वयवहारà¤à¤¾à¤¨ शिकषा
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Manmohan Kumar AryaDate
24-May-2015Category
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SaurabhUpload Date
26-May-2015Download PDF
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महरषि दयाननद वेदों के अनपम विदवान और समाज सधारक थे। वेद ईशवरीय जञान है और धरम-करम की दृषटि से सà¤à¥€ संसार के मनषयों दवारा वैदिक जञान व करमों का पालन ही उचित व आवशयक है अनयथा वह जीवन के उददेशय धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति नहीं कर सकते। इस विषय को महरषि दयान नद ने अपने गरनथों में परशनोततर शैली व तरक व परमाण के आधार पर सिदध किया है जिसका सà¤à¥€ को अधययन करना चाहिये। महरषि दयाननद ने बालकों वं वृदधों के लि समान रूप से उपयोगी शिकषा क पसतक “वयवहारà¤à¤¾à¤¨à¤ƒ” की रचना की है। इस पसतक की शिकषायें इतनी महतवपूरण वं उपयोगी है जिसकी किसी धरम गरनथ व अनय पसतक से कोई समानता नहीं है। यह पसतक अपनी उपमा आप ही है। इस पसतक के पराककथन में महरषि दयाननद ने उततम विचारों को परसतत किया है। आईये, इसका अवलोकन व अमृतपान कर लेते हैं। वह लिखते हैं कि मैंने परीकषा करके निशचय किया है कि जो धरमयकत वयवहार में ठीक-ठीक वतरतता है उसको सरवतर सखलाठऔर जो विपरीत वतरतता है वह सदा दःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखि, जब कोई सà¤à¤¯ मनषय विदवानों की सà¤à¤¾ में वा किसी के पास जाकर अपनी योगयता के अनसार नमसते आदि करके बैठके दूसरे की बात धयान से सन, उसका सिदधानत जान-निरà¤à¤¿à¤®à¤¾à¤¨à¥€ होकर यकत परतयततर करता है, तब सजजन लोग परसनन होकर उसका सतकार और जो अणड-बणड कता है उसका तिरसकार करते हैं। जब मनषय धारमिक होता है तब उसका विशवास और मानय शतर à¤à¥€ करते हैं और जब अधरमी होता है तब उसका विशवास और मानय मितर à¤à¥€ नहीं करते। इससे जो थोड़ी विदयावाला à¤à¥€ मनषय शरेषठविदया पाकर सशील होता है उसका कोई à¤à¥€ कारय नहीं बिगड़ता। सब मनषयों को उततम शिकषा और सà¤à¥€ विदयारथियों का आचार अतयततम करने के लि महरषि दयाननद ने वयवहारà¤à¤¾à¤¨ पसतक की रचना की है।
महरषि दयाननद लिखते हैं कि सा कौन सा मनषय होगा कि जो सखों को सिदध करनेवाले वयवहारों को छोड़कर उलटा आचरण करे। कया यथायोगय वयवहार किये बिना किसी को सरवसख हो सकता है? कया कोई मनषय है जो अपनी और अपने पतरादि समबनधियों की उननति न चाहता हो? इसलि सब मनषयों को उचित है कि शरेषठशिकषा और धरमयकत वयवहारों से वतरतकर सखी होके दःखों का विनाश करें। कया कोई मनषय अचछी शिकषा से धरमारथ, काम और मोकष फलों को सिदध नहीं कर सकता और इसके बिना पश के समान होकर दःखी नहीं रहाता है। इस उददेशय की पूरति के लि उनहोंने बालक से लेके वृदधपरयनत मनषयों के सधार के अरथ यह वयवहार समबनधी शिकषा का विधान किया है।
