हर व्यक्ति यह चाहता है कि हमारे आसपास का वातावरण सभी ओर से सभ्य और संस्कारी समाज से भरा हो, जिससे हमारे बच्चे अच्छे आचरण, अच्छे व्यवहार, अच्छे संस्कार सीख सकें। इसके लिए हमें विद्वानों का संग, अच्छे ग्रंथों का अध्ययन और महापुरुषों की जीवनी इत्यादि को पढ़ना चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं करते हैं, जिससे हमारे बच्चे कुंसंस्कारों में पड़कर अपने जीवन को बर्बाद कर रहे हैं, जिससे हर माता-पिता दुखी हैं और इस समस्या को लेकर चिंतित। यदि हमें सुखी रहना है, तो अपने जीवन में संस्कार को अपनाना पड़ेगा।

आज हम जानते हैं कि सत्संग के द्वारा कैसे अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं।

मनुष्य के जीवन में सत्संग का विशेष महत्व है। सत्संग एक प्रकार का औषधालय है, जो आत्मा का उपचार करता है। यह प्रकार एक रोगी व्यक्ति शारीरिक उपचार के लिए चिकित्सक के पास जाता है, उसके परामर्श के अनुसार नियमित दवा का सेवन कर रोग से मुक्ति पाता है।

जो व्यक्ति सत्संग करता है, उसकी आत्मा की मलिनता का धीरे-धीरे नाश हो जाता है।

सत्संग किसे कहते हैं?

सत्संग – सतां-संग:

सत्संग: अर्थात् सज्जनों, महापुरुषों का या सज्जन पुरुषों से संग-संपर्क करना चाहिए। उनके मनोहर उपदेश सुनना और उन पर आचरण करना, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम व्रतों का पालन करना ही सत्संग कहलाता है।

हमारे शास्त्र सत्संग की महिमा से भरे पड़े हैं। सज्जनों का संग करने से हमारे जीवन में पवित्रता आएगी, जिससे हम अपने वास्तविक उद्देश्य को और अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे। सत्संग की महिमा अपार है।

किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है:

"चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः॥"

अर्थात् संसार में चंदन शीतल होता है, चंदन से भी अधिक चंद्रमा शीतल होता है, लेकिन इन दोनों से भी अधिक शीतल प्रभाव साधु-संगति (सज्जनों का संग) करती है।

अत: वेदों में उत्तम और अधम पुरुषों के संग का वर्णन करते हुए बताया गया है:

"उत्तम पुरुषों का संग कल्याणकारी है,
जबकि अधम पुरुषों का संग पतनकारी।

दूरे पूर्णेन वसति, दूरे ऊनेन हीयते।
महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलि राट् ऋतभृतो भरन्ति॥"

अर्थात्:
उत्तम के साथ रहने से (दूरे वसति) सामान्य जनों से दूर रहना होता है। (ऊनेन) हीन के साथ रहने से भी दूरी (हीनता) पथित हो जाती है। (भुवनस्य मध्ये) सब लोक-लोकांतरों में एक सबसे बड़ा पूजनीय देव परमात्मा है (तस्मै)। उसी के लिए (ऋतभृतः) ऋत का पालन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष भेंट अर्पण करते हैं।

यदि दूर तो दोनों ही होते हैं, परंतु उत्तम का संग करने वाला आदरणीय होता है, और अधम का साथी निंदनीय हो जाता है।

आचार्य चाणक्य ने तो दुष्टों को स्पष्ट रूप से बताया है:

सर्पश्च दुष्टजनश्चैव, गर्तं सर्पो न दुष्टजनः।
सर्पो दशति कालेन, दुष्टः पदे पदे॥

अर्थ:
सर्प और दुष्टजन — दोनों ही भयावह हैं, लेकिन सर्प केवल समय पर काटता है, जबकि दुष्ट हर कदम पर हानि पहुंचाता है।

अर्थात्, सर्प और दुष्ट दोनों से ही डरना चाहिए, लेकिन सर्प तो केवल काल आने पर काटता है, जबकि दुष्ट हर पग-पग पर प्रहार करता है।

