महाभारत काल के बाद देश-विदेश में सरवतर अजञान फैल गया था। शदध वैदिक धरम शदध न रह सका और उसमें अजञान, अनधविशवास, पाखणड, करीतियां आदि अनेक हानिकारक मत व बातें सममिलित हो गयीं। वेद के अनसार परतयेक मनषय को पंच-महायजञों का करना अनिवारय था। जिसमें परथम ईशवरोपासना तथा उसके पशचात दैनिक अगनिहोतर का विधान था। इस अगनिहोतर के विसतार-गोमेध, अजामेध, अशवमेध आदि अनेक यजञ थे। मधयकाल में विदवानों के वेद मनतरों के गलत अरथ व वयाखयाओं से यजञों में पशओं का वध होने लगा और उनके मांस से यजञों में आहतियां दी जाने लगीं। वेदों के अनसार हमारा समाज गण, करम व सवभावों के अनसार चार वरणों में विभकत था। महाभारत के पशचात मधयकाल में इन वरणों को गण-करम-सवभाव के आधार पर न मानकर जनम पर आधारित माना जाने लगा था। कालानतर में क वरण में ही जनम के आधार पर अनेक जातियों की रचना हई और लोग परसपर, जो वेदों के अनसार समान थे, उनमें छोटे-बड़े व ऊंच-नीच का भेदभाव उतपनन हो गया। सतरी व शूदरों को वेदों के अधययन से वंचित कर दिया गया। महाभारत से पूरव वैदिक काल में सबके लि अनिवारय गरूकल की शिकषा वयवसथा धवसत हो गई। महाभारत के बाद अपवाद सवरूप से कम ही उदाहरण होंगे जहां सभी वरणों के लोग आचारय से वेदों का अधययन कर पाते थे। सतरियों की शिकषा का कोई गरूकल या शिकषा केनदर तो सन 1825 व महरषि दयाननद के वेद परचार काल में देश व विदेश में कही असतितव में नहीं था। क परकार से गरूकल वयवसथा का धवसत होना और चार वरणों में समानता समापत होकर विषमता का उतपनन होना ही देश की पराधीनता और सभी अनधविशवासों व करीतियों का कारण था। से समय में कि जब सामाजिक असमानता चरम पर थी, यजञों में हितकारी निरदोष व मूक पशओं को मार कर खलकर हिंसा की जाती थी, उनके मांस से यजञ कि जाते थे और मांसाहार किया जाता था, तब भगवान बदध का आविरभाव हआ। उनहोंने पश हिंसा और सामाजिक असामनता का विरोध किया। उनहें बताया गया कि पश हिंसा का विधान वेदों में है। इस पर उनका उततर था कि से वेद जो पश हिंसा का विधान करते हैं, वह अमानय हैं। उनहें बताया गया कि वेदों की रचना तो साकषात ईशवर से हई है जिसने यह सारा संसार बनाया है, तो इस पर उनहोंने कहा कि मैं से ईशवर को भी नहीं मानता। भगवान बदध पूरण अहिंसक व शाकाहारी थे। पशओं की हिंसा और हतया से उनको महरषि दयाननद के समान आतमिक दःख होता था। वह मानव हितकारी अनेकानेक विषयों के धयान व चिनतन में संलगन रहते थे। लोगों को उनकी यह बातें पसनद आई। लोग उनके अनयायी बनने लगे। उनकी शिषय मणडली बढ़ती गई और उनके दवारा परचार से देश व विशव में उनके अनयायियों की संखया बहत अधिक हो गई। बौदध वं जैन मत ने ईशवर के असतितव व उसकी उपासना का तयाग कर दिया था। यह सतय का अपलाप था। सी सथिति का होना वेदानयायियों के लि चिनता का विषय बन गया।  इसकी क परतिकरिया यह हई कि बौदधों व जैनियों की देखा-देखी वेद मतानयायियों = आरयो में भी मूरति पूजा का परचलन हो गया। क के बाद क अनध विशवासों में वृदधि होती रही और अतीत का वैदिक धरम कालानतर में वेदों के विपरीत कछ वैदिक व कछ अवैदिक अथवा पौराणिक मानयताओं का मत बन कर रह गया।

