सनत गरू रविदास और आरय समाज


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Prakash AryaDate
07-Jun-2014Category
लेखLanguage
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भारत के परसिदध सनतों में शामिल गरू रविदासजी ने अपनी अनत: परेरणा पर सांसारिक भोगों में रूचि नहीं ली। बचपन में ही वैरागय-वृति व धरम के परति लगाव के लकषण उनमे परकट ह थे। अधयातम के परति गहरी रूचि उनमें जनमजात थी और जब कहीं अवसर मिलता तो वह विदधानों व साध-सनतों के उपदेश सनने पहंच जाया करते थे। उस समय की अतयनत परतिकूल सामाजिक वयवसथायें व घर में उनके आधयातमिक कारयों के परति गहन उपेकषा का भाव था। बचपन में ही धारमिक परकृति के कारण उनके पिता बाबा सनतोख दास ने उनहें अपने पारिवारिक वयवसाय शू-मेकर का कारय करने की परेरणा की व दबाव डाला। जब इसका कोई विशेष असर नहीं हआ तो कम उमर में आय. लोनादेवी जी से उनका विवाह कर दिया गया। इस पर भी उनकी धारमिक लगन कम नहीं हई। वह अधयातम के मारग पर आगे बढ़ते रहे जिसका परिणाम यह हआ कि आगे चलकर वह अपने समय के विखयात सनत बने। सनत शबद का जब परयोग करते हैं तो अनभव होता है कि कोई सा जञानी वयकति जिसे वैरागय हो, जिसने अपने सवारथों को छोड़कर देश व समाज के सधार, उननति व उतथान को अपना मिशन बनाया हो और इसके लि जो तिल-तिल कर जलता हो जैसा कि दीपक का तेल चलता है। मनषय जीवन दो परकार का होता है क भोग परधान जीवन व दूसरा तयाग से पूरण जीवन। सनत का जीवन सदैव तयाग परधान ही होगा। भोग या तो होंगे नहीं या होगें तो अतयलप व जीवन जीने के लि जितने आवशयक हों, उससे अधिक नहीं। से लोग न तो समाज के लोगों व अपने अनयायियों को ठगते हैं, न पूजीं व समपतति कतर करते हैं और न सविधापूरण जीवन ही वयतीत करते हैं। हम अनभव करते हैं कि इसके विपरीत जीवन शैली भोगों में लिपत रहने वाले लोगों की होती है। सा जीवन जीने वाले को सनत की उपमा नहीं दी सकती। सनत व गरू का जीवन सभी लोगों के लि आदरश होता है और क परेरक उदाहरण होता है। गरू व सनतजनों के जीवन की तयागपूरण घटनाओं को सनकर बरबस शिर उनके चरणों में क जाता है। उनके जीवन की उपलबध घटनाओं पर दृषटि डालने से लगता है कि वह साधारण वयकति नहीं थे अपित उनमें ईशवर के परति अपार शरदधा की भावना थी व समाज के परति भी असीम सनेह व उनके कलयाण की भावना से वह समाहित थे। सा ही जीवन गरू रविदास का था।
इस लेख के चरितरनायक सनत गरू रविदास का जनम सन 1377 ईसवी में अनमान किया जाता है। उनकी मृतय के बार में अनमान है कि वह 1527 में दिवगंत ह। इस परकार से उनहोंने लगभग 130 वरष की आय परापत की। जनम वरतमान उततरपरदेश के वाराणसी के विखयात धारमिक सथल काशी के पास गोवरधनपर सथान में हआ था। यह काशी वही सथान है जहां आरय समाज के संसथापक महरषि दयाननद सरसवती ने आज से 144 वरष पूरव, सन 1869 ई. में काशी के सनातनी व पौराणिक मूरति पूजकों से वहां के परसिदध सथान आननद बाग में लगभग 50,000 लोगों की उपसथिति में काशी के राजा ईशवरी नारायण सिंह की मधयसथता व उनके सभापतितव में लगभग 30 शीरष विदवान पणडितों से क साथ शासतरारथ किया था। सवामी दयाननद का पकष था कि सृषटि की आदि से ईशवर परदतत जञान वेदों में ईशवर की मूरतिपूजा का विधान नहीं है। काशी के पणडितों को यह सिदध करना था कि वेदों में मूरतिपूजा का विधान है। इतिहास साकषी है अकेले दयाननद के साथ 30-35 पणडित अपना पकष सिदध न कर सकने के कारण पराजित हो गये थे और आज तक भी