मनषय जनम

Author
Manmohan Kumar AryaDate
16-May-2015Category
विविधLanguage
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SaurabhUpload Date
18-May-2015Download PDF
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हम संसार में जनमें हैं। हमें मनषय कहा जाता है। मनषय शबद का अरथ मनन व चिनतन करने वाला पराणी है। संसार में अनेक पराणी हैं परनत मनन करने वाला पराणी केवल मनषय ही है। मनषय का जनम-माता व पिता से होता है। यह दोनों मनषय के जनम में मखय कारण वा हेत दिखाई देते हैं और यह है à¤à¥€ सतय। बिना माता व पिता के किसी à¤à¥€ मनषय का जनम नहीं हो सकता। जिस परकार से सनतान अपने माता व पिता से जनम लेता है उसी परकार से ही उसके माता पिता का जनम à¤à¥€ अपने-अपने माता-पिताओं से हआ है। हमारे पास इतिहास के पराने से पराने गरनथ हैं। वेद ईशवरीय जञान है जिसमें मनषय जीवन वयतीत करने की समपूरण जीवन परणाली व जीवन शैली दी गई है। इसके अतिरिकत वेद के बाद बराहमण गरनथों का निरमाण ततकालीन विदवान ऋषियों ने किया। इन बराहमण गरनथों को क परकार से वेदों की वयाखया वं इतिहास के गरनथ कह सकते हैं। वेद वं इन बराहमण गरनथों से विदित होता है कि सृषटि के आरमठसे मनषयों का जनम अपने-अपने माता-पिताओं से होता आ रहा है। जब सृषटि के आरमठमें पहंचते हैं तो हमें आदि मनषयों के माता-पिता का होना बदधि, जञान व अनमान से असमà¤à¤µ सिदध होता है। उस काल के यदि कोई गरनथ हैं तो वह केवल वेद वं बराहमण गरनथ ही हैं। इनसे यही विदित होता है कि सृषटि की रचना परमातमा से हई है। परमातमा ने ही सृषटि के आरमठमें मनषयों सहित समसत पराणी जगत की अमैथनी सृषटि की। अमैथनी सृषटि बिना माता-पिता की सृषटि को कहते हैं। कया अमैथनी सृषटि समà¤à¤µ है तो इसका उततर है कि अमैथनी सृषटि समà¤à¤µ है जिसका परमाण सृषटि के आरमठमें माता-पिता के न होने के कारण मनषयों अरथात सतरियों व परूषों का उतपनन होना है। यदि यह अमैथनी सृषटि न होती तो संसार चलता ही न। और यदि परमातमा इस अमैथनी सृषटि व सृषटि की रचना न करता तो यह संसार बन à¤à¥€ नहीं सकता था।
सृषटि की उतपतति व इसके संचालन के विषय में वेदों में कया जञान है?, उसे जानकर इस सृषटि में घटाते हैं। यदि वह सृषटि के सरवथा अनरूप है तो सतय है अनयथा नहीं है। वेदानसार ईशवर सृषटि का आदि निमितत कारण है। ईशवर सतय, चितत, आननदसवरूप, सरवजञ, निराकार, सरवशकतिमान, नयायकारी, दयाल, अजनमा, अनादि, अनपम, सरवाधार, सरववयापक, सरवानतरयामी, अजर, अमर, अà¤à¤¯, नितय, पवितर, सरवातिसूकषम और सृषटिकरतता आदि सवरूप व गणों वाला वेदानसार है। ईशवर से इतर इस दृशयमान जगत का आदि कारण परकृति है जो सवà¤à¤¾à¤µ से जड़ वं सूकषम तथा ईशवर के आधीन है, अनादि, नितय अरथात सदा-सरवदा से विदयमान है। ईशवर ने इस जड़ कारण परकृति को अपनी सरवजञता