हमारे देश के कुछ मुस्लिम भाई बहकावे में आकर वन्दे मातरम गान का बहिष्कार कर देते हैं। उनका कहना है कि वन्दे मातरम का गान करना इस्लाम की मान्यताओं के खिलाफ है। दुनिया में शायद भारत ही ऐसा पहला देश होगा जिसमें राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान अलग अलग हैं। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहन देने के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर राष्ट्रगीत के अपमान को कुछ लोग आंख बंदकर स्वीकार कर लेते है।
 
भारत जैसे विशाल देश को हजारों वर्षों की गुलामी के बाद आजादी के दर्शन हुए थे। वन्दे मातरम वह गीत है, जिससे सदियों से सुप्त भारत देश जग उठा और अर्ध शताब्दी तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा। इस गीत के कारण बंग-भंग के विरोध की लहर बंगाल की खाड़ी से उठ कर इंग्लिश चैनल को पार करती हुई ब्रिटिश संसद तक गूंजा आई थी। जो गीत गंगा की तरह पवित्र , स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य है। उस गीत का तुष्टिकरण की भेंट चढ़ाना, राष्ट्रीयता का परिहास ही तो है। जबकि इतिहास इस बात का गवाह है कि भारत का विभाजन इसी तुष्टिकरण के कारण हुआ था। इस लेख के माध्यम से हम वन्दे मातरम के इतिहास को समझने का प्रयास करेगे।
 
1. वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र
 
बहुत कम लोग यह जानते हैं की वन्दे मातरम के रचियता बंकिम बाबु का परिवार अंग्रेज भगत था। यहाँ तक की उनके पैतृक गृह के आगे एक सिंह की मूर्ति बनी हुई थी। जिसकी पूँछ को दो बन्दर खिंच रहे थे, पर कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। यह सिंह ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीक था। जबकि बन्दर भारतवासी थे। ऐसी मानसिकता वाले घर में बंकिम जैसे राष्ट्रभक्त का पैदा होना। निश्चित रूप से उस समय की क्रांतिकारी विचारधारा का प्रभाव कहा जायेगा। आनंद मठ में बंकिम बाबु ने वन्देमातरम गीत को प्रकाशित किया। आनंद मठ बंगाल में नई क्रांति के सूत्रपात के रूप में उभरा था।
 
2. वन्दे मातरम और कांग्रेस
 
कांग्रेस की स्थापना के द्वितीय वर्ष 1886 में ही कोलकाता अधिवेशन के मंच से कविवर हेमचन्द्र द्वारा वन्दे मातरम के कुछ अंश मंच से गाये गए थे। 1896 में कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा गाया गया था। लोकमान्य तिलक को वन्दे मातरम में इतनी श्रद्धा थी कि शिवाजी की समाधी के तोरण पर उन्होंने इसे उत्कीर्ण करवाया था। 1901 के बाद से कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वन्दे मातरम गाया जाने लगा।
 
6 अगस्त 1905 को बंग भंग के विरोध में टाउन हॉल में सभा हुई। सभा में वन्दे मातरम को विरोध के रूप में करीब तीस हज़ार भारतीयों द्वारा गाया गया था। स्थान स्थान पर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी कपड़ा और अन्य वस्तुओं का उपयोग भारतीय जनमानस द्वारा किया जाने लगा।यहाँ तक की बंग भंग के बाद वन्दे मातरम संप्रदाय की स्थापना भी हो गई थी। वन्दे मातरम की स्वरलिपि रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने दी थी।
 
3. राष्ट्र कवि/लेखक और वन्दे मातरम
 
राष्ट्रीय कवियों और लेखकों द्वारा अनेक रचनाएँ वन्दे मातरम को प्रसिद्द करने के लिए रची गई जो उसके महत्व की सिद्ध करती हैं।
 
स्वदेशी आन्दोलन चाई आत्मदान
 
वन्दे मातरम गाओ रे भाई – श्री सतीश चन्द्र
 
मागो जाय जेन जीवन चले
 
शुधु जगत माझे तोमार काजे
 
वन्दे मातरम बले- श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद
 
भइया देश का यह क्या हाल
 
खाक मिटटी जौहर होती सब
 
जौहर हैं जंजाल बोलो वन्दे मातरम-श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद
 
अक्टूबर 1905 में ‘वसुधा’ में जितेंदर मोहम बनर्जी ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।
 
1906 के चैत्र मास के बम्बई के ‘बिहारी अखबार’ में वीर सावरकर ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।
 
22 अप्रैल को मराठा में ‘तिलक महोदय’ ने वन्दे मातरम पर ‘शोउटिंग ऑफ़ वन्दे मातरम’ के नाम से लेख लिखा था।
 
कुछ ईसाई लेखक वन्दे मातरम की प्रसिद्धि से जलभून कर उसके विरुद्ध अपनी लेखनी चलाते हैं जैसे
 