कोई पारौणिक, सनातन धरमी व अनय कोई भी वेदों से मूरति पूजा को सिदध नहीं कर पाया। हम क बात अपनी ओर से भी यहां वह यह कहना चाहते हैं कि सारा हिनदू समाज फलित जयोतिष की चपेट में है। फलित जयोतिष का विधान भी सब सतय विदयाओं की पसतक चारों वेदो में नहीं है। इसके लि मूरतिपूजा जैसा बड़ा शासतरारथ तो शायद कभी नहीं हआ। हो सकता है कि इसका कारण यह मानयता रही हो कि सभी पाखणडों व अनध-विशवासों का मखय कारण मूरतिपूजा है और इसकी पराजय में ही फलित जयोतिष भी मिथया सिदध माना जायेगा। महरषि दयाननद ने अपने कारयकाल में फलित जयोतिष का भी परमाण परससर खणडन किया। आज जो भी बनध फलित जयोतिष में विशवास रखते हैं, दूरदरशन व अनय साधनों से तथाकथित जयोतिषाचारय परचार करते हैं व जयोतिष जिनकी आजीविका है, उन पर यह उततरदायितव है कि वह फलित जयोतिष के परचार व समरथन से पूरव इसे वेदों से सिदध करें। फलित जयोतिष सतय इस लि नहीं हो सकता कि वह ईशवरीय नयाय वयवसथा व करम-फल सिदधानत ‘अवशयमेव हि भोकतवयं कृतं करम शभाशभं’ (गीता) में सबसे बड़ा बाधक है। ईशवर के सरवशकतिमान होने से यह सवत: असतय सिदध हो जाता है। सब सतय विदयाओं के आकर गरनथ वेदों में यदि फलित जयोतिष का विधान नहीं है तो इसका अरथ है कि फलित जयोतिष सतय विदया न होकर कालपनिक व मिथया सिदधानत व विशवास है। हम समते हैं कि गरू रविदास जी ने अपने समय में वही कारय करने का परयास किया था जो कारय महरषि दयाननद ने 19वीं शताबदी के अपने कारयकाल में किया था। इतना अवशय कहना होगा कि महरषि दयाननद का विदया का कोष सनत रविदास जी से बड़ा था जिसका आधार इन दोनों महापरूषों की शिकषायें व महरषि दयाननद सरसवती के सतयारथ परकाश, वेदभाषय सहित ऋगवेदादि भाषयभूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय व अनय गरनथ हैं। कभी कहीं किंहीं दो महापरूषों की योगयता समान नहीं हआ करती। लेकिन यदि कोई वयकति अनधकार व अजञान के काल में व विपरीत परिसथितियों में अपने पूरवजों के धरम पर सथित रहता है और तयागपूरवक जीवन वयतीत करते ह लोगों को अपने धरम पर सथित रहने की शिकषा देता है तो यह भी जाति व देश के हित में बहत बड़ा पणय कारय होता है। गरू रविदास जी ने विपरीत जटिल परिसथितियों में जीवन जिया व मसलिम काल में सवधरम मे सथित रहते ह लोगों को सवधरम में सथित रखा, यह उनका बहत बड़ा योगदान है। यह तो निरविवाद है कि महाभारत काल के बाद सवामी दयाननद जैसा विदवान अनय कोई नहीं हआ। अनय जो ह उनहोंने नाना परकार के वाद दिये परनत ‘वेदों का सतय वाद-तरैतवाद’ तो महरषि दयाननद सरसवती ने ही देश व संसार को दिया है जो सृषटि की परलय तक विदवानों व विवेकीजनों का आधयातमिक जगत में मखय व कमातर मानयता व सिदधानत रहेगा।
पहले गरूजी के परिवार के बारे में और जान लेते हैं। उनकी माता का नाम कलशी देवी था। जाति से गरूजी कटबनधला जाति जो चरमकार जाति के अनतरगत आती है, जनमे थे। उनका क पतर हआ जिसका नाम विजय दास कहा जाता है। उन दिनों सामाजिक वयवहार में जनम की जाति का महतव आज से बहत अधिक था व वयकति का वयकतितव गौण था। इस कारण गरूजी, उनके परिवार, उनकी जाति व अनय दलित जातियों के लि जीवन जीना बहत दभर था। समाज में छआछत अथवा असपरशयता का विचार व वयवहार होता था। इन सब अनचित कठोर सामाजिक बनधनों को ेलते ह भी आपने अपना मारग बना लिया और आतमा व ईशवर के असतिातव को जानकर सवयं भी लाभ उठाया व दूसरों को भी लाभानवित किया। सच कहें तो गरूजी अपने समय में क बह परतिभाशाली