वेदों का सवाधयाय

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Manmohan Kumar AryaDate
16-Jan-2015Language
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वेद हमें अपने आप से, ईशवर से तथा इस बरहमाणड से हमारा परिचय कराते हैं। यह चार वेद वह जञान है जो निराकार, सरववयापक, सरवजञ, सृषटिकरता ईशवर ने सृषटि की आदि में परथम उतपनन चार मनषयों को दिया था। वेद जञान समपनन होने के कारण इनहें ऋषि कहा जाता है। इनके नाम अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा थे। यह वेद जञान बरहमाणड की सब सतय विदयाओं की पसतकें हैं। अरथात वेदों में ईशवर समबनधी, जीवातमा समबनधी तथा परकृति व सृषटि समबनधी सतय जञान है। महरषि दयाननद ने इतिहास में पहली बार चार वेदों का संसकृत व हिनदी à¤à¤¾à¤·à¤¾ में सतय à¤à¤¾à¤·à¤¯ करने का अनषठान आरमठकिया था। वह कल वेदों का लगà¤à¤— आधा à¤à¤¾à¤·à¤¯ ही कर सके। शतरओं दवारा उनकी हतया के अनेक परयास कि गये। उनहें 18 बार विष दिया गया। अनतिम बार विष दिये जाने से उनकी लगà¤à¤— 59 वरष की आय में मृतय हो गई। इस कारण वेद à¤à¤¾à¤·à¤¯ का कारय वह पूरा नहीं कर सके। उनहोंने अपने जीवन काल ने वेदों के मनतरों के सतय अरथ करने का मारग खोल दिया था जिससे यह समà¤à¤µ हआ कि उनके बाद उनकी शिषय मणडली में से अनेकों ने चारों वेदों, क या क से अधिक वेदों के अनेक à¤à¤¾à¤·à¤¯ लिखे हैं। चार वेदों में 20 हजार 500 के लगà¤à¤— मनतर हैं। वेदों पदों वा शबदों के वरतमान परचलित सà¤à¥€ à¤à¤¾à¤·à¤¾à¤“ं की तरह रूढ़ अरथ न होकर यौगिक-धातवरथ परकरिया से अरथ होते हैं। इसी परकरिया काक अनसरण कर उनहोंने वेदों का à¤à¤¾à¤·à¤¯ किया है। महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ काल के बाद यह परकरिया विलपत परायः हो गई थी जिसका अनसंधान कर व अपने योग बल व सिदधयों की सहायता से उनहोंने वेदों का अपूरव à¤à¤¾à¤·à¤¯ कर मानवजाति की अनपम सेवा की। वेदà¤à¤¾à¤·à¤¯ करने के लि à¤à¤¾à¤·à¤¯à¤•à¤¾à¤° को वेदतर अनेक गरनथों का अधययन में परवीण होने के साथ क योगी होना à¤à¥€ आवशयक है। मांस-मदिरा का सेवन करने वाले वयकति कितनी ही योगयता परापत कर लें परनत वह वेदों के सतय अरथ करने में समरथ नहीं हो सकते। इसका कारण है कि वेद à¤à¤¾à¤·à¤¯ करने में ईशवर से जिस सहायता की अपेकषा होती है, वह उनके मांसाहार व मदिरा सेवन आदि वेद विरूदध आचरण के कारण उनहें परापत होनी समà¤à¤µ नहीं है। लेख का विसतार न कर हम यहां वेदों से सरवथा अपरिचित बनधओं के लि कछ परमख वेद मनतरों के हिनदी à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥ दे रहे हैं जिससे वह वेदों से परिचित वं लाà¤à¤¾à¤¨à¤µà¤¿à¤¤ हो सकें।
गायतरी मनतर - ओ३म à¤à¥‚रà¤à¤µà¤ƒ सवः। ततसवितरवरेणयं à¤à¤°à¤—ो देवसय धीमहि।
धियों यो नः परयोदयात। यजरवेद 36/3 ।।