मनषय जीवन के सधार में मखय à¤à¥‚मिका माता-पिता के बाद आचारय वा शिकषकों की होती है। कैसे परूष पढ़ाने और शिकषा करने हारे होने चाहिये? इस परशन को परसतत कर इसके उततर में वह कहते हैं कि पढ़ाने वालो को ‘आतमजञानं समारमà¤à¤¸à¤¤à¤¿à¤¤à¤¿à¤•à¤·à¤¾ धरमनितयता। यमरथा नापकरषनति स वै पणडित उचयते।’ अरथात जिसको परमातमा और जीवातमा का यथारथ जञान, जो आलसय को छोड़कर सदा उदयोगी, सखदःखादि का सहन, धरम का नितय सेवन करनेवाला, जिसको कोई पदारथ धरम से छड़ाकर अधरम की ओर न खेंच सके, वह पणडित कहाता है। शिकषकों में यह अनिवारय गण होने चाहिये। आगे वह कहते हैं कि ‘निषेवते परशसतानि निनदितानि न सेवते। अनासतिकः शरदधवान तत पणडितलकषणम।’ अरथात जो सदा परशसत, धरमयकत करमों का करने और निनदित=अधरमयकत करमों को कà¤à¥€ न सेवनेहारा, न कदापि ईशवर, वेद और धरम का विरोधी और परमातमा, सतयविदया और धरम में दृढ़ विशवासी है, वही मनषय पणडित के लकषण यकत होता है और वही अधयापक व शिकषक होने योगय है। ‘कषिपरं विजानाति चिरं शरृणोति विजञाय चारथं à¤à¤œà¤¤à¥‡ न कामात। नासंपृषटो हयपयंकते परारथे ततपरजञानं परथमं पणडितसय।’ अरथः जो वेदादि शासतर और दूसरे के कहे अà¤à¤¿à¤ªà¤°à¤¾à¤¯ को शीघर ही जानने, दीरघकालपरयनत वेदादि शासतर और धारमिक विदवानों के वचनों को धयान देकर सनके ठीक-ठीक समकर निरà¤à¤¿à¤®à¤¾à¤¨à¥€, शानत होकर दूसरों से परतयततर करने, परमेशवर में तन, मन, धन से परवतरतमान होकर काम, करोध, लोà¤, मोह, à¤à¤¯ शोकादि दषटगणों से पृथक वतरतमान, किसी के पूछे बिना वा दो वयकतियों के संवाद में बिना परसंग के अयकत à¤à¤¾à¤·à¤£à¤¾à¤¦à¤¿ वयवहार न करने वाला है, वही पणडित की बदधिमतता का परथम लकषण है और से मनषय ही आचारय वा बालकों को पढ़ाने वाले होने चाहिये। इसके बाद परसतत तीन शलोकों के हिनदी अरथ करते ह उनहोंने लिखा है कि जो मनषय परापत होने के अयोगय पदारथों की कà¤à¥€ इचछा नहीं करते, किसी पदारथ के अदृषट वा नषट-à¤à¤°à¤·à¤Ÿ हो जाने पर शोक नहीं करते और बड़े-बड़े दःखों से यकत वयवहारों की परापति में à¤à¥€ मूढ़ होकर नहीं घबराते हैं वे मनषय पणडितों की बदधि यकत कहलाते हैं व शिकषक होने के योगय हैं। जिसकी वाणी सब विदयाओं में चलनेवाली, अतयनत अदà¤à¤¤ विदयाओं की कथाओं को करने, बिना जाने पदारथों को तरक से शीघर जानने-जनाने, सनी-विचारी विदयाओं को सदा उपसथित रखने और जो सब विदयाओं के गरनथों को अनय मनषयों को शीघर पढ़ानेवाला मनषय है, वही पणडित कहाता है। जिसकी सनी हई और पठित विदया अपनी बदधि के सदा अनकूल और बदधि और करिया सनी-पढ़ी विदयाओं के अनसार, जो धारमिक, शरेषठपरूषों की मरयादा का रकषक और दषट-डाकओं की रीति को विदीरण-करनेहारा मनषय है, वही पणडित नाम से समबोधित करने योगय होकर अधयापन का कारय कर सकता है।