कमातर आधयातमिक भावना व तेज से समपनन महापरूष वयकति थे। यदि उनहें विदयाधययन का अवसर मिलता तो वह समाज में कहीं अधिक परभावशाली करानति कर सकते थे। आगे चल कर हम उनकी कछ शिकषाओं, सिदधानतों तथा मानयताओं को भी देखगें जो उस यग में वैदिक धरम को सरकषा परदान करती हैं। गरू रविदास जी ने ईशवर भकति को अपनाया और अपना जीवन उननत किया। योग, उपासना व भकति शबदों का परयोग आधयातमिक उननति के लि किया जाता है। योग, सवाधयाय व ईशवर को सिदध ह योगियों के उपदेशों का शरवण व उनके परशिकषण से ईशवर भकति का धयान करते ह ईशवर का साकषातकार करने का कहते है। उपासना भी योग के ही अनतरगत आती है इसमें भी ईशवर के गणों को जानकर सतति, परारथना व उपासना से उसे परापत व सिदध किया जाता है। उपासना करना उस ईशवर का धनयवाद करना है जिस परकार किसी से उपकृत होने पर सामाजिक वयवहार के रूप में हम सभी करते हैं। उपासना का भी अनतिम परिणाम ईशवर की परापति, साकषातकार व जनम-मरण से छूटकर मकति की परापति है। भकति पराय: अलप शिकषित लोगों दवारा की जाती है जो योग व उपासना की विधि को भली परकार व समयक रूप से नही जानते। भकति क परकार से ईशवर की सेवा में निरत रहना है। भकत ईशवर को सवामी व सवयं को सेवक मानकर ईशवर के भजन व भकति गीतों को गाकर अपने मन को ईशवर में लगाता है जिससे भकत की आतमा में सख, शानति, उललास उतपनन होता है तथा भावी जीवन में वह निरोग, बल व शकति से यकत, दीरघ जीवी व यश: व कीरति के धन से समृदध होता है। इसके साथ ही उसका मन व आतमा शदध होकर ईशवरीय गणों दया, करूणा, परेम, दूसरों को सहयोग, सहायता, सेवा, परोपकार आदि से भरकर उननति व अपवरग को परापत होता है।
सनत रविदास जी सन १३७७ में जनमें व सन 1527 में मृतय को परापत ह। ईशवर की कृपा से उनहें काफी लमबा जीवन मिला। यह उस काल में उतपनन ह जब हमारे देश में अनय कई सनत, महातमा, गरू, समाज सधारक पैदा ह थे। गरूनानक (जनम 1497), तलसीदास (जनम 1497), सवामी रामाननद (जनम 1400), सूरदास (जनम 1478), कबीर (1440-1518), मीराबाई (जनम 1478) आदि उनके समकालीन थे। गरू रविदास जी के जीवन काल में सन 1395-1413 में मैहमूद नासिरउददीन, सन 1414-1450 में महममद बिन सईद तथा सन 1451 से 1526 से लोदी वंश का शासन रहा। लोदी वंश के बाद सन 1526 से 1531 बाबर का राजय रहा। से समय में गरू रविदास जी भी सनातन वैदिक धरम के रकषक के रूप में पराचीन आरय जाति के सभी वंशजों जिनमें दलित मखय रूप से रहे, धरमोपदेश से उनका मारगदरशन करते रहे। धरम रकषा व समाज सधार में उनका योगदान अविसमरणीय है जिसे भलाया नहीं जा सकता।
परमातमा ने सभी मनषयों को बनाया है। ईशवर क और केवल क है। जिन दैवीय शकतियों की बात कही जाती है वह सब जड़ हैं तथा उनमें जो भी शकति या सामरथय है वह केवल ईशवर परदतत व निरमित है तथा ईशवर की सरववयापकता के गण के कारण है। सभी धरम, मत, मजहब, समपरदायो, गरूडमों को अराधयदेव भिनन होने पर भी वह अलग-अलग ने होकर कमातर सतय-चितत-आननद=सचचिदाननद सवरूप परमातमा ही है। इनहें भिनन-भिनन मानना या समना अजञानता व अलपजञता ही है। विजञान की भांति भकतों, सनमारग पर चलने वाले धारमिक लोगों, उपासकों, सतोताओं, ईशवर की परारथना में समय वयतीत करने वालो को चिनतन-मनन, विचार, धयान, सवाधयाय कर वं सतय ईशवर का निशचय कर उसकी उपासना करना ही उचित व उपयोगी है वं जीवन की उपादेय बनाता है। वैद, वैदिक साहितय वं सभी मत-मतानतरों-धरमों, रीलिजियनों, गरूदवारों आदि की मानयताओं, शिकषाओं