वैजञानिक दृषटि से à¤à¥€ यजञ को समना होगा
Author
UnknownDate
11-Jun-2014Category
लेखLanguage
HindiTotal Views
6055Total Comments
0Uploader
NitinUpload Date
11-Jun-2014Top Articles in this Category
- फलित जयोतिष पाखंड मातर हैं
- राषटरवादी महरषि दयाननद सरसवती
- राम मंदिर à¤à¥‚मि पूजन में धरà¥à¤®à¤¨à¤¿à¤°à¤ªà¥‡à¤•à¥à¤·à¤¤à¤¾ कहाठगयी? à¤à¤• लंबी सियासी और अदालती लड़ाई के बाद 5 अगसà¥à¤¤ को पà¥
- सनत गरू रविदास और आरय समाज
- बलातकार कैसे रकेंगे
Top Articles by this Author
- Animal Sacrifice Before Deities
- वैजञानिक दृषटि से à¤à¥€ यजञ को समना होगा
- महरषि दयाननद और मांस à¤à¤•à¤·à¤£ निषेध
- स�वामी श�रद�धानंद जी का महान जीवन कथन
- International Arya Maha Sammelan in Singapore and Bangkok
यह सरवविदित है कि बढ़ते ह वायपरदषण से इस समय सारा वैजञानिक जगत विशेष चिंतित है। हमारे अनà¤à¤µà¥€ ऋषि मनियों ने आदि सृषटि में ही यह बता दिया था कि वाय, जल, अनन आदि की शदधि के लि वं अंत:करण की शदधि के लि अगनिहोतर बहत सहायक होता है।
इतिहास पढ़ने से जानकारी मिलती है। वैदिक यग में घर-घर यजञ होते थे तब हमारा (आरवावरत) à¤à¤¾à¤°à¤¤ वरष देश धनय धानय से परिपूरण था परतयेक का अनत:करण पवितर था। तब à¤à¤¾à¤°à¤¤ विशव का गर था। महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ काल के पशचात मत-मतानतरों के दवारा धरम अधयातम के साथ करमकाणड समबनधी à¤à¤°à¤¾à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾ à¤à¥€ बहत फैली वाम मारगी लोग यजञ के लि निरपराध पराणियों को मारने लगे। कालानतर में करणा परधान हृदय वाले महातमा बदध जैन तीरथकर à¤à¤—वान महावीर आदि ने उन हिंसक यजञों का विरोध किया और हिंसक यजञों के होने से अनेक वयकतियों के हृदय में अगनिहोतर के परति अशरदधा उतपनन हो गई जिसके परिणाम सवरप यह सरवकलयाणकारी वैदिक परमपरा पराय: लपती सी हो गई। देवी देवताओं वं यजञों के नाम पर हो रहा पशवध, वेद उदधारक-महरषि दयानंदजी की कृपा से वैदिक विधानानसार हिंसा रहित यजञ पन: होने लगे।
अगनिहोतर से लेकर अशवमेघ परयनत जो करमकाणड है, उसमें चार परकार के दरवयों का होम करना होता है। 1. सगनध गण यकत-जो कसतरी केशर सगनधित गलाब के फल आदि। 2. मिषट गण यकत-जो कि गड़ या शककर आदि। 3. पषटिकारक गण यकत जो घृत और जौ, तिल आदि। 4. रोगनाशक गणयकत-जो कि सोमलता, औषधि आदि। इन चारों का परसपर शोधन, संसकार और यथायोगय मिलाकर अगनि में वेद ऋचाओं दवारा यकतिपूरवक जो होम किया जाता है। वह वाय और वृषटिजल की शदधि करने वाला होता है। इससे सब जगत को सख होता है।