दुष्टों की मैत्री कभी स्थिर नहीं रहती।
विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र में कहा है:

"दुर्जनं न सेवेत।

आदरणीय गुरुवर / क्षयिणी / क्रमेण (अनुसार आवश्यक शब्द रखें),*

लघु पत्र द्वारा बोधितिमती च पृष्ठात्।

दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।

अर्थात्:
दुष्टजनों की मित्रता आरम्भ में बहुत बड़ी होती है, किन्तु उत्तरोत्तर घटती ही जाती है, जैसे – प्रातःकाल की छाया बहुत बड़ी होती है, किन्तु दोपहर तक कम होकर न्यूनतम रह जाती है।
इसके विपरीत सज्जनों की मित्रता आरम्भ में नाममात्र होती है, किन्तु उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है।
इसलिए दुष्टजनों की मित्रता को प्रारम्भ में फूलों जैसी देखकर उसमें फँसना नहीं चाहिए।
अतः हमेशा सज्जनों का संग करना चाहिए। क्योंकि –

मलयाचलगन्धनैनं त्विन्दनं चन्दनायते।
तथा सज्जनसंगेन दुर्जनः सज्जनायते॥

अर्थ:
जिस प्रकार मलयाचल के संपर्क में आकर कोई भी वृक्ष चंदन बन जाता है, उसी प्रकार सज्जनों के संग से दुर्जन भी सज्जन बन जाते हैं।

जैसा संग, वैसा रंग’ कहावत के अनुसार सत्संग करने से मनुष्य श्रेष्ठ बन जाता है और कुसंग में पड़कर अधम बन जाता है। संग का रंग अवश्य चढ़ता है।

कुछ दृष्टांत देखिए जिन्होंने सत्संग को पाकर पुण्यस्नान के गर‍ण को ग्रहण किया।

नास्तिक मुंशीराम वकील बरेली में महर्षि दयानन्द जी के सत्संग में सम्मिलित हुआ था। वह उस समय सभी मर्यादाओं से पराङ्मुख हो चुका था, किन्तु महर्षि के उपदेशों का इतना गहरा प्रभाव हुआ कि वह नास्तिक मुंशीराम के स्थान पर ‘ईश्वर का श्रद्धालु भक्त’ वीर सेनानी ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ बन गया।

इसी तरह एक दिन महर्षि दयानन्द जी को अमीचन्द ने एक गीत सुनाया।
उसके गीत को सुनकर ऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा –
"अमीचन्द, तू है तो हीरा, किन्तु कीचड़ में पड़ा है।"
इतना कहा था कि शरार्त, कबाबी और वैश्यागामी अमीचन्द सब पापों को छोड़कर सच्चा आर्य बन गया और अपना सम्पूर्ण जीवन आर्यसमाज के प्रचार कार्य में लगा दिया।

कहते हैं कि –
"जैसे आपके आचरण, विचार, आपकी वाणी होगी वैसे ही आपके बच्चे होंगे।
जैसा व्यवहार आप अपने माता-पिता के साथ करेंगे, वैसा ही व्यवहार आपके बच्चे आपके साथ करेंगे।"
इसलिए सत्संग हमारे जीवन का अभिन्‍न अंग है।
ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जिन्होंने सत्संग से अपने जीवन की काया पलट दी।
संसर में हम कोई भी काम करते हैं तो उसमें लाभ के साथ-साथ हानि की सम्भावनाएँ भी होती हैं,
परन्तु सत्संग में लाभ ही लाभ होता है, हानि की कोई सम्भावना नहीं रहती।
हम अपने जीवन को सत्संग के द्वारा सुखमय बना सकते हैं, अपने बच्चों को संस्कारवान बना सकते हैं।

अगर किसी बच्चे को उपहार न दिया जाए तो वह कुछ ही समय रोएगा।
मगर सत्संग न दिए जाएँ तो वह जीवन भर रोएगा।
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लेखक – आचार्य अनुपदेव

 

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