उपरयकत शलोकों व उनके हिनदी अरथों में पणडितों के लकषण बताकर महरषि दयाननद कहते हैं कि जहां से सतपरूष पढ़ाने और बदधिमान पढ़नेवाले होते हैं वहां विदया, धरम की वृदधि होकर सदा आननद ही बढ़ता जाता है और जहां मूढ़ पढ़ने-पढ़ानेहारे होते हैं, वहां अविदया और अधरम की वृदधि होकर दःख बढ़ता ही जाता है। इस कारण वह कहते हैं कि जिन लोगों को न पढ़ाना और न उपदेश करना चाहिये उन लोगों में वह लोग हैं जो किसी विदया को न पढ़ और किसी विदवान का उपदेश न सनकर बड़े घमणडी, दरिदर होकर बड़े-बड़े कामों की इचछा करनेहारे और बिना परिशरम के पदारथों की परापति में उतसाही होते हैं। से मनषय को विदवान लोग मूरख कहते हैं। यहां महरषि दयाननद ने दृषटानत रूप से शेखचिलली की कथा लिख कर कछ महतवपूरण वचन परसतत किये हैं जो विसतृत होने के कारण पसतक ‘वयवहारà¤à¤¾à¤¨’ में ही देखने उचित हैं।
विदया पढ़ने व पढ़ाने वालों को किन दोषों से मकत होना चाहिये उसका परकाश करते ह कहा है कि आलसय, नशा करना, मूढत़ा, चपलता, वयरथ इधर-उधर की अणड-बणड बातें करना, जड़ता--कà¤à¥€ पढ़ना कà¤à¥€ न पढ़ना, अà¤à¤¿à¤®à¤¾à¤¨ और लोà¤-लालच--ये सात विदयारथियों के लि विदया के विरोधी दोष हैं, कयोंकि जिसको सख चैन करने की इचछा है उसको विदया कहां और जिसका चितत विदयागरहण करने-कराने में लगा है उसको विषय-समबनधी सख-चैन कहां? इसलि विषय-सखारथी विदया को छोड़े और विदयारथी विषयसख से अवशय अलग रहें, नही तो परमधरमरूप विदया का पढ़ना-पढ़ाना कà¤à¥€ नहीं हो सकता। विदयारथियों और शिकषकों के दोषों का जञान कराकर कैसे मनषय विदया परापति कर और करा सकते हैं उनका वरणन करते ह महरषि दयानद ने महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ से à¤à¥€à¤·à¤® व यधिषठिर संवाद परसतत कर लिखा है à¤à¥€à¤·à¤® जी ने राजा यधिषठिर को कहा कि हे राजन ! तू बरहमचरय के गण सन। जो मनषय इस संसार में जनम से लेकर मरण परयनत बरहमचारी होता है उसको कोई शठगण अपरापय नहीं रहता। सा तू जान कि जिसके परताप से अनेको व करोड़ों ऋषि बरहमलोक, अरथात मकतावसथा में सरवाननदसवरूप परमातमा में वास करते और इस लोक में à¤à¥€ अनेक सखों को परापत होते हैं। बरहमचरय का पालन करने वाले मनषय निरनतर सतय में रमण करते, जितेनदरिय, शानतातमा, उतकृषट शà¤-गण-सवà¤à¤¾à¤µà¤¯à¤•à¤¤ और रोगरहित पराकरमयकत शरीर, बरहमचरय, अरथात वेदादि सतय-शासतर और परमातमा की उपासना का अà¤à¤¯à¤¾à¤¸à¤¾à¤¦à¤¿ करम करते हैं, वे सब बरे काम और दःखों को नषट कर सरवोततम धरमयकत करम और सब सखों की परापति कराने हारे होते हैं और इनहीं के सेवन से मनषय उततम अधयापक और उततम विदयारथी हो सकते हैं। इसके बाद महरषि दयाननद ने अनेकानेक विषयों पर बहत ही महतवपूरण विचार परसतत कि हैं जिसके लि वयवहारà¤à¤¾à¤¨ पसतक का अधययन कर लाठलेना चाहिये।
हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में परसतत विचारों को पसनद करेंगे और वयवहारà¤à¤¾à¤¨ पसतक को परापत कर उसका सवाधयाय कर अधिकाधिक लाà¤à¤¾à¤¨à¤µà¤¿à¤¤ होंगे।
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