इसमें पूरव मीमांसा धरमशासतर की à¤à¥€ सममति है-क तो दरवय, दूसरा संसकार तीसरा उनका यथावत उपयोग करना-ये तीनों बात यजञ के करता को अवशय करनी चाहि। सौ पूरवोकत सगनधादि यकत चार परकार के दरवयों का अचछी परकार संसकार करके अगनि में वेद ऋचाओं दवारा होम करने से जगत का अतयंत उपकार होता है। जैसे-दाल, और साग-सबजी आदि में सगंध दरवय और देशी घी इन दोनों को चमचे में अगनि में तपाकर उनमें छोंक देने से वे सगनधित हो जाते है। कयोंकि उस सगंध दरवय और घी के अणओं को ओर अधिक सगनधित करके दाल आदि पदारथो को पषटि और रचि बढ़ाने वाले कर देते हैं।
वैसे ही यजञ से जो à¤à¤¾à¤ª उठता है वह à¤à¥€ वाय और वृषटि के जल को निरदोष और सगनधित करके सब जगत को सख करता है। इससे वह यजञ परोपकार के लि ही होता है। अरथात जनता नाम जो मनषयों का समूह है उसी के सख के लि यजञ होता है। यह तरेय बराहमण का परमाण है। वेद में तो है ही लेकिन शतपथ बराहमण का à¤à¥€ परमाण है। जो (होम) यजञ करने के दरवय अगनि में डाले जाते हैं। उनसे धआ और à¤à¤¾à¤ª उतपनन होते है, कयोंकि अगनि का यही सवà¤à¤¾à¤µ है कि पदारथो में परवेश करके उनको à¤à¤¿à¤¨à¤¨-à¤à¤¿à¤¨à¤¨ कर देता है फिर वे हलके होके वाय के साथ ऊपर आकाश में चढ़ जाते हैं। उनमें जितना जल का अंश है वह à¤à¤¾à¤ª कहलाता है। और जो शषक है वह पृथवी का à¤à¤¾à¤— है, इन दोनों के योग का नाम धूम है। जब वे परमाण मेघ मंडल में वाय के आधार से रहते हैं फिर वे परसपर मिलकर बादल होकर उनसे वृषटि, वृषटि से औषधि, औषधियों से अनन, अनन से धात, और धात से शरीर और शरीर से करम बनता है।
वैसे ही ईशवर ने मनषयों को यजञ करने की आजञा वेद दवारा दी है। इसलि सबके उपकार करने वाले यजञ को नहीं करने से मनषयों को दोष लगता है। जहा जितने मनषय आदि के समदाय अधिक होते हैं वहा उतना ही दरगनध à¤à¥€ अधिक होता है। वह ईशवर की सृषटि से नहीं किनत मनषय आदि पराणियों के निमितत से ही उतपनन होता है। कयोंकि पश व वसत मनषय अपने सख के लि इकटठा करता हैं। इससे उन पशओं से à¤à¥€ जो अधिक दरगनध उतपनन होती सो मनषयों के ही सख की इचछा से होती है।
जब वाय और वृषटि जल को बिगाड़ने वाला सब दरगनध मनषयों के ही निमितत से उतपनन होता है तो उसका निवारण करना à¤à¥€ मनषयों को ही चाहि जितने पराणी देहधारी जगत में है उनमें से मनषय ही उततम है, इससे वे ही उपकार और अनपकार को जानने के योगय है।
मनन नाम विचार का है, जिसके होने से ही मनषय नाम होता है। अनयथा नहीं कयोंकि ईशवर ने मनषयों के शरीर में परमाण आदि के संयोग विशेष इस परकार रचे है। कि जिनसे उनको जञान की उननति होती है। इसी कारण से धरम का अनषठान और अधरम का तयाग करने को à¤à¥€ मनषय ही योगय होते हैं अनय नहीं इससे सबके उपकार के लि यजञ का अनषठान à¤à¥€ सà¤à¥€ मनषयों को करना उचित वं अनिवारय है।
सगंध यकत घी आदि पदारथों को अनय दरवयों में मिलकर अगनि में डालने से उनका नाश नहीं होता है किनत किसी à¤à¥€ पदारथ का नाश नहीं होता केवल वियोग मातर होता है। और यजञ में वेद मंतर दवारा दी हई। आहूति में उस पदारथ की शकति 100 गना बढ़ जाती है। जैसे माईक में अगनि होती है। जो अपनी आवाज को बलंद कर देती है। क वयकति दवारा मिरची खाने पर वह खद सी सी करता रहेगा। पास ही बैठा वयकति पर उस मिरची का असर नहीं होता है। लेकिन जब वही मिरची अगनि में डाल दी जाती है तब गली, मोहलला के सà¤à¥€ लोग छींकने लग जाते है।
