महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में लिखा है कि सब जीव स्वभाव से सुख प्राप्ति की इच्छा और दुःख का वियोग होना चाहते हैं परन्तु जब तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते तब तक उन को सुख का मिलना और दु‘ख का छूटना नहीं होता। उनका कहना है कि सुख व दुःख का मूल धर्म और पाप कर्म होते हैं। यह मूल बिना कर्मों के भोग के नष्ट नहीं होता है। यदि हम कोई कर्म करेंगे, वह धर्म हो या अधर्म, उसे हमें भोगना ही होगा। भोगने पर ही वह कर्म नष्ट होता है। ऐसा हमें ऋषि दयानन्द का भाव विदित होता है।

ऋषि दयानन्द जी ने मनुस्मृति के आधार पर पाप व पुण्य कर्मों की अनेक प्रकार की गतियों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने ‘छिन्ने मूले वृक्षों नश्यति तथा पापे क्षीणे दुःखं नश्यति।’ का उल्लेख कर बताया है कि जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे पाप को छोड़ने से दुःख नष्ट होता है। इसका तात्पर्य यही है कि यदि हम चाहते हैं कि हमें कभी किसी प्रकार का कोई दुःख न हो तो हमें अधर्म व पाप कर्मों को करना छोड़ देना चाहिये।

मुनस्मृति में पाप व पुण्य कर्मों की गतियां बताते हुए ऋषि कहते हैं कि मनुस्मृति के अभिप्राय के अनुसार मनुष्य अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव का ग्रहण, मध्य और निकृष्ट स्वभाव का त्याग करे। वह यह भी निश्चय जाने कि यह जीव मन, वाणी व शरीर से जिन शुभ वा अशुभ कर्मों को करता है उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल अपने शरीर से भोगता है। जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्मों को करता है उस को वृक्षादि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि, तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है।

जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है। जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्व, जब अज्ञान रहे तब तम, और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे तब रजोगुण जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त हो कर रहते हैं। मनुष्य का इनका विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता हो तथा मन प्रसन्न व प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्ते, तब समझना चाहिये कि सत्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं। जब आत्मा और मन दुःख संयुक्त व प्रसन्नतारहित विषय में इधर उधर गमन-आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्वगुण और तमोगुण अप्रधान हैं।

जब मोह अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फंसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहे, विषयों में आसक्त होकर तर्क-वितर्क रहित जानने के योग्य न हो, तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझ में तमोगुण प्रधान और सत्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान हैं। जो इन तीनों गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है, उस को पूर्णभाव से प्रस्तुत करते हैं। जिन मनुष्यों के द्वारा वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्वगुण का लक्षण है। जब रजोगुण का उदय, सत्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है, तब आरम्भ में रुचिता, धैर्य-त्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझ में वर्त्त रहा है। जब तमोगुण का उदय और तम व रजो गुण दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता है, अत्यन्त आलस्य और निद्रा आ घेरते है, धैर्य का नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव, जिस किसी से याचना अर्थात् मांगना, प्रमाद अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फंसना होवे, तब समझना कि तमोगुण मुझ में बढ़ कर वर्त्तता है। यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वानों को जानने योग्य है तथा जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके वा उसे करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शंका और भय को प्राप्त होवे तब जानों कि मुझ में प्रवृद्ध तमोगुण है।

जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता तब समझना कि उस मनुष्य में रजोगुण प्रबल है। जब मनुष्य का आत्मा सब से ज्ञान-विज्ञान व सत्यासत्य को जानना चाहै, गुणों को ग्रहण करता जाये, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण में ही रुचि रहे तब समझना कि उसमें सत्वगुण प्रधान है। तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थसंग्रह की इच्छा और सत्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्वगुण श्रेष्ठ है।

