेषजीवनमनोगतीनदरियानतरविकाराः सखदःखेचछादवेषपरयतनाशचातमनों लिंगानि।।“ अरथात पराण=भीतर से वाय को बाहर निकालना, अपान=बाहर से वाय को भीतर लेना, निमेष=आंख को नीचे ढांकना, उनमेष=आंख को ऊपर उठाना, जीवन=पराण का धारण करना, मनः=मनन विचार अरथात जञान, गति=यथेषट गमन करना, इनदरिय=इनदरियों को विषयों में चलाना, उनसे विषयों का गरहण करना, अनतरविकार=कषधा, तृषा, जवर, पीड़ा आदि विकारों का होना, सख, दःख, इचछा, दवेष और परयतन ये सब आतमा के लिंग अरथात करम और गण हैं। 

जीव सवतनतर सतता है जिसे सवयंभू सतता कह सकते हैं। इसे न तो ईशवर ने बनाया है न यह कभी बनी है। यह हमेशा हमेशा से है और हमेशा हमेशा रहेगी। हमारी व अनय सभी पराणियों की जीवातमायें किसी अनय पदारथ का उतपाद नहीं हैं जैसे आटे की उतपतति गेहूं से और रोटी की उतपतति आटे, जल व अगनि के संयोग से होती है। जीवातमा के अनतपनन, अजनमा, नितय, शाशवत व सनातन सिदध हो जाने पर जीवातमा के परमातमा से संबंध को जानना भी आवशयक हो जाता है। ईशवर ने जीवातमा के लि यह भौतिक जगत बनाया है जिसमें सूरय, चनदर, पृथिवी वं पृथिवी पर अगनि, जल, वाय, आकाश, नदी, परवत, समदर, वृकष, वनसपति, ओषधियां, अनन, फल व फूल आदि नाना परकार के पदारथ बनाये हैं। उसने ही हमारे आदि परूष अगनि, वाय, आदितय, अंगिरा, बरहमा आदि पूरवज ऋषियों को अमैथनी सृषटि में उतपनन किया था और अब भी वही ईशवर हमें माता-पिता के दवारा व हमारी सनतानों को जनम देता है तथा सख व दख की उपलबधि कराता है। इससे ईशवर से हमारा माता-पिता, आचारय, बनध, मितर व सखा, राजा, नयायाधीश आदि का समबनध सथपित होता है। इन संबंधों को जानकर और उसकी अहेतकी कृपा पर विचार कर हमें उसके परति कृतजञ रहना है और उसकी सतति, परारथना व उपासना तथा यजञ आदि करके उसका धनयवाद करना है। विचार, चिनतन, योगाभयास के दवारा हमें उसके सवरूप को विचार करते ह धयान की विधि के दवारा उसका साकषातकार करना है और सभी असतकरमों को छोड़कर व सतकरमों का आशरय लेकर बनधनों से मकत होकर मकति वा मोकष को परापत होना है। इसके साथ ईशवर दवारा सृषटि के आरमभ में परदान किये गये वेद जञान का भी अधययन करना है व इनकी रकषा का परबनध करने के साथ इनहें सरकषित भावी पीढि़यों को इसके सतय अरथों सहित सौंपना भी हमारा करतवय है। सा करके ही हम अपने सृषटिकरता ईशवर के परति उसकी कृपाओं के ऋण से किंचित उऋण होने की दिशा में कारय कर सकते हैं। जीवन का यही उददेशय भी है कि तरक व विवेक तथा वेदों के अधययन से ईशवर को जानना, उसका साकषातकार करना और सतकरमों को करते ह बनधनों से मकत होकर मोकष को परापत करना। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

 

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