ईश्वर के सभी मनुष्यों व प्राणियों पर अनेक उपकार हैं। मनुष्य के पास बुद्धि है जिससे वह ईश्वर के उपकारों को जानता है। जब भी कोई मनुष्य किसी पर उपकार करता है तो उपकृत मनुष्य उपकार करने वाले का कृतज्ञ होकर उसका धन्यवाद करता है। उपकृत होने व धन्यवाद करने से अहंकार में कमी आती है और सज्जन पुरुष ऐसा करके अहंकार से मुक्त भी होते हैं। हमें भी ईश्वर के उपकारों के लिये उसका धन्यवाद करना है। हमारा शरीर ईश्वर का हमें व हमारी आत्मा को दिया गया सर्वोत्तम पुरस्कार है। इस शरीर से ही हम देखने, सुनने, चखने, बोलने, प्राण वायु लेने व छोड़ने, स्पर्श करने आदि का लाभ व आनन्द प्राप्त करते हैं। हमारे प्राण निरन्तर चल रहे हैं। मृत्यु पर्यन्त ईश्वर इनको चलाता रहेगा। सभी इन्द्रियां भी रात व दिन काम करती हैं। अतः हमें भी अधिक से अधिक समय तक ईश्वर का ध्यान करते हुए उसका गुणगान व स्तुति सहित धन्यवाद करना चाहिये। इसे भली प्रकार से कैसे किया जा सकता है, इसके लिये ऋषि दयानन्द जी ने उपासना की विधि ‘सन्ध्या’ की रचना की है। यह संध्या मनुष्य व गृहस्थियों के लिये किये जाने वाले पंच-महापुण्य कार्यों में प्रथम स्थान पर है। सन्ध्या का अर्थ होता है ईश्वर का भलीभांति ध्यान करना। जब हम ध्यान करते हैं तो ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव तथा स्वरूप को अपने ध्यान व भावनाओं में लाते हैं और उसकी स्तुति करते हुए उससे प्रार्थना करते हैं। इससे यह भी अनुमान होता है कि हम ईश्वर की जो स्तुति करते हैं उसका एक प्रमुख कारण उससे प्रार्थना के द्वारा उत्तम उत्तम वस्तुओं को मांगना व प्राप्त करना है।

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का ध्यान करने हेतु सन्ध्या की जो विधि लिखी है वह संसार में प्रचलित सभी पूजा व उपासना पद्धतियों से श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। सन्ध्या में सबसे पहले आचमन का विधान किया गया है जिसमें हम अपनी दायें हाथ की अजंलि में जल लेकर उसका तीन बार पान करते हैं। इसमें मन्त्र बोलकर कहा जाता है कि सबका प्रकाशक और सबको आनन्द देनेवाला सर्वव्यापक ईश्वर मनोवांछित आनन्द अर्थात् सुख समृद्धि के लिये और पूर्णानन्द अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिये हमारा कल्याण करे। परमेश्वर हम पर सब ओर से सर्वदा सुख की वर्षा करे। इसके बाद जल से इन्द्रिय स्पर्श का विधान किया गया है जिसका प्रयोजन यह है कि हमारी सभी इन्द्रियां व शरीर निरोग, स्वस्थ एवं बलवान रहें जिससे हम ईश्वर की उपासना तथा अन्य सांसारिक कार्य कर सकें। शरीर व इसके सभी अंग प्रत्यंगों की पवित्रता सम्पादित करने के लिये इसके बाद मार्जन मन्त्रों का विधान है। मनुष्य को प्राणायाम से मन को वश में करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। प्राणायाम से शरीर भी व्याधियों से रहित होता है। अतः मन को वश में करके उसे ईश्वर के ध्यान में लगाने के लिये प्राणायाम के मन्त्र व वचन बोले जाते हैं। सन्ध्या करने से पूर्व हमें अपने जीवन पर भी दृष्टि डालनी होती है। यह देखना होता है कि हमसे जाने अनजानें में कोई पाप तो नहीं होता है। यदि होता हो तो उसे छोड़ना होता है। ऋग्वेद के तीन मन्त्रों को बोल कर ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था का ध्यान कर हम पाप न करने की प्रतिज्ञा करते हैं। यदि हम पाप करना नहीं छोड़ेंगे तो सन्ध्या करने का कोई विशेष लाभ नहीं होगां। इसके बाद पुनः आचमन मन्त्र बोल कर तीन आचमन करने का विधान किया गया है।