यह सरव विदित है कि भगवान बदध और जैन मत के परवरतक सवामी महावीर ईशवर के असतितव को नहीं मानते थे जिसकी चरचा हमने उपरयकत पंकतियों में भी की है। उनहोंने-अपनी अपनी कलपना की और उसी पर उनका मत सथिर हआ। सा होने पर नासतिकता के बढ़ने व धरम-अरथ-काम व मोकष के बाधित होने से वैदिक मत के शभ चिनतक व उचच कोटि के ईशवर भकत विदवानों में चिनता का वातावरण बन गया। से समय में क दिवय परूष सवामी शंकराचारय जी का आविरभाव होता है। वह भारत के दकषिण परदेश में जनमें और उनहोंने अनेक वैदिक गरनथों का अधययन किया जिससे वह अपने समय के सबसे अधिक तारकिक विदवान तथा वेदानत, गीता व उपनिषदों के सबसे बड़े विदवान बने। उनहोंने जब बौदध मत व जैन मत के सिदधानतों का अधययन किया तो उनहें ईशवर के असतितव को न मानने का सिदधानत असतय व अनचित लगा। सतय का परचार व असतय का खणडन ही मनषयों का करतवय भी है और धरम भी। अतः इस धरम का पालन करने के लि उनहोंने तैयारी की। उनहोंने इन नासतिक मतो के खणडन के लि अदवैतवाद की विचारधारा को सवीकार किया जिसके अनसार संसार में केवल क चेतन सरवजञ, सरववयापक, निराकार ततव-पदारथ-सतता का ही असतितव है जिसे ईशवर-परमातमा आदि नामों से जाना जाता है। उनहोंने कहा कि हमें यह जो संसार दिखाई देता है वह हमारी बदधि के भरम के कारण दिखाई देता है जबकि उसका यथारथ या वासतविक असतितव है ही नहीं। उनहोंने वा उनके अनयायियों ने इसका क उदाहरण दिया कि जैसे रातरि के अनधेरे में वृकष पर लटकी हई रससी सांप परतीत होती है, से ही यह संसार हमें वासतविक परतीत हो रहा है जबकि इसका असतितव है ही नहीं। यह हमारा अजञान व भरम है। इसी परकार से उनहोंने सब पराणियों को ईशवर का ही अंश बताया और कहा कि इसका कारण अजञान है। अजञान जब दूर होगा तो जीव ईशवर में समाहित होकर उसमें लीन हो जायेगा अरथात मिल जायेगा और तब जीव वा जीवातमा का असतितव नहीं रहेगा।

हमने भगवान बदध व भगवान महावीर के ईशवर के असतितव को न मानने के सिदधानत की चरचा की है। सा उनहोंने ईशवर के बनाये या दिये गये जञान वेद व इनके नाम पर हिंसा के वयवहार के कारण किया था। हमें लगता है कि इसके लि यह आवशयक था कि वेद के नाम पर यजञों में जो हिंसा होती थी उसका खणडन किया जाता और वेदों का शदध सवरूप परसतत किया जाता। इसके साथ ही ईशवर को सृषटि, समसत पराणियों तथा वेद जञान का रचयिता सिदध किया जाता। परनत सा नहीं किया गया। यह तो कहा गया कि ईशवर का असतितव है और उसे तरकों से सिदध किया गया जिससे नासतिक मत पराभूत ह, परनत वेदों पर पशओं की हतया व हिंसा करने जो आरोप थे और जिस हिंसा की परेरणा ईशवर ने वेदों के दवारा की गई बताई जा रही थी, उनका खणडन व वेदों के सतय अरथों का परकाश व उनका मणडन नहीं किया गया। इस कारण ईशवर व वेदों पर हिंसा की परेरणा करने के आरोप सवामी शंकराचारय जी के शासतरारथ के बाद भी यथावत बने ही रहे। कया यह नहीं किया जाना था या इसकी कोई आवशयकता नहीं थी? हमें लगता है कि यह कारय अवशय किया जाना चाहिये था परनत सवामी शंकराचारय जी के अलपकालिक जीवन व अनय अनेक कारणों से समभवतः वह सा नहीं कर सके थे। हमने इसके लि अपने क मितर के साथ सवामी शंकराचारय जी के अनयायी, क उपदेशक विदवान से भी चरचा की। इससे हमें यह जञात हआ कि सवामी शंकराचारय जी ने यजञ में हिंसा उचित है या अनचित, इस भीषम परशन पर