व सवà¤à¤¾à¤µà¤¿à¤• जञान, जैसा वह पूरव कलपों में सृषटि की रचना, पालन व परलय करता आया है, अनतरयामी, सरवजञता व सरवशकतिमान सवरूप से इस बरहमाणड को रचा है। सृषटि न तो अपने आप बन सकती है और न ईशवर के अतिरिकत अनय कोई कारण बरहमाणड में उपसथित है। ईशवर के असतितव का परमाण ही सृषटि की रचना व पराणी जगत का असतितव तथा उसका वयवसथित रूप से उतपतति व संचालन है। यह विवेकी मनषय हर पल और हर कषण अनà¤à¤µ करते हैं। ईशवर व परकृति के अतिरिकत इस संसार में जीव नाम की तीसरी व अनतिम अनादि व नितय सतता है। जीव चेतन सवरूप है तथा आननद से रहित तथा आननद व सख का अà¤à¤¿à¤²à¤¾à¤·à¥€ है। यह सख इसे मनषय आदि à¤à¤¿à¤¨à¤¨-à¤à¤¿à¤¨à¤¨ पराणी योनियों में जनम लेकर ही परापत होता है अथवा मनषय जीवन में शठकरमों को करके मकति वा मोकष परापत होने पर ईशवर के दवारा परदान किया जाता है। जीव का सवरूप सूकषम पदारथ या सतता, कदेशी, आकार रहित, नेतरों से अदृशय, अलपजञ, जञान व करम के सवà¤à¤¾à¤µà¤µà¤¾à¤²à¤¾, करम-फल-चकर में बनधा हआ, शà¤à¤¾à¤¶à¤ करमों का कतरता व इनके फलों का à¤à¥‹à¤•à¤¤à¤¾, ईशवरोपासना, यजञ, दान, सेवा, परोपकार, वेदविदया की परापति, सतकरमों व वेदानसार जीवन वयतीत कर मकति को परापत होता है। ईशवर संखया में क है। परकृति à¤à¥€ क है परनत कारण अवसथा में यह सूकषम होकर पूरे बरहमाणड में फैली हई वा विसतृत रहती है। ईशवर परकृति की इस परमाण वा इससे पूरव की सथिति को कतरित व नियमों के अनसार परमाणरूप कर सथूल व घनीà¤à¥‚त बनाते ह कारय सृषटि का रूप परदान करते हैं जैसे कि à¤à¤µà¤¨ निरमाण करने से पूरव सà¤à¥€ सामगरी को कतर कर उसे वयवसथित रूप दिया जाता है। सा ही परमातमा ने सतव, रज व तम गणों वाली सरवतर फैली व विसतृत परकृति को अपने अनतरयामी व सरवशकतिमान सवरूप से कतरित कर वरतमान सवरूप सूरय, पृथिवी, चनदर, अनय गरह व उपगरह, अनय सौर मणडल, नकषतर व निहारिकाओं आदि की उतपतति करके किया है। सृषटि की उतपतति का जञान ईशवर में नितय अरथात अनादि काल से है। वह न तो कम होता है और न वृदधि को परापत होता है। वह सदा क समान व क रस ही रहता है। इसका जीता-जागता परमाण ही वरतमान की सृषटि वा हमारा बरहमाणड है।
अब हम वरतमान सृषटि पर दृषटि डालते हैं तो हम पाते हैं कि यह सृषटि बहत परानी है। इसके काल की कलपना करते हैं तो कह सकते हैं कि यह हजारों, लाखों व करोड़ों वरष परानी है या इसका इतना पराना होना समà¤à¤µ है। वैदिक संसकृति व सà¤à¤¯à¤¤à¤¾ के अनसार वेद समवत क अरब छियानवें करोड़ आठलाख तरेपन हजार क सौ पनदरह वरष पूरण होकर चैतर शकल परतिपदा से क सौ सोलहवां वरष आरमठहआ है। यह गणना हमारे पूरवज सृषटि के आरमठसे करते आये हैं। परतयेक धारमिक अनषठान के आरमठमें अनषठान का संकलप करते ह इसे बोला जाता है। देशी व विदेशी वैजञानिकों के अनमान à¤à¥€ लगà¤à¤— इतनी