मनुष्य में सत्व, रज व तम गुणों में से जिन गुणों की प्रधानता होती उनका प्रभाव उनकी प्रवृत्तियों पर होता है और उससे उनका भविष्य एवं पुनर्जन्म भी प्रभावित होता है। मनुस्मृति के श्लोकों से इस पर भी प्रकाश पड़ता है। ऋषि दयानन्द जी ने इससे सम्बन्धित 11 श्लोकों को प्रस्तुत कर उनके अर्थ दिये हैं। वह बताते हैं कि जो मनुष्य सात्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य अत्यन्त तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ निन्दित कर्म करने वाले सिंह, व्याघ्र, वराह अर्थात् सूकर के जन्म को प्राप्त होते हैं। जो उत्तम तमोगुणी हैं वे चारण (जो कि कवित्त दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं), सुन्दर पक्षी, दाम्भिक पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करनेहारे, राक्षस जो हिंसक, पिशाच जो अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्ता और मलिन रहते हैं, वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है। जो मनुष्य अत्यन्त रजोगुणी हैं वे झल्ला अर्थात् तलवार आदि से मारने वा कुदार आदि से खोदनेहारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, नट जो बांस आदि पर कला अर्थात् कूदना चढ़ना उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य और मद्य पीने में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है।

जो मनुष्य अधम रजोगुणी होते हैं वे राजा, क्षत्रिय वर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविद करने वाले, दूत, प्राड्विवाक (वकील बारिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं। जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गन्धर्व (गाने वाले) गुह्यक (वादित्र बजानेवाले), यक्ष (धनाढय), विद्वानों के सेवक और अप्सरा अर्थात् जो उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते हैं। जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलाने वाले, ज्योतिषी और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्वगुण के कर्म का फल जानना चाहिये। जो मनुष्य मध्यम सत्वगुण युक्त होकर कर्म करते हैं ये जीव यज्ञकर्ता, वेदार्थवित्त्, विद्वान, वेद, विद्युत आदि काल विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और (साध्य) कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं। इनके अतिरिक्त जो मनुष्य उत्तम सत्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म्म करते हैं वे ब्रह्मा सब वेदों का वेत्ता विश्वसृज्् सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेवाले, धार्मिक सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं। ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो इन्द्रिय के वश होकर धर्म को छोड़कर अधर्म करनेवाले अविद्वान हैं वे मनुष्यों में नीच जन बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं। वह यह भी लिखते हैं कि इसी प्रकार सत्व, रज और तमोगुण युक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है उस-उस को उसी-उसी प्रकार फल प्राप्त होता है। ऋषि यह भी कहते हैं कि जो मुक्त होते हैं वे गुणातीत अर्थात् सब गुणों के स्वभावों में न फंसकर महायोगी होके मुक्ति का साधन करें। ऋषि यह परामर्श देते हैं कि सभी मनुष्यों को चाहिये कि सभी दुःखों का कारण मनुष्य की अच्छी व बुरी प्रवृत्तियों को छोड़कर मुक्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। मुक्ति के लिये प्रयत्न ही अत्यन्त पुरुषार्थ है। यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य भी है।

कोई भी मनुष्य दुःख को प्राप्त होना नहीं चाहता। जन्म व मरण के चक्र में फंसे जीव का दुःखों से पूर्णतया निवृत्त होना तब तक सम्भव नहीं है जब तक की हममें दुःखों के प्रति विरक्ति सहित सुख के प्रति भी किसी प्रकार की इच्छा व प्रवृत्ति न हो। हमारा प्रयत्न होना चाहिये कि हम असत्य व पाप से सर्वथा मुक्त कर ईश्वरोपासना, यज्ञ एवं परोपकार आदि सद्कर्मों को करें और सुख व दुःख की इच्छा न करें। जब हम अशुभ व पाप कर्मों का पूर्णतया त्याग कर देंगे और सुख भोग के प्रति भी हमारे भीतर भावना नहीं होगी तब हम शुभ कर्मों से मृत्यु से पार होकर विद्यायुक्त ईश्वरोपासना आदि कर्मों से मुक्ति वा मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यही हमारा लक्ष्य है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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