मदर टेरेसा, सिस्टर अल्फोंसा के बाद अब नन मरियम थ्रेसिया को संत की उपाधि मिली है। देखा जाए तो इस समय वेटिकन के पॉप को अपने भगवाना-येशु से अधिक भारतीय उपमहाद्वीप दिखाई रहा है, जिस तरह एक बाद एक नन को वेटिकन की ओर से संत उपाधि बांटी जा रही है, उसे देखकर लगता है कि वेटिकन मिशनरी भारत में इसाईयत की कोई बड़ी फसल काटने को तैयार है। हाल ही में पॉप फ्रांसिस ने वेटिकन में नन मरियम थ्रेसिया को संत की उपाधि देने की घोषणा की। 26 अप्रैल, 1876 को केरल के त्रिशूर जिले में जन्मीं सिस्टर मरियम 50 साल की उम्र में 8 जून 1926 को दुनिया को छोड़ गई थीं। उनकी मृत्यु के 93 साल बाद उन्हें संत की उपाधि से नवाजा जा रहा है। कहा जा रहा है महिलाओं की शिक्षा के लिए किए गए कार्यों के लिए उन्हें यह उपाधि दी जा रही है। लेकिन असल सच यह है कि बेहद अमीर परिवार में जन्मीं सिस्टर मरियम ने होली फैमिली नाम की एक धर्मसभा की स्थापना की थी और वेटिकन सिटी में मौजूद एक दस्तावेज के मुताबिक, उन्होंने कई स्कूल, हॉस्पिटल, अनाथालय और कॉन्वेंट बनवाए और संचालित किए। 1914 में उनके द्वारा स्थापित इस संस्था में आज करीब 2000 नन हैं जो भारत में इसाईयत का विस्तार कर रही हैं।

असल में संत घोषित करना एक किस्म से चंगाई सभा का दूसरा रूप है। क्योंकि सिस्टर मरियम को संत इस कारण घोषित किया कि नौ महीने से पहले जन्मा एक बच्चा जिंदा और मृत्यु से जूझ रहा था। डॉक्टरों ने एक विशेष वेंटिलेटर के जरिए एक खास दवा देने के लिए कहा था जो उस समय हॉस्पिटल में मौजूद नहीं था। बच्चा जब सांस लेने के दौरान हाँफने लगा तब बच्चे की दादी ने उसके ऊपर एक क्रॉस चिन्ह रखकर सभी लोगों से सिस्टर मरियम की प्रार्थना करने के लिए कहा। ऐसा करने के 20 से 30 मिनट के अंदर ही बच्चा एकदम स्वस्थ हो गया। क्या 21वीं सदी में किसी को चमत्कारों के आधार पर संत घोषित करना तार्किक है, क्या तर्क और विज्ञान के युग में ये अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है? लोगों का कहना है कि जब विज्ञान मंगल पर जीवन तलाश रहा हो और टेक्नोलॉजी नित नई ऊँचाइयों को छू रही हो तो ऐसे में आज भी चमत्कार जैसी बातों को मानना निश्चित तौर पर आस्था और अंधविश्वास को बढ़ावा देना ही है। साथ ही आलोचक चर्च की उस प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते हैं जिसमें किसी बीमार व्यक्ति के ठीक होने को चमत्कार मान लिया जाता है।

क्या वेटिकन का पॉप इतनी हिम्मत रखता है कि एक आदेश जारी करे कि यूरोप में चल रहे सभी अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्रों को बंद करके उनकी जगह सिस्टर मरियम की प्रार्थना शुरू करा दी जाए? सोचिए जब एक प्रार्थना में अधमरा बच्चा तुरन्त ठीक हो सकता है तो खांसी, जुकाम और बुखार जैसे रोग तो सेकंडों में ठीक हो जाएंगे!

