सवामी शरदधाननद जी का हिंदी परेम


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Dr. Vivek AryaDate
26-Sep-2014Category
संसà¥à¤®à¤°à¤£Language
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SaurabhUpload Date
29-Sep-2014Download PDF
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सवामी शरदधाननद जी के महाराज के हिंदी परेम जगजाहिर था। आप जीवन à¤à¤° à¤à¥€ दयानंद के इस विचार को की समपूरण देश को हिंदी à¤à¤¾à¤·à¤¾ के माधयम से क सूतर में पिरोया जा सकता हैं सारथक रूप से करियानवित करने में अगरसर रहे। सà¤à¥€ जानते हैं की सवामी जी ने कैसे क रात में उरदू में निकलने वाले सदधरम परचारक अख़बार को हिंदी में निकालना आरमठकर दिया था जबकि सà¤à¥€ ने उनहें समाया की हिंदी को लोग à¤à¥€ पना नहीं जानते और अख़बार को घाटा होगा। मगर वह नहीं माने। अख़बार को घाटे में चलाया मगर सदधरम परचारक को पने के लि अनेक लोगों ने विशेषकर उततर à¤à¤¾à¤°à¤¤ में देवनागरी लिपि को सीखा। यह सवामी जी ने तप और संघरष का परिणाम था।
सवामी जी दवारा 1913 में à¤à¤¾à¤—लपर में ह हिंदी सहितय सममेलन में अधयकष पद से जो à¤à¤¾à¤·à¤£ दिया गया था उसमें उनका हिंदी परेम सपषट लकता था। सवामी जी लिखते हैं मैं सन 1911 में दिलली के शाही दरबार में सदधरम परचारक के संपादक के अधिकार से शामिल हआ था। मैंने परेस कैंप में ही डेरा डाला था। मदरास के क मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से क दिन मेरी बातचीत हई। उन सजजन का आगरह था कि अंगरेजी ही हमारी राषटरà¤à¤¾à¤·à¤¾ बन सकती हैं। अंगरेजी ने ही इनडिन नेशनल कांगरेस को संà¤à¤µ बनायाहैं, इसीलि उसी को राषटरà¤à¤¾à¤·à¤¾ बनाना चाहि। जब मैंने संसकृत की जयेषठपतरी आरयà¤à¤¾à¤·à¤¾ (हिंदी) का नाम लिया तो उनहोंने मेरी सम पर हैरानी परकट की। उनहोंने कहा कि कौन शिकषित परष आपकी बात मानेगा? दूसरे दिन वे कहार को à¤à¤‚गी सम कर अपनी अंगरेजीनमा तमिल में उसे सफाई करने की आजञा दे रहे थे। कहार कà¤à¥€ लोटा लाता कà¤à¥€ उनकी धोती की तरफ दौड़ता। उसकी सम में कछ नहीं आ रहा था। मिसटर डिटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गजरा। वे à¤à¤¾à¤—ते ह मेरे पास आये और बोले "यह मरख मेरी बात नहीं समता" इसे समा दीजिये की जलदी से शौचालय साफ़ कर दे। मैंने हंसकर कहा - "अपनी पयारी राषटरà¤à¤¾à¤·à¤¾ में ही समाइ।" इस पर वे शरमिंदा ह। मैंने कहार को मेहतर बलाने के लि à¤à¥‡à¤œ दिया। किनत डिटर महोदय ने इसके बाद मसे आंख नहीं मिलाई। à¤à¤¾à¤—लपर आते ह मैं लखनऊ रका था। वहां शरीमान जेमस मेसटन के यहा मेरी डॉ फिशर से à¤à¥‡à¤‚ट हई थी। वे बड़े परसिदद शिकषाविद और कैंबरिज विशवविदयालय के वाइस चांसलर हैं, à¤à¤¾à¤°à¤¤à¤µà¤°à¤· में पबलिक सरविस कमीशन के सदसय बनकर आये थे। उनहोंने कहां कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ विदयारथियों को पाया हैं। वे कठिन से कठिन विषय में अंगरेज विदयारथियों का मकाबला कर सकते हैं, परनत सवतंतर विचार शकति उनमें नहीं हैं। उनहोंने मसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा की यदि आप मेरे गरकल चले तो इसका कारण परतयकष दिखा सकता हू, कहने से कया लाà¤? जब तक शिकषा का माधयम मातृà¤à¤¾à¤·à¤¾ नहीं होगी, तब तक इस अà¤à¤¾à¤—े देश के छातरों में सवतंतर और मौलिक चिंतनकी शकति कैसे पैदा होगी ?
(100 वरष पहले दि ग विचार आज à¤à¥€ कितने परसांगिक और यथारथ हैं पाठक सवयं अवगत हैं )
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