मनतर का à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ ओ३म, यह ईशवर का मखय व निज नाम है। वह ईशवर हमारे पराणों का à¤à¥€ पराण, दःखनाशक व सखसवरूप है। उस सकल जगत के उतपादक परठके गरहण करने योगय तेज को हम धारण करें। वह परठहमारी बदधियों को सनमारग में परेरित करे। इस मनतर का अनय à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ- हे सरवरकषक, पराणसवरूप, दःखों का नाश करने वाले, सरव-सख परदाता परमेशवर ! आपने इस संसार को रचकर परकाशित किया है। हम आपके इस सविता-सवरूप का वरण वा अनकरण करते हैं। आप पाप व ताप के नाश करने वाले हैं। हे देव! हम आपके इस पाप व दखों के नाशक तथा सखों को देने वाले तेज आदि गणों को धारण करें। ईशवर के तेज व गणों को धारण कि ह हम लोगों की बदधियों को वह ईशवर सनमारग व सतकरमों में चलने की परेरणा करे जिससे हम अà¤à¤¯à¤¦à¤¯ व निःशरेयस को परापत होंवे।
आचमन मनतर: ओ३म शननो देवीरà¤à¤¿à¤·à¤Ÿà¤¯à¤½à¤†à¤ªà¥‹ à¤à¤µà¤¨à¤¤ पीतये। शंयोरà¤à¤¿à¤¸à¤°à¤µà¤¨à¤¤ नः।। यजरवेद 36/12
मनतर का à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ- सबका परकाशक और सबको आननद देनेवाला सरववयापक ईशवर, मनोवांछित आननद अरथात हिक सख-समृदधि के लि और पूरणाननद अरथात मोकष के आननद की परापति के लि हमको कलयाणकारी हो अरथात हमारा कलयाण करे। वही परमेशवर हम पर सखों की सदैव सब ओर से वरषा करे।
देश-देशानतर में लोकपरिय ईशवर की सतति-परारथना-उपासना के 8 मनतरः-
परथम मनतरः ओ३म विशवानि देव सवितरदरितानि परासव। यद à¤à¤¦à¤°à¤¨à¤¤à¤¨à¤¨ आसव।। यजरवेद 30/3।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ हे सकल जगत के उतपततिकतरता, समगर शवरययकत, शदधसवरूप, सब सखों के दाता परमेशवर ! आप कृपा करके हमारे सà¤à¥€ दरगण, दवरयसन और दःखों को दूर कर दीजि और जो कलयाणकारक गण, करम, सवà¤à¤¾à¤µ और पदारथ हैं, वह सब हमको दीजि/परापत कीजि।
दवितीय मनतरः ओ३म हिरणयगरà¤à¤ƒ समवतरततागरे à¤à¥‚तसय जातः पतिरेक आसीत।
स दाधार पृथिवीनदयामतेमाम कसमै देवाय हविषा विधेम।। यजरवेद 13.4 ।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ जो सवपरकाशसवरूप और जिसने परकाश करनेहारे सूरय, चनदरमा, पृथिवी आदि पदारथ उतपनन करके धारण किये हैं, जो उतपनन ह समपूरण जगत का अपनी महिमा से परसिदध सवामी क ही चेतन सवरूप था, जो सब जगत के उतपनन होने से पूरव वरतमान था, वह इस à¤à¥‚मि और सूरयादि को धारण कर रहा है, हम लोग उस सखसवरूप शदध परमातमा के लि गरहण करने योगय योगाà¤à¤¯à¤¾à¤¸ और अति परेम से विशेष à¤à¤•à¤¤à¤¿ किया करें।
तृतीय मनतरः ओ३म य आतमदा बलदा यसय विशव उपासते परशिषं यसय देवाः।
यसय छायाऽमृतं यसय मृतयः कसमै देवाय हविषा विधेम।। यजरवेद 25.13।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ जो आतमजञान का दाता, शरीर, आतमा और समाज के बल का देनेहारा, जिसको सब विदवान लोग उपासना करते हैं और जिसका परतयकष सतयसवरूप शासन, नयाय, अरथात शिकषा को मानते हैं, जिसका आशरय ही मोकष-सखदायक है, जिसका न मानना, अरथात à¤à¤•à¤¤à¤¿ न करना ही मृतय आदि दःख का हेत है, हम लोग उस सखसवरूप सकल जञान के देने हारे परमातमा की परापति के लि आतमा और अनतःकरण से à¤à¤•à¤¤à¤¿, अरथात उसी की आजञा पालन करने में ततपर रहें।
चतरथ मनतरः ओ३म यः पराणतो निमिषतो महितवैकऽ इदराजा जगतो बà¤à¥‚व।
