मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के कर्मों को करते रहता है परन्तु उन समस्त कर्मों को ऋषियों ने सबसे पहले दो भागों में बाँट दिया है एक है सकाम कर्म और दूसरा है निष्काम कर्म । निष्काम कर्म केवल योगी लोग ही कर सकते हैं जिसमें कि समस्त लौकिक फलों की कामना से रहित होकर कर्म करना होता है । योगियों को छोड़कर अन्य समस्त लोग तीन एषणाओं से युक्त होकर ही सब कर्मों को करते हैं, सांसारिक व्यक्ति बिना लौकिक कामनाओं के कोई भी कार्य नहीं करता अतः निष्काम कर्म सामान्य व्यक्तियों के द्वारा करने योग्य नहीं होता है और सकाम कर्म तीन प्रकार के विभागों में विभक्त कर दिया है जिसको कि प्रत्येक व्यक्ति करता है, एक शुभ कर्म, दूसरा अशुभ कर्म और तीसरा मिश्रित कर्म ।

मनुष्य बहुत सारे कर्म बिना सोचे समझे वैसे ही करते जाता है, उसमें पुण्य हो रहा है या फिर पाप, मैं शुभ कार्यों को कर रहा हूँ या फिर अशुभ बिना निर्णय किये, बिना उसके परिणाम को जाने-समझे अनायास ही करते जाता है । हम कोई भी कर्म करें सबसे पहले विचार अवश्य करना ही चाहिये कि कैसा कर्म मैं कर रहा हूँ, इसके परिणाम कैसे होंगे, उसके प्रभाव कैसे होंगे, उसके फल कैसे प्राप्त होंगे आदि, क्योंकि मनुष्य उसको कहा जाता है जो विचार करके, चिंतन-मनन करके ही समस्त कर्मों को करता है । कर्म करने से पहले, कर्म करने के समय में और कर्म करने के बाद यह अवश्य देखना चाहिये, निरिक्षण करना चाहिए कि कर्म किस प्रकार के हैं ? उसके परिणाम व्यक्तिगत कैसे होंगे, सामाजिक परिणाम किस प्रकार होगा, यह सब कुछ जो व्यक्ति विचार करके ही करता है तो उसके सब कर्म अच्छे ही होते हैं । जो व्यक्ति इस प्रकार विचार नहीं करता वह अवश्य पुण्य के स्थान पर पाप कर बैठेगा ।

वास्तव में देखा जाये तो पाप कर्म के मुख्य कारण अज्ञान या अविद्या ही है, परन्तु वेदों में इन पाप कर्मों के कारणों का कुछ और ही रूप में उल्लेख किया गया है । ऋग्वेद में पाप कर्मों के पांच कारण गिनाये गए हैं, जैसे कि नियति, सुरा, क्रोध, द्युत, और अज्ञान। इन सब बिन्दुओं के ऊपर कुछ विचार करते हैं ।

नियति - नियति का अर्थ होता है प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्म में हमने जो कुछ भी पूण्य या पाप कर्म किये होते हैं उन कर्मों के आधार पर ही ईश्वर हमारे वर्त्तमान जन्म में फल निर्धारित कर देते हैं जो कि जन्म होते ही प्राप्त हो जाते हैं, उसी को ही प्रारब्ध कहा जाता है । इस प्रारब्ध से हमारे उस प्रकार के कुछ संस्कार भी बन जाते हैं और उन्हीं संस्कारों से हम प्रेरित होकर पुनः पुनः उन्हीं कर्मों को करते जाते हैं । यदि पाप कर्म के संस्कार हैं तो पाप कर्मों के प्रति हम बार-बार प्रेरित होकर पाप ही करते जाते हैं ।
सुरा - सुरा अर्थात् मदिरा अथवा शराब । इससे हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और निर्णय करने की क्षमता भी नष्ट हो जाती है फिर पाप या पुण्य का विचार किये बिना ही हम पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं ।
क्रोध - इसी प्रकार क्रोध से भी हमारी बुद्धि विकृत हो जाती है । सही-गलत का निर्णय किये बिना ही गलत कार्यों को करते जाते हैं । योग दर्शन में भी कहा गया है कि हम हिंसा लोभ पूर्वक, मोह पूर्वक और क्रोध पूर्वक करते हैं । क्रोध में आकर हम अधिकतर दूसरों की हानि ही करते हैं और पाप अर्जित करते जाते हैं ।
द्युत - द्युत अर्थात् जुआ खेलना जो कि सर्वनाश का कारन है । इसका प्रमुख उदहारण हम महाभारत में देख सकते हैं । जुआ में जब व्यक्ति हार जाता है तो वह फिर किसी भी रूप में धन प्राप्त करना चाहता है चाहे उसको चोरी करनी पड़े, इस प्रकार व्यक्ति पाप अर्जित कर लेता है ।
अज्ञान - समस्त पाप कर्मों का प्रमुख कारण तो यही अज्ञानता या अविद्या ही है । व्यक्ति इसी अज्ञानता के कारण सभी पाप कर्मों को भी अच्छा या पुण्य कर्म मान लेता है और पाप कर्मों में डूबा रहता है जिसके फल स्वरुप उसको अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होते रहते हैं और उसकी स्वयं की तथा अन्य लोगों की भी हानि होती रहती है ।
जब हम इन कारणों को जान लेते हैं और इन्हीं कारणों को दूर कर लेते हैं तो फिर पाप कर्मों से और उनके फल रूप दुःख से भी बाख जाते हैं क्योंकि कारण के नष्ट होने से कार्य भी नष्ट हो जाता है । इसी नियम को अच्छी प्रकार समझ कर हमें सदा यह प्रयत्न करते रहना चाहिए कि इनमें से कोई भी कारण हमारे जीवन में विद्यमान ही न हों तो फिर हमारे जीवन में पाप कर्म ही नहीं होंगे और यदि पाप कर्म ही हम नहीं करेंगे तो सदा दुःख से रहित सुख से ही युक्त रहेंगे । अतः सदा सुखी रहने का यही उपाय है ।

लेख - आचार्य नवीन केवली

 

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