लेकिन इन चमत्कार के दावों पर इसलिए भी यकीन करना मुश्किल है कि इनकी कभी कोई चिकित्सीय व्याख्या नहीं की जा सकती और इन्हें चमत्कार मानने का आधार बस आस्था होती है। ऐसे में महज अंधविश्वास के आधार पर किसी बात को चमत्कार मानकर किसी को संत की उपाधि देना खुद-ब-खुद सवालों के घेरे में आ जाता है।

याद कीजिए थोड़े समय पहले केरल में जमी सिस्टर अल्फोंसा को पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने सेंट पीटर्स स्क्वायर में आयोजित एक भव्य समारोह में उन्हें भी यह उपाधि प्रदान की थी। और विडंबना देखिए कि इस समारोह में एक भारतीय सरकारी प्रतिनिधिमंडल के अलावा लगभग 25,000 भारतीय शामिल हुए थे।

तब इनकी सेवा-गाथा का सेकुलर मीडिया बड़े गर्व से गुणगान कर रहा था। लेकिन क्या वास्तव में धर्म और संत की उपाधि से नवाजी जा रही एक के बाद भारतीय ननों का मिशन सेवा ही था? गौर करने वाली बात है मिशनरी ऑफ चैरिटी संस्था की स्थापना करने वाली टेरेसा ने अपना पूरा जीवन भारत में बिताया, लेकिन जब भी पीड़ित मानवता की सेवा की बात आती थी तो टेरेसा की सारी उदारता प्रार्थनाओं तक सीमित होकर रह जाती थी। तब उनके अरबों रुपये के खजाने से धेला भी बाहर नहीं निकलता था।

भारत में सैकड़ों बार बाढ़ आई, भूकंप में भयंकर गैस त्रासदी हुई, इस दौरान टेरेसा ने मदार मैरी के तावीज़ और क्रॉस तो खूब बांटे, लेकिन आज़ादी प्राप्त लोगों को किसी भी प्रकार की कोई फूटी कौड़ी की सहायता नहीं पहुंचाई।

आज पहले ही मदर टेरेसा, सेकुलर मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा घोषित त्याग एवं सेवा की प्रतीक होती उनकी बनाई संस्था निर्मल हृदय का गुंडागर्दी वाला चेहरा सामने आया। कुछ दिन पहले जब इस संस्था की कार्यकर्ता खुली तो मीडिया का एक बड़ा धड़ा ग़ायब मिला था। क्योंकि कहने को यह संस्था जरूरतमंद परोपकारियों को नवजात शिशु बेटी है, किन्तु 2015 से जून 2018 के बीच निर्मल हृदय में 450 गर्भवती महिलाओं को रखा गया। जिनमें मात्र 170 नवजातों को बाल कल्याण समिति के सामने प्रस्तुत किया गया, शेष 280 शिशुओं का इस संस्था ने क्या किया, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली थी। न किसी ने पूछने का साहस किया न किसी ने बताने की जरूरत समझी। जबकि ऐसे कितने सवाल हैं, जो कभी पूछे ही नहीं गए।

हां, गरीबों के बीच काम करने वाली टेरेसा परिवार नियोजन के विरुद्ध थीं। टेरेसा ने जिन भारतीयों से प्यार का दावा किया, उनकी संरचना, उनकी समृद्ध विरासत की प्रशंसा में उन्होंने कभी एक शब्द तक नहीं कहा। 1983 में एक हिंदी पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में जब टेरेसा से पूछा गया कि इसाई मिशनरी होने के नाते क्या आप एक गरीब इसाई और दूसरे गरीब गैर-इसाई के बीच भेदभाव करती हैं? तो उनका उत्तर था — मैं तटस्थ नहीं हूं। मेरे पास मेरा मजहब है और मेरी प्रार्थमिकता भी मेरा मजहब है। किन्तु दुर्भाग्य है कि हमारा मीडिया इन जवानों पर कभी प्रश्न नहीं उठाता, न ही तर्कवादी ऐसे उत्तरों पर कोई सवाल खड़े करते हैं। इसी का नतीजा है कि वेटिकन द्वारा भारत में इसाई मिशनरीज़ के कार्यों को प्रोत्साहित देने के लिए धड़ाधड़ संत की उपाधियां बांटी जा रही हैं।

 

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