तरपण वं शरादध


Author
Pradumn Varni AryaDate
08-Sep-2014Category
लेखLanguage
HindiTotal Views
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SaurabhUpload Date
19-Sep-2014Download PDF
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मातर 15 दिनों के लि कयों ?
जिस परकार संसार में सूरय उदय होकर सारे अनधकार को नषट कर परकाश फैलाता है। इस परकार इसी दःखी, आरत, वयकत, वं अविदया से गरसत इस आरय जाति के लि महानतम वेद रूपी विदया का परकाश लेकर महरषि दयाननद का उदà¤à¤µ हआ। जिस समय à¤à¤¾à¤°à¤¤ अपने à¤à¤¯à¤‚कर दरदिनों से पीडि़त मृत परायः हो रहा था। उस समय जञानरपी संजीवनी लेकर उस यग के निरमाता आधयातमिक वैदय बनकर उपसथित ह। और से à¤à¤¯à¤‚कर विषधर जो अपने विष के à¤à¤¯ से à¤à¥‹à¤²à¥€ जनता से यथेषट दगध पान कर रहे थे और अपने विष को बढ़ा रहे थे। यह उकति क तो विदेशी आकरांताओं की ओर इशारा करती है दूसरी ओर धरम के तथाकथित ठेकेदारों की ओर इशारा करती है। आज मैं उस ओर जाना नहीं चाहता केवल धरम में आ विकार की ओर आपका धयान चाहता हूं।
आज का विषय है “तरपण और शरादध” जिसका वासतविक वं उदातत चितरण महरषि दयाननद ने अपने गरनथ षपञच महा यजञ.विधिष में किया है। ऋषि ने पञचमहा यजञों का विधान परतयेक गृहसथ के लि किया है। जिनमें तृतीय: पितृमहा यजञ हैं। महरषि लिखते है. सितसय दवौ à¤à¥‡à¤¦à¥Œ सतः कसतरपणाखयो, दवितीयः शरादधखयशच। येन करमणा विदषो देवानृषीन पितृंशच तरपयनति सखयनति तत तरपणम। तथा “यजञेष शरधा सेवनं किरयते तत शरादध वेदितवयम।’’ अरथात पितृयजञ के दो à¤à¥‡à¤¦ हैं- क तरपण दूसरा शरादध। जिस करमों से विदवान रूप देव, ऋषि और पितरों पिता-माता- दादा-दादी-व अनय, को सख यकत करते हैं, उसे तरपण कहते हैं। उसी परकार जो उन लोगों का शरादध से सेवन करना है, सो शरादध कहलाता है। आगे ऋषि कहते है कि- ‘यह तरपणादि करम जो परतयकष विदयमान है उनहीं में घटता हैं, मृतकों में नहीं, कयोंकि उनकी परापति और उनका परतयकष होना दरलठहै। इसी से उनकी सेवा à¤à¥€ किसी परकार से नहीं हो सकती। पतरादिसदृशयों मातरादयः सेवयाः। पंच महायजञ विधि पितरादिकों के समान विदयासवà¤à¤¾à¤µ वाली सतरियों की à¤à¥€ अतयनत सेवा करनी चाहि। ऋषि ने पितृयजञ का महान आदरश परसतत किया उससे सà¤à¥€ निकृषट परमपरा परतयेक मनषय को तयागने योगय है परनत इसका परतिफल तो कछ ओर ही रहा है। मे शंका होती है कि- इस धारा में कहीं हम à¤à¥€ तो नहीं बह रहे है? यह आरय जाति के लि क जवलनत परशन à¤à¥€ है। कहीं दूसरे की थाली में खीर देखकर हमारा मन तो नहीं ललचाया? अथवा हमें सवयं की तरटिया दिखाई नहीं देती केवल दूसरों में दोष देखते हैं। यदि सा है तो सम लीजि की क बड़ा शतर हमारे à¤à¥€à¤¤à¤° ही छिपा बैठा है। कि हम मन की उन संकीरणताओं को दूर नही कर सके, जिसके लि ऋषिवर ने गर के क आदेश पर सरवसव बलिदान कर दिया। इसी बात का खेद है कि आज à¤à¥€ कछ परिवारों में दो किसतियों में पैर रख चलने का परयास किया जा रहा है। जो शरेषठनही है। यही कारण है कि आरय समाज की उननति की गति मनद हो रही है।
अतः हमें दृढ़ता पूरवक ऋषि के मनतवयों का पालन करना होगा यह परतिजञा आज ही करनी होगी। तà¤à¥€ तो आरयसमाज के सिदधानतों का परचार, परसार होगा तà¤à¥€ हम तरपण और शरादध की वासतविकता को समेंगे, और उसकी सारथकता को सिदध कर पांगे। जिससे राषटर में जञान की निरमल धारा बहेगी, सवरग आगा। हमारा तरपण और शरादध सफल होगा। इसका सबसे बड़ा उततरदायितव विदवानों पर है, कयोंकि कछ विदवान अचछी दकषिणा और खातिरदारी के सनदरठमें शरादध जैसी करियाओं को सवीकार कर लेते हैं, जहां क आदरशवाद अपना दम तोड़ देता है जैसा कि विदित हो कि- अरथ à¤à¥‡à¤¦ अजञानता में क सवारथी मनषय अपना ही नहीं समाज के पतन का कारण बन जाता है। बहत सी आधार हीन परमपराओं में से क है ‘तरपण और शराह’ यह करियाकिलाप à¤à¥€ धरम की चादर ओढ़कर बैठे पूजारी अपना सवारथ सिदध करने के लि अपनी आजीविका से जोड़ बैठे जिसका परिणाम समाज के लि बड़ा घातक सिदध हआ। अतः विदवानों, परोहितों वं आरय समाज के पदाधिकारी वं सदसयों को विशेष रप से सवयं पर नियनतरण रख इस परवाह को रोकना है। और अपने माता-पिता अतिथियों वं वृधो की सेवा में निरनतर ततपर रहकर उनहे शरादध पूरवक अपनी सेवा को संतषट करें शरेषठपरमपराओं को बढ़ां तà¤à¥€ हमारा तरपण और शरादध का वासतविक उददेशय पूरा होगा। न कि मातर 15 दिनों के लि ही यह करम किया जा। कयोंकि यह तो मनषय का जीवन परयनत करतवय है और यही वेद का आदरश है। जब हम दृढ़तापूरवक इन आरदशों का पालन करेंगे तà¤à¥€ तो क सरल, सनदर और वैदिक परमपरा बनेगी यदि हम आरय होकर सवयं ही इन सामाजिक शरेषठनीतियों का पालन नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा?
कैसे ये रूढि़ परमपरां बदलेगी। इसलि पहल तो करनी ही होगी हमें ही आगे आना होगा ‘तरपण और शरादध’ केवल 15 दिनों के लि ही नहीं हमारे जीवन का दैनिक à¤à¤¾à¤— बन जां, जयेषठों का आशीष और अनजों का परेम बनकर क धारा बहने लगें। घर सवरग बन जां बस यही तो चाहि। अतः सामाजिक सà¤à¥€ परमपराओं को वासतविक वं वेदोकतरप से ही मनाना अà¤à¥€à¤·à¤Ÿ है।
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