The Arya Samaj | Article : गुरु पूर्णिमा का महत्व

गुरु का अर्थ - शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है।

 

इस जगत का सबसे बड़ा गुरु कौन है?  à¤‡à¤¸ प्रश्न का उत्तर हमें योग दर्शन में मिलता है।

 

स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् || ( योगदर्शन : 1-26 )

 

वह परमेश्वर काल द्वारा नष्ट न होने के कारण पूर्व ऋषि-महर्षियों का भी गुरु है।

 

अर्थात - ईश्वर गुरुओं का भी गुरु है । अब दूसरी शंका यह आती है की क्या सबसे बड़े गुरु को केवल गुरु पूर्णिमा के दिन स्मरण करना चाहिए। इसका स्पष्ट उत्तर है कि नहीं ईश्वर को सदैव स्मरण रखना चाहिए और स्मरण रखते हुए ही सभी कर्म करने चाहिए। अगर हर व्यक्ति सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर को मानने लगे तो कोई भी व्यक्ति पापकर्म में लिप्त न होगा। इसलिए धर्म शास्त्रों में ईश्वर को अपने हृदय में मानने एवं उनकी उपासना करने का विधान है।

 

अब प्रश्न उठता है कि फिर गुरु कैसा हो, उसका व्यवहार  à¤•à¥ˆà¤¸à¤¾ हो, उसका आचरण कैसा हो, उसकी वाणी कैसी हो, उसके लिए उपनिषदों मे इस बारे मे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि –

 

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्, शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥

 

जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते पर चलते हैं, जनहित और दीन दुखीयों के कल्याण की कामना का तत्व बोध करते-कराते हैं तथा निस्वार्थ भाव से अपने शिष्य के जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करते हैं  उन्हें गुरु कहते हैं।

 

मुझे आचार्य चाणक्य जी की एक बात याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि:- प्रलय और निर्माण आचार्य की गोद में पलते हैं।

 

इतिहास में ऐसे अनेको उदाहरण भरे पड़े हैं जिसमें छात्रों एवं छात्राओं ने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर महान बनने की प्रेरणा ली।


जैसे आचार्य चाणक्य से शिक्षा प्राप्त कर चंद्रगुप्त मौर्य मगध राज्य के राजा बने।

 

ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे साहित्यों मे हैं जिन्होंने अपने गुरुओं में श्रद्धा रखी और जगत में अपना नाम कर गए।

 

“उन्नीसवीं शताब्दी का मध्यकाल. मथुरा मे यमुना नदी के किनारे एक प्रज्ञाचक्षु à¤—ुरू विरजानन्द दंडी जी का आश्रम था। जब अध्ययन पूरा होने के बाद जब स्वामी दयानन्द जी गुरू विरजानन्द जी को गुरू दक्षिणा के रूप में थोडी से लौंग, जो गुरू जी को बहुत पसन्द थी लेकर गये तो गुरू जी ने ऐसी दक्षिणा लेने से मना कर दिया। उन्होंने दयानन्द से कहा कि गुरू दक्षिणा के रूप में, मैं यह चाहता हूं कि ” इस देश मे चहूं ओर धर्म के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास का जाल फैला हुआ है. भोली भाली जनता अपनी अज्ञानता के अंधकार मे सत्य के प्रकाश का इंतजार कर रही है, देश मे धर्म के नाम पर फैले हुए पाखंड, अन्धविश्वास और कुरीतियों को समाप्त करो। गुरू जी के आदेश के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

 

हमारे जीवन में गुरु का महत्व माता-पिता के सामान ही है, और एक ही जीवन में हम एक अथवा अनेक गुरुजनों से मिलते हैं और ज्ञान ग्रहण करते हैं। जीवन को सद्मार्ग पर ले जाने वाला और एक सही दिशा देने में गुरु का ही सर्वोत्तम स्थान है, इसलिए तो कहा गया है कि:-

 

गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढि गढि काढैं खोट।

अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ।।

 

अर्थ – गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य कि बुराईयों को दूर करके संसार में सम्मानीय बनता है।

 

आज हमें स्वामी विरजानंद जी जैसा गुरु और स्वामी दयानंद जी जैसा शिष्य चाहिए, तभी समाज उन्नति कर सकता है और इस अंधकारमय ज्ञान, पाखंड और अंधविश्वास से बाहर निकल सकता है।

 

लेखक- आचार्य अनूपदेव

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