अपने पशुओं की मंदी सुनी होगी, सब्जी मंदी या अन्य रोज़मर्रा के सामान की मंदियाँ सुनी होंगी, लेकिन क्या कभी आपने सुना है कि इस 21वीं सदी में देश के अंदर औरतों को मंदी (बाज़ार) में सजाकर जानवरों की तरह खरीदा-फरोख्त किया जा रहा है?

पहले ही देश में आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले शोषण के खिलाफ नए और सख्त से सख्त कानून बनाए जा रहे हैं। लेकिन सख्त कानून बनाए जाने के बावजूद भी कई जगह अभी भी कुप्रथाओं के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार हो रहे हैं, विशेषकर देश में नेटा नारी शोषण की बड़ी-बड़ी बातें करते हो पर यह सुनकर आपको दुःख होगा कि ऐसे दौर में भी देश के अंदर बीवियाँ किराए पर मिलती हैं — वो भी बाकायदा मंडी लगाकर।

असल में मध्यप्रदेश के शिवपुरी में चल रही इस प्रथा को ‘धड़ीचा प्रथा’ कहा जाता है। इस प्रथा अनुसार यहाँ हर साल एक मंडी लगाई जाती है जिसमें भीड़-भाड़, गहने-गहोड़ें नहीं लड़कियों को खड़ा किया जाता है। बताया जा रहा है कि यहाँ हर साल पुरुष आते हैं और अपनी मनपसंद की लड़की को चुनकर उसकी कीमत तय करते हैं। इन लड़कियों और महिलाओं की बोली तक लगाई जाती है। किराए की कीमत इस बात पर निर्भर करती है कि युवा महिला का परिवा‍र कितना गरीब है और उसे पैसों की कितनी ज़रूरत है।

सुनकर पहले ही दुःख हुआ होगा, लेकिन आज के अत्याधुनिक युग में भी धड़ीचा प्रथा जारी है। इस कुप्रथा के नियम अनुसार दस रुपये के स्टांप पर औरतों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती है। दरअसल इस प्रथा की आड़ में गरीब लड़कियों का सौदा होता है। बताया जाता है कि यह सौदा स्थायी और अस्थायी दोनों तरह का होता है। सौदा तय होने के बाद बिकने वाली औरत और खरीदने वाले पुरुष के बीच एक अनुबंध किया जाता है। यह अनुबंध ख़रीद की रकम के मुताबिक 10 रुपये से लेकर 100 तक के स्टांप पर किया जाता है।

सामान्य तौर पर अनुबंध छह माह से कुछ वर्ष तक के होते हैं। अनुबंध बीच में छोड़ने का भी प्रावधान है। इसे छोड़-छुट्टी कहते हैं। इसमें भी अनुबंधित महिला स्टांप पर शपथपत्र देती है कि वह अब अनुबंधित पति के साथ नहीं रहेगी। ऐसे भी बहुत मामले हैं, जिसमें अनुबंध के माध्यम से एक के बाद एक अलग-अलग धड़ीचा प्रथा के विवाह हुए हैं। इस कुप्रथा के फलने-फूलने का मुख्य कारण गरीबी और लड़कियों की अशिक्षा है।

यह भी बताया जा रहा है कि यहां हर साल करीब 300 से ज़्यादा महिलाओं को 10 से 100 रुपये तक के स्टांप पर खरीदा और बेचा जाता है। स्टांप पर शर्त के अनुसार खरीदने वाले व्यक्ति को महिला या उसके परिवार को एक निश्चित रकम अदा करनी पड़ती है। रकम अदा करने व स्टांप पर अनुबंध होने के बाद महिला निश्चित समय के लिए उसकी पत्नी बन जाती है। मोटी रकम पर संबंध स्थायी होते हैं, वरना संबंध समाप्त। अनुबंध समाप्त होने के बाद मायके लौटने वाली महिला का दूसरा सौदा कर दिया जाता है। अनुबंध की राशि सामान्यतः 50 हजार से 4 लाख रुपये तक हो सकती है। हालांकि यह अनुबंध पूरी तरह से गैरकानूनी है, कई बार इसे सरकारी दस्तावेज़ों के समर्थन हेतु उपयोग किया गया है। लेकिन, महिलाएं या पीड़ित सामने नहीं आती हैं। जिसका कारण यह कुप्रथा आज भी चल रही है।

चैकाने वाली बात यह है कि आज तक इसके खिलाफ कोई कारवाई नहीं की गई है। सर्कस में, सिनेमा में जानवरों के इस्तेमाल पर रोक लगाने वाले मानवाधिकार आयोग का इस ओर आज तक ख़्याल ही नहीं गया! ऐसा प्रतीत होता है कि गरीब परिवारों की महिलाएं और लड़कियों की कीमत इन जानवरों से भी गई गुज़री है! ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की केंद्र सरकार की योजना के बावजूद भी हमारे अपने देश में बेटियों को बेहूदगी और बर्बरता की तरह बेचा जा रहा है! ताज्जुब की बात तो यह भी है कि आज तक बड़ी-बड़ी नारी संगठनों की संस्थाओं ने भी इनकी सुध नहीं ली।

जानिए इस क्षेत्र का मूल कारण आशिक़ा है, कहा जाता है कि योंकि शिख़सित समाझ वैसे बुरी कुप्रथाओं का त्याग कर देता है। यही कारण है कि आर्य समाज ने अपने शूरुआती काल से ही नारी को शिख़सित करने का शूरुआती कदम उठाकर लोगों को शिख़सा दिलाने की वकालत की। वे भी उस समय जब लोग परदे की चीज़ समाज जाता था, तो कान्भूल करना एक बहुत सकतां है। रेगर समाज के लोगों के उत्थान का वह चक्र जब उन्हेँ अधिकतम समाज जाता था और कुप्रथाओं के कारण कैजह तो उन्हेँ दैहव्यापार में धकेल दिया जाता था।

हालत ऐसे बताया जाता है कि उन्होंने लोग उन्हेँ हय दर्दी से देखनें लगे थे। किन्तु आर्य समाज की अगुवाई में स्व महात्मा नारायण स्वामी ने जनवरी 1929 में मकर संक्रांति के दिन आर्य कन्या पाठशाला की स्थापना के आरम्भ में केवळ पांच छात्राओं हुईं। शिख़सा के लिए आगे आई थी किन्तु इसके बाद आज इस पाठशाला से निःसंदेह अनेक लोगों बेटियाओंUCHCH पड़ों पर आसीन हैं। यह सब शिख़सा का प्रभाव था। ऐसे ही आज ढ़डीचा पिता के विरुद्ध भी आर्य समाज को आगे बढ़ाना होता है। ताकि उन बेटियाओं को भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान से जीने का अवसर मिले। इस पर भी अधिकांश चिन्न-मनन करने की आवश्यकता है। वरना हमारें महापुरुषों ने जो रास्ता दिखाया है, उस पर धृढ़ प्रयास होकर चले बिना वास्तविक विकास को बर्करार रखना संभव नहीं हो पाएगा।

 

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