वैसे ही जो सगंध आदि यकत दरवय अगनि में डाला जाता है। उसके अण अलग अलग होकर आकाश में रहते ही है। कयोंकि किसी दरवय का वसतता से अà¤à¤¾à¤µ नहीं होता है।
इससे वह दरवय दरगनध आदि दोषों का निवारण करने वाला अवशय होता है। फिर उससे वाय और वृषटि जल की शदधि के होने से हमारे घर का, हमारे परिवार का, हमारे गांव का, हमारे देश का और जगत का उपकार और सख अवशय होता है।
यजञ से परयावरण शदध होता है। वरषा होती है और हमारा अंत:करण à¤à¥€ पवितर होता है। यह विजञान दवारा सिदध है इस कारण से यजञ केवल हिनदूओं के लि ही नहीं किनत विशव के परतयेक मानव के लि है। चाहे वह हिनदू, मसलिम, सिख, ईसाई, जैन, यहदी और पारसी आदि हो इसलि सबके लि यजञ सबके घरों में सवयं दवारा करना अनिवारय है।
इससे हमारा अनत-करण à¤à¥€ पवितर होता है। और बदधि शदध व निरमल होती है। अत: हमारा अनत:करण और बदधि पवितर होने से हमारे à¤à¤¾à¤µ, हमारे करम à¤à¥€ हमारे विचार à¤à¥€ अचछे होते है। जिससे हमें शांति और आनंद मिलता है। यह कारय अनय किसी à¤à¥€ परकार से सिदध नहीं हो सकता है, कयोंकि अतर पषपादि का सगंध तो उसी दरगनध वाय में मिलकर रहता है। उसको छेदन करके बाहर नहीं निकाल सकता और ना ही वह ऊपर चढ़ सकता है। कयोंकि उसमें हलकापन नहीं होता उसके उसी अवकाश में रहने से बाहार का शदध वाय उस ठिकाने में जा à¤à¥€ नहीं सकता कयोंकि खाली जगत के बिना दूसरे का परवेश नहीं हो सकता।
फिर दरगनधयकत वाय को à¤à¥‡à¤¦à¤¨à¤•à¤° सगंधीत वाय के रहने से रोगनाशदि फल à¤à¥€ नहीं होते है और जब अगनि उस दरगनध यकत वाय को वहां से हलका करके निकाल देता है। तब वहा शदध वाय à¤à¥€ परवेश कर सकता है। इसी कारण यह फल यजञ से ही हो सकता है। अनय परकार से नहीं कयोंकि जो होम के परमाण यकत वाय है। सो पूरवसथित और मनषयादि सृषटि को उततम सख को परापत करता है। वह हमारा अनत:करण पवितर होता है। जो वाय सगंध आदि दरवय के परमाणओं से यकत या दवारा आकाश में चढ़कर वृषटि जल को शदध कर देता और उससे वृषटि à¤à¥€ अधिक होती है। कयोंकि यजञ करने से नीचे गरमी अधिक होने से जल à¤à¥€ ऊपर अधिक चढ़ता हैा शदध जल और वाय के दवारा अननादि औषधि à¤à¥€ अतयंत शदध होती है। से परतिदिन सगंध के अधिक होने से जगत में नितयपरति अधिक-अधिक सख बढ़ता है।
यह फल अगनि में यजञ करने के बिना दूसरे परकार से होना असंà¤à¤µ है। इससे सवयं दवारा यजञ (होम) का करना परतयेक घरों में, परतयेक परिवार में परतयेक गराम, में अनिवारय है।
यजञ (होम) केवल वेद मंतरों की ऋचाओं से ही किया जावे। कयोंकि ईशवर की परारथना पूरवक ही सब करमों का आरंठकरना होता है। सो वेद मंतरों के उचचारण से यजञ में तो उसकी परारथना सरवतर होती है। इसलि सब उततम करम वेद मंतरों से ही करना चाहि।
ALL COMMENTS (0)