पिअरसन महोदय ने तो यहाँ तक लिख दिया कि मातृभूमि की कल्पना ही हिन्दू विचारधारा के प्रतिकूल है। बंकिम महोदय ने इसे यूरोपियन संस्कृति से प्राप्त किया है।
 
अपनी जन्म भूमि को माता या जननी कहने की गरिमा तो भारत वर्ष में उस काल से स्थापित है। जब धरती पर ईसाइयत या इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था।
 
वेदों में इस तथ्य को इस प्रकार ग्रहण किया गया हैं –
 
वह माता भूमि मुझ पुत्र के लिए पय यानि दूध आदि पुष्टि प्रद पदार्थ प्रदान करे। – अथर्ववेद १२/१/२०
 
भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। – अथर्ववेद १२-१-१५
 
वाल्मीकि रामायण में “जननी जन्मभूमि ” को स्वर्ग के समान तुल्य कहा गया है।
 
ईसाई मिशनरियों ने तो यहाँ तक कह डाला कि वन्दे मातरम राजनैतिक डकैतों का गीत हैं।
 
4. वन्दे मातरम और बंगाल में कहर
 
बंगाल की अंग्रेजी सरकार ने कुख्यात सर्कुलर जारी किया कि अगर कोई छात्र स्वदेशी सभा में भाग लेगा अथवा वन्दे मातरम का नारा लगाएगा। तो उसे स्कूल से निकाल दिया जायेगा।
 
बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के सभी 200 छात्रों पर वन्दे मातरम का नारा लगाने के लिए 5-5 रुपये का दंड किया गया था।
 
पूरे बंगाल में वन्दे मातरम के नाम की क्रांति स्थापित हो गई थी। इस संस्था से जुड़े लोग हर रविवार को वन्दे मातरम गाते हुए चन्दा एकत्र करते थे। उनके साथ रविन्द्र नाथ टैगोर भी होते थे। यह जुलुस इतना बड़ा हो गया कि इसकी संख्या हजारों तक पहुँच गई थी। 16 अक्टूबर 1906 को बंग भंग विरोध दिवस बनाने का फैसला किया गया था। उस दिन कोई भी बंगाली अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा। ऐसा निश्चय किया गया। बंग भंग के विरोध में सभा हुई और यह निश्चय किया गया की जब तक चूँकि सरकार बंगाल की एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है। इसके विरोध में हर बंगाली विदेशी सामान का बहिष्कार करेगा। हर किसी की जबान पर वन्दे मातरम का नारा था। चाहे वह हिन्दू हो, चाहे मुस्लिम हो, चाहे ईसाई हो।
 
वन्दे मातरम से आम जनता को कितना प्रेम हो गया था। इसका उदहारण हम इस प्रसंग से समझ सकते है। किसी गाँव में, जो ढाका जिले के अंतर्गत था, एक आदमी गया और कहने लगा कि मैं नवाब सलीमुल्लाह का आदमी हूँ। इसके बाद वन्दे मातरम गाने वाले और नारे लगाने वालो की निंदा करने लगा। इतना सुनते ही पास की एक झोपड़ी से एक बुढ़िया झाड़ू लेकर बाहर आई और बोली वन्दे मातरम गाने वाले लड़को ने मुझे बचाया हैं। वे सब राजा बेटा है। उस वक्त तेरा नवाब कहाँ था?
 
5. फूलर के असफल प्रयास
 
फूलर उस समय बंगाल का गवर्नर बना। वह अत्यन्त छोटी सोच वाला व्यक्ति था। उसने कहा कि मेरी दो बीवी हैं। एक हिन्दू और दूसरी मुस्लिम। मुझे दूसरी ज्यादा प्रिय है। फुलर का उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना था। फुलर के इस घटिया बयान के विपक्ष में क्रान्तिकारी और कवि अश्वनी कुमार दत ने अपनी कविता में लिखा-
 
“आओ हे भारतवासी! आओ, हम सब मिलकर भारत माता के चरणों में प्रणाम करें। आओ! मुसलमान भाइयों, आज जाती-पाती का झगड़ा नहीं है। इस कार्य में हम सब भाई भाई है।इस धुल में तुम्हारे अकबर है और हमारे राम है।”
 
फूलर ने बंगाल के मुस्लिम जमींदारों को भड़का कर दंगा करवाने का प्रयास किया पर उसके प्रयास सफल न हुए।
 
अंग्रेज सरकार के मन में वन्दे मातरम को लेकर कितना असंतोष था कि उन्होंने सभी विद्यालाओं को सरकारी आदेश जारी किया। सभी छात्र अपनी अपनी नोटबुक में 500 बार यह लिखे कि “वन्दे मातरम चिल्लाने में अपना समय नष्ट करना मुर्खता और अभद्रता हैं। ”
 
6. वारिसाल में कांग्रेस का अधिवेशन और वन्दे मातरम
 
14 अप्रैल 1906 के दिन वारिसाल में कांग्रेस के जुलुस में वन्दे मातरम का नारा लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। शांतिपूर्वक निकल रहे जुलुस पर पुल<

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