व सिदधानतों का अधययन कर परमातमा का सवरूप ‘सचचिदाननद, निराकार, सरवशाकतिमान, नयायकारी, दयाल, अजनमा, अननत, निरविकार, अनादि, अनपम, सरवाधार, सरवेशवर, सरववयापक, सरवानतरयामी, अजर, अभय, नितय, पवितर और सृषटिकरता’ ही निरधारित होता है। जीवातमा का सवरूप सतय, चितत, आननद रहित, आननद की पूरति ईशवर की उपासना से परापतवय, पणय-पाप करमों के कारण जनम-मरण के बनधन में फंसा हआ, मोकष परापति तक जनम-मरण लेता हआ सदकरमो-पणयकरमों व उपासना से ईशवर का साकषातकार कर मोकष व मकति को परापत करता है। ईशवर, जीव के अतिरिकत तीसरी सतता जड़ परकृति की है जो सवरूप में सूकषम, कारण अवसथा में आकाश के समान व आकाश में सरवतर फैली हई तथा सतव-रज-तम की सामयवसथा के रूप में विदयमान होती है। सृषटि के आरमभ में ईशवर अपने जञान व शकति से इसी कारण परकृति से कारय परकृति-सृषटि को रचकर इसे वरतमान सवरूप में परिणत करता है। इस परकार यह संसार वा बरहमाणड असतितव में आता है। सृषटि बनने के बाद 1,96,08,53,113 वरष वयतीत होकर आज की अवसथा आई है। इससे पूरव भी असंखय बार यह सृषटि बनी, उन सबकी परलय हई और आगे भी असंखय बार यह करम जारी रहेगा। मनषय जनम धारण होने पर सतकरमों को करते ह ईशवर की उपासना से ईशवर का साकषातकार करना जीवन का लकषय है। यह लकषय उपासना से जिसके साथ सतति, परारथना, योगाभयास, योगसाधना, धयान, समाधि व भकति आदि भी जड़ी हई है, लकषय की परापति होती है।
आरय समाज सतय को गरहण करने व असतय को छोड़ने व छड़ाने का क अपूरव व अनपमेय आनदोलन है। यह सरव सवीकारय सिदधानत अविदया का नाश व विदया की वृदधि का परबल समरथक है। यदयपि आरय समाज का यह सिदधानत विजञान के कषेतर में शत-परतिशत लागू है परनत धरम व मत-मतानतरों-मजहबों में इस सिदधानत के परचलित न होने से संसार के सभी परचलित भिनन-भिनन मानयता व सिदधानतों वाले मत-मतानतरो-मजहबों के कीकरण, करूपता व सरवमानय सिदधानतों के निरमाण व सबके दवारा उसका पालन करने जिससे सबकी धारमिक व सामाजिक उननति का लकषय परापत हो, की परापति में बाधा आ रही है। आरय समाज सतय के गरहण व असतय के तयाग वं अविदया का नाश व विदया की वृदधि के सिदधानत को धरम, मत-मतानतर व मजहबों में भी परचलित व वयवहृत कराना चाहता है। बिना इसके मनषय जाति का पूरण हित समभव नहीं है। मनषय का मत व धरम सारवभौमिक रूप से क होना चाहिये। सतयाचरण व सतयागरह, सतय मत के परयाय है। पूरण सतय मत की संसार में हर कसौटी की परीकषा करने पर केवल वेद मत ही सतय व यथारथ सिदध होता है। यह वेद मत सायण-महीधर वाले वेद मत के अनरूप नहीं अपित पाणिनी, पंतजलि, यासक, कणद, गौतम, वेदवयास, जैमिनी आदि व दयाननद के वेद भाषय, दरशन व उपनिषद आदि गरनथों के सिदधानतों के अनरूप ही सकता है। इसी को आरय समाज मानयता देता है व सबको मानना चाहि।
सवामी दयाननद ने पूना में समाज सधारक जयोतिबा फूले के निमंतरण पर उनकी दलितों व पिछड़ों की कनया पाठशाला में जाकर उनहें जञान परापति व जीवन को उननत बनाने की परेरणा की थी। इसी परकार से सब महापरूषों के परति सदभावना रखते ह तथा उनके जीवन के गणों को जानकर, गण-गराहक बन कर, उनके परति सममान भावना रखते ह, वेद व वैदिक साहितय को पढ़कर अपनी सरवांगीण उननति को परापत करना चाहिये। इसी से समाज वासतविक अरथों में, जनम से सब समान व बराबर, मनषय समाज बन पायेगा जिसमें
किसी के साथ अनयाय नहीं होगा, किसी का शोषण नहीं होगा और न कोई क
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