य ईशेऽअसय दविपदशचतषपदः कसमै देवाय हविषा विधेम।। यजरवेद 23.3।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ जो पराणवाले और अपराणिरूप जगत का अपनी अननत महिमा से क ही विराजमान राजा है, जो इस मनषयादि और गौ आदि पराणियों के शरीर की रचना करता है, हम लोग उस सखसवरूप, सकल शवरय को देनेहारे परमातमा के लि अपनी सकल उततम समागरी को उसकी आजञापालन में समरपित करके विशेष à¤à¤•à¤¤à¤¿ करें।
पांचवा मनतरः ओ३म येन दयौरूगरा पृथिवी च दृढा येन सव सतà¤à¤¿à¤¤à¤‚ येन नाकः।
योऽअनतरिकषेरजसो विमानः कसमै देवाय हविषा विधेम।। यजरवेद 32.6 ।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ जिस परमातमा ने तीकषण सवà¤à¤¾à¤µà¤µà¤¾à¤²à¥‡ सूरय आदि और à¤à¥‚मि को धारण किया है, जिस जगदीशवर ने सख को धारण किया है और जिस ईशवर ने दःखरहित मोकष को धाारण किया है, जो आकाश में सब लोक-लोकानतरों को विशेष मानयकत, अरथात जैसे आकाश में पकषी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निरमाण करता और à¤à¤°à¤®à¤£ कराता है, हम लोग उस सखदायक कामना करने के योगय परबरहम की परापति के लि सब सामथरय से विशेष à¤à¤•à¤¤à¤¿ करें।
छठा मनतरः ओ३म परजापते न तवदेतानयनयो विशवा जातानि परि ता बà¤à¥‚व।
यतकामासते जहमसतननोऽअसत वयं सयाम पतयो रयीणाम।।
ऋगवेद 10.121.10।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ हे सब परजा के सवामी परमातमन ! आपसे à¤à¤¿à¤¨à¤¨ दूसरा कोई उन-इन (पूरव व वरतमान के) सब उतपनन ह जड़-चेतनादिकों का नहीं तिरसकार करता है, अरथात आप सरवोपरि हैं। जिस-जिस पदारथ की कामना वाले होके हम लोग à¤à¤•à¤¤à¤¿ करें, आपका आशरय लेवें और वांछा करें, उस-उसकी कामना हमारी सिदध होवे, जिससे हम लोग धनैशवरयों के सवामी होवें।
सातवां मनतरः ओ३म स नो बनधरजनिता स विधाता धामानि वेद à¤à¤µà¤¨à¤¾à¤¨à¤¿ विशवा।
यतर देवाऽ अमृतमानशानासतृतीये धामननधयैरयनत।। यजरवेद 30.10।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ हे मनषयों ! वह परमातमा अपने लोगों का à¤à¤°à¤¾à¤¤à¤¾ के समान सखदायक, सकल जगत का उतपादक, वह सब कामों का पूरण करनेहारा, समपूरण लोकमातर और नाम-सथान-जनमों को जानता है और जिस सांसारिक सख-दःख से रहित नितयाननद-यकत मोकषसवरूप धारण करनेहारे परमातमा में मोकष को परापत होकर विदवान लोग सवेचछापूरवक विचरते हैं, वही परमातमा अपना-हमारा गरू, आचारय, राजा और नयायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी à¤à¤•à¤¤à¤¿ किया करें।
आठवां मनतरः ओ३म अगने नय सपथा रायेऽअसमान विशवानि देव वयनानि विदवान।
ययोधयसमजजहराणमेनो à¤à¥‚यिषठानते नमऽउकतिं विधेम।। यजरवेद 40.16।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ हे सवपरकाश, जञानसवरूप, सब जगत के परकाश करनेहारे सकल सखदाता परमेशवर ! आप जिससे समपूरण विदयायकत हैं, कृपा करके हम लोगों को विजञान वा राजयादि शवरय की परापति के लि अचछे, धरमयकत, आपत लोगों के मारग से समपूरण परजञान और उततम करम परापत कराइ और हमसे कटिलतायकत पापरूप करम को दूर कीजि। इस कारण हम लोग आपकी बहत परकार की सततिरूप नमरतापूरवक परशंसा सदा किया करें और सरवदा आननद में रहें।