ही अवधि सृषटि की उतपतति की मानते हैं जिनसे दोनों का परायः समनवय हो जाता है। मनषयों के पराचीन इतिहास के दो परमख गरनथ महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ और बालमिकी रामायण à¤à¥€ हमारे पास सलठहैं। इनके अनसार महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ काल लगà¤à¤— पांच हजार वरष व बालमिकी रामायाण का काल कई लाख व करोड़ वरष पूरव सिदध होता है। इस लमबे काल से मनषय व अनय पराणी जनम लेते आ रहे हैं। इन सà¤à¥€ पराणियों में à¤à¤¿à¤¨à¤¨à¤¤à¤¾ होते ह à¤à¥€ क वयवसथा दिखाई देती है जो करम फलों के अनसार है। शठकरम करने वाले मनषयों की यश व कीरति फैलती है व विपरीत की निनदा होती है। शठकरम करने वाले दीरघ जीवी होते हैं व निनदित करम करने वाले अलपाय होते हैं। अचछे करमों को करके मनषय सममानित व सखी होते हैं व उनहें परà¤à¥‚त धन व समपतति परापत होती है। वह जञानारजन करते हैं जिनमें वेद जञान à¤à¥€ सममिलित है तथा निनदित करम करने वाले परायः सखों से वंचित ही रहते हैं। यह सब वयवसथा परकृति में करम फल सिदधानत को पषट करती है। इससे यह निषकरष निकाला जा सकता है कि मनषयों में विदयमान जीवातमा ही मनषय शरीरों में करमों की करतता है और यह जनम-जनमानतर को परापत होकर मनषय व इतर पराणी योनियों में जनम लेकर करम फलों को à¤à¥‹à¤—ता है। इससे ईशवर, परकृति, जीवातमा के असतितव व करमफल सिदधानत का साफलय सिदध होता है। यही वैदिक सिदधानत है। अनय मतों के सिदधानत à¤à¥€ वैदिक मतों के परचलित सिदधानतों को अनय-अनय मतों में समाविषट कर बनाये गये हैं। जो लोग वैदिक सिदधानतों को नहीं मानते उनहें अलपजञ, अशदध व अपरिपकव, रज व तमों गण वाली बदधि, मन व मसतिषक से यकत मनषय ही कह सकते हैं। इस संकषिपत विवेचन से जञात होता है कि मनषय जनम, आय और सख-दःखी रूपी à¤à¥‹à¤— हमें ईशवर के दवारा हमारे पूरव जनमों के करमों के अनसार मिले हैं। महरषि पतंजलि वेदों व करमफल सिदधानत के मरमजञ ऋषि थे। उनहोंने कहा है कि मनषय के करमों से परारबध बनता है जिससे मनषय के नये जनम की जाति, आय व à¤à¥‹à¤— निशचित होते हैं। यहां जाति का अरथ मनषय, पश, पकषी आदि परकार à¤à¥‡à¤¦ से असंखय योनियां हैं। आय जीवनकाल है तथा à¤à¥‹à¤— सख व दख व इनके साधन हैं। महरषि पतंजलि का यह सिदधानत à¤à¥€ सृषटि में कारयरूप में विदयमान देखा जा सकता है। इन सà¤à¥€ विषयों को अधिक गहराई से जानने के लि महरषि दयाननद सरसवती कृत सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिà¤à¤¾à¤·à¤¯ à¤à¥‚मिका सहित आरय विदवानों के वेदों पर आधारित à¤à¤¿à¤¨à¤¨-à¤à¤¿à¤¨à¤¨ विषयों के गरनथों को देखना चाहिये व उनकी संगति कर उनसे शंका समाधान कर निà¤à¤°à¤°à¤¾à¤¨à¤¤ होना चाहिये। इसी के साथ इस चरचा को विराम देते हैं।
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