अब मनसा परिक्रमा करते हुए हम ईश्वर को 6 दिशाओं में विद्यमान अनुभव कर उसको नमन करते हैं। सभी मनुष्यों व प्राणियों के प्रति अपनी द्वेष भावना का त्याग करते हैं और दूसरे प्राणी हमसे जो द्वेष करते हैं उसे ईश्वर की न्याय व्यवस्था में प्रस्तुत कर देते हैं। अब यदि कोई हमसे द्वेष करेगा तो ईश्वर उसका न्याय करेगा और हमारी रक्षा करेगा। ऐसा देखा गया है कि यदि हम किसी सामान्य शत्रु के प्रति अपने द्वेष भाव को छोड़ देते हैं तो वह भी हमसे द्वेष करना छोड़ देता है। पशु व पक्षी भी हमारी भावनाओं को समझते हैं और यदि हम उनसे प्रेम करते हैं तो अधिकांश पशु आदि प्राणी उसका उत्तर प्रेम से ही हमें देते हैं। सन्ध्या में हमें ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की याचना करनी है। इसके लिये यह आवश्यक हैं कि हम सभी प्राणियों के प्रति पूर्णरूपेण द्वेष से मुक्त हों।

मनसा परिक्रमा के मन्त्रों का पाठ करने व अपने मन से सभी प्राणियों के प्रति अपने द्वेष छोड़ कर हम उपस्थान मन्त्रों का उच्चारण करते हैं व मन्त्र के अर्थों के अनुरूप अपनी भावनायें बनाते हैं। गायत्री मन्त्र सहित उपस्थान के पांच मन्त्र हैं। आर्यसमाज के सभी मित्र इन मन्त्रों को जानते हैं। हमारे अन्य मित्र भी पंचमहायज्ञ विधि का पुस्तक प्राप्त कर इनके अनुसार सन्ध्या करके लाभ प्राप्त कर सकते हैं। हम विस्तार भय से यहां मन्त्रों का उल्लेख न कर इन मन्त्रों का भावार्थ दे रहे हैं। पहले मन्त्र का अर्थ है ‘हम अन्धकार से दूर, प्रकाशस्वरूप, प्रलय के पश्चात् भी विद्यमान रहने वाले, दिव्य गुणों से युक्त, चराचर के आत्मा, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वर को सर्वत्र देखते हुए व उसकी सर्वव्यापकता का अनुभव करते हुए ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ वेदों के ज्ञान को प्राप्त होवें।’ दूसरे मन्त्र का अर्थ है ‘निश्चय ही ईश्वर उत्कृष्ट है, वह चार वेदों का दाता है, ज्ञानस्वरूप ईश्वर को हमें दिखाने के लिये संसार के सभी पदार्थ उसकी पताका व झण्डी के समान है अर्थात् यह हमें इन पदार्थों के रचयिता ईश्वर का पता दे रहे हैं। मानों ये पदार्थ कह रहे हों कि हम स्वयं नहीं बने, हमें ईश्वर ने बनाया है। तुम हमारी रचना को देखों और ईश्वर को जानों। ऐसे सभी पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल, नदी, पर्वत, वन, अन्न आदि हमें इन पदार्थों के रचयिता ईश्वर की प्रतीती करा रहे हैं। इस भाव को आत्मसात कर हम सच्चे आस्तिक बनें, यह मन्त्र का रहस्य व अभिप्राय प्रतीत होता है।’ उपस्थान के तीसरे मन्त्र में हम ईश्वर का अनुभव करते हुए उसका स्मरण व ध्यान करते हैं। हम कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों का विचित्र बल है। वह अग्नि, वायु और जल आदि पदार्थों का प्रकाशक है। वह द्युलोक, भूमि तथा आकाश को धारण किये हुए है। वही अन्तर्यामी ईश्वर चराचर जगत् का उत्पत्तिकर्ता व स्वामी है। इसके बाद अगला मन्त्र बोलकर हम मन्त्र के अर्थ पर विचार करते हैं। मन्त्र कहता है कि ईश्वर सर्वद्रष्टा, उपासकों का हितकारी तथा परम पवित्र है। वह इस सृष्टि के बनने से पहले से विद्यमान है और अनन्त काल तक रहेगा। उस महान ईश्वर की कृपा से हम सौ वर्षों तक अपनी आंखों को रोगरहित व स्वस्थ रखते हुए देंखे, सौ वर्ष तक जीवित रहें, हमारे कानों की श्रवण शक्ति सौ वर्ष तक बनी रहे, हमारी जिह्वा व वाणी भी सौ वर्षों तक पूर्ण स्वस्थ रहे और हम वाणी के सभी व्यवहार भली प्रकार से कर सकें। हम सौ वर्षों तक पूर्णतः स्वतन्त्र रहें तथा किसी दूसरे पर आश्रित न हों। सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी परमेश्वर की कृपा से हम सौ वर्षों के बाद भी पूर्ण स्वस्थ व स्वतन्त्र रहें।