सनधया का उपसथान मनतर जिसमें 100 वरष व अधिक सवसथ व आतमनिरà¤à¤° रहकर जीवित रहने की परारथना है।
मनतरः ओ३म तचचकषरदेवहितं परसताचछकरमचचरत।पशयेम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शरृणयाम शरदः शतमपरबरवाम शरदः शतमदीनाः सयाम शरदः शतमà¤à¥‚यशच शरदः शतात।। यजरवेद 26.24।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ वह ईशवर सरवदरषटा, à¤à¤•à¤¤à¥‹à¤‚ का हितकारी तथा परम पवितर है। वह सृषटि के पूरव से ही वरतमान है। उसकी कृपा से हम सौ वरष तक देखें, सौ वरष तक जीवें, सौ वरष तक सनें तथा सौ वरष तक बोलें। सौ वरष तक सवतनतर, सवाशरित, सवाधीन व आतमनिरà¤à¤° होकर रहें और उसी परमेशवर की कृपा से सौ वरष से अधिक à¤à¥€ हम लोग देखें, जीवें, सनें-सनावें और सवतनतर रहें।
मनतरः ओ३म स परयगाचछकरमकायमवरणमसनाविरम शदधमपापविदधम।
कविरमनीषी परिà¤à¥‚ः सवयमà¤à¥‚रयाथातथयतोऽरथान वयदधाचछाशवतीà¤à¤¯à¤ƒ समाà¤à¤¯à¤ƒà¥¤à¥¤ यजरवेद 40.8।।
à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥à¤ƒ वह परमातमा हमारे चारों ओर व बरहमाणड में सरवतर वयापत है, सरववयापक है, तेजसवी है, शरीररहित है, घावरहित है, नस-नाडि़यों से रहित है, पवितर है, पाप से विदध नहीं है। वह मेधावी है, करानतदरषटा है, बदधिमान है, दषटों को तिरसकृत करने वाला है, सवयमà¤à¥‚ है। उसने यथातथ रूप में अरथात जैसे होने चाहिं वैसा पदारथों को रचा है।
हमने लेख में कछ मनतरों को नमूने के रूप में परसतत किया है। इन मनतरों को देखकर यदि किसी बनध जिसने वेद नहीं देखे या वेदों से सरवथा अपरिचित हैं, उनहें वेदों की सवाधयाय की परेरणा हो सके, सा लेखक का विनमर परयास है। हम पाठकों से महरषि दयाननद सरसवती की सतयारथ परकाश, आरयाà¤à¤¿à¤µà¤¿à¤¨à¤¯ और ऋगवेदादि à¤à¤¾à¤·à¤¯à¤à¥‚मिका आदि गरनथों को पढ़ने की सममति देते हैं। इनके अधययन से आपको वेदों वं हमारे ऋषियों के जञान की सरवोतकृषटता का जञान होगा और जीवन की सही दिशा व मारग परापत होगा। वेदों के अनसार मनषय का उददेशय वेद विहित सदकरमों को करके धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति करना है। वेदाचरण से घरम, अरथ व काम हमारे इसी मनषय जीवन में परापत होते हैं और मोकष अरथात जनम-मरण से अवकाश व छटटी मृतय के बाद मिलती है। मृतय के बाद मनषय वा सà¤à¥€ जीवातमाओं को पनः जनम लेना होता है। मनषय की जीवातमा के माता के गरठमें 9 से 10 महीने निवास करना पड़ता है। यह क परकार की जेल है जहां जीवातमा को सख तो मिलने का परशन ही नहीं उठता। यह दःख की सथिति है जैसी की जेल में होती है। हमारी आजकल की जेले à¤à¥€ माता के गरठसे अचछी बन गई हैं जहां कैदी सखपूरवक रहते हैं। कोई à¤à¥€ विजञ व गणी वयकति जेल जाना नहीं चाहता। बार-बार मां के गरठकी इस जेल से मकति का क ही उपाय है कि वेदों के अनसार जीवन वयतीत करना जिससे दःखों की सदा-सदा के लि निवृतति वा मकति हो। इसी लि ईशवर ने इस सृषटि को बनाकर नाना पदारथ बनायें और à¤
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