धयान नहीं दिया अरथात इसकी उपेकषा की। इसका परिणाम यह हआ कि यजञों के सतय सवरूप, उनका पूरणतः अंहिंसातमक होना, का परचार न हो सका और जो चल रहा था वह परायः चलता रहा या कछ कम हआ। इसी कारण वेदों का महतव भी सथापित न हो सका और उनका संरकषण व रकषा न हो सकी। सवामी दयाननद के जीवनकाल सन 1825-1883 तक आते-आते देश में वेदों की उपलबधि परायः विलपति व अपरापयता की सी हो गई थी जिसकी खोज महरषि दयाननद ने अपने अदभत बरहमचरय के तप, विदया व परूषारथ से की। यदि वह, वह न करते जो उनहोंने किया, तो हमें लगता है कि वेद सदा-सरवदा के लि विलपत व अपरापय हो जाते। आज हमें वेद व उनके मनतरों के सतय अरथ उपलबध हैं, वह महरषि दयाननद के तप व परूषारथ का परिणाम है और इसका पूरण शरेय उनहीं को है। मानव जाति के लि यह कारय इतना हितकारी हआ है कि जिसकी परंशसा के लि हमारे पास शबद नहीं हैं। यदि वह यह कारय न करते तो, सी अवसथा में, सब मत-मतानतरों की मनमानी चलती रहती। उनके दवारा वेदों की परमाणिक पाणडलिपियों की खोज, उनके पनरूदधार व सतय व यथारथ वेदारथ अथवा वेद भाषय से लोगों को ईशवर के सतय सवरूप का जञान हआ और साथ ही जीवातमा, कारण परकृति व कारय परकृति के भेद व अनतर का पता भी चला। महरषि दयाननद परदतत यह तरैतवाद का सिदधानत ही वासतविक, यथारथ, सतय व निभररानत सिदधानत है। महरषि दयाननद दवारा कि गये वेदों के भाषय, वैदिक रहसयों के उदघाटन व सिदधानतों वं मानयताओं के परकाशन से सभी मत-मतानतरों में मिशरित असतय, अजञान व मिथया मानयताओं व सिदधानतों का जञान समाज में उदघाटित हआ। हम समते हैं कि यह महरषि दयाननद की संसार को बहमूलय व दरलभ देन है। इसके लि महरषि दयाननद विशव समदाय की ओर से अभिननदनीय है।

इस लेख में हम यह कहना चाहते हैं कि सवामी शंकराचारय जी ने नासतिकता का खणडन किया और ईशवर के असतितव व सवरूप का अपनी विचारधारा के आधार पर मणडन किया। देश, काल व परिसथितियों के अनरूप उनका यह कारय बहत सराहनीय था। इसके अतिरिकत ईशवर व वेदों पर पश हतया की परेरणा देने और पश के मांस से यजञ करने का जो मिथया दोष, यजञकरताओं के मिथयाजञान व सवेचछाचारिता के कारण, लगा था, उसका परिमारजन सवामीजी शंकराचारय जी ने नहीं किया। समभवतः इसी कारण वेदों का समचित संरकषण भी उनके व बाद के समय में नहीं हो सका। वेदों पर लगाये गये वेदेतर मतावलमबियों के मिथया अनेक दोषों का खणडन, वेदों के सतय अरथों का परकाशन व वेदों के ईशवर से उतपनन, हल काल में इनके परासंगिक, उपयोगी व अपरिहारय होने का मणडन महरषि दयाननद सरसवती ने अपने जीवन काल में किया जिसके लि वह सरवतोभावेन परंशसा व अभिननदन के पातर है। उनहोंने न केवल वेदों का पनरूदधार ही किया अपित वेद मनतरों के सतय अरथों को परकाशित कर हमें परदान किया। उनहोंने विशव के सभी मनषयों को उनके वेदारथों की परीकषा करने की वयाकरण की आरष परणाली, अषटाधयायी-महाभाषय-निरूकत पदधति भी हमें परदान की है, जिसके लि सारी मानवजाति इस सृषटि के परलय होने तक उनकी कृतजञ रहेगी। आज यदि सवामी शंकराचारय जी होते तो वह निषपकष व नयाय के पकषधर होने के कारण महरषि दयाननद के कारयों के सबसे बड़े परशंसक होते। इनहीं शबदों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

ALL COMMENTS (0)