इसके बाद गायत्री मन्त्र का उच्चारण कर हम मन्त्र के अर्थ पर विचार करते हैं। गायत्री मन्त्र का अर्थ है कि ओ३म् नामी ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण है, वह दुःख विनाशक और सुखस्वरूप है। उस सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के ग्रहण करने योग्य विशुद्ध तेज व गुणों को हम धारण करें। वह परमेश्वर हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में चलने व आचरण की प्रेरणा करें। गायत्री मन्त्र के बाद समर्पण का मन्त्र बोला जाता है जिसका अर्थ है ‘हे दयानिधे ईश्वर! आपकी कृपा से जप व उपासना आदि कर्मों को कऱके हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होंवे।’ हम दैनन्दिन अनेक कर्म करते हैं। इन कर्मों में जप व उपासना अर्थात् सन्ध्या व यज्ञ आदि का करना भी आवश्यक है। यदि ऐसा करेंगे तो हम धार्मिक बनेंगे, हमें सात्विक अर्थ की प्राप्ति होगी, हमारी सभी कामनायें व इच्छायें पवित्र होंगी व पूर्ण होंगी तथा इसके साथ ही मृत्यु होने पर हमें मोक्ष की प्राप्त होगी। इसी उद्देश्य के लिये हम सन्ध्या करते हैं। इसके बाद हम ईश्वर को नमस्कार करते हैं। इसके लिये नमस्तकार मन्त्र का उच्चारण कर उसकी भावना को अपने मन में बनाकर हमारी सन्ध्या पूर्ण हो जाती है। सन्ध्या के बाद हम वेद व वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं जिससे हमारा भावी जीवन अज्ञान से रहित तथा ज्ञान से सन्निहित हो।

सन्ध्या को हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित ध्यान का एक अनुष्ठान कह सकते हैं। स्तुति के विषय में ऋषि दयानन्द जी ने लिखा है कि स्तुति ईश्वर का गुण कीर्तन, श्रवण और ज्ञान होना है। इसका फल ईश्वर से प्रीति आदि होते हैं। प्रार्थना के विषय वह लिखते हैं कि अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान होना आदि होता है। उपासना क्या है? इस विषयक ऋषि दयानन्द का कथन है कि जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना उपासना कहाती है। इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि हैं। सन्ध्या एक ओर जहां ईश्वर के उपकारों के प्रति धन्यवाद करना है वहीं इससे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। अतः हम सबको पूरी निष्ठा व विश्वास से नित्य प्रति सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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