जो आतंकीयों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के बाहर डेरा डाल देते हैं, क्या आज भी राष्ट्रभक्ति उनके लिए सबसे द़्वितीय है?

हैदराबाद में डॉक्टर प्रियंका रेड्डी का गैंगरेप और फिर हत्या कर दी गई। 27 साल की एक पढ़ी-लिखी डॉक्टर का वो हाल किया गया जिससे देखकर हर लड़की का मन अंदर तक सिहर उठे। सड़क के किनारे पड़े और कचरे में फेंके शरीर की तस्वीर शायद ही कोई सामान्य मनुष्य देख पाए। इस तस्वीर ने बेटियों को अकेले शहरों में छोड़ने वाले माता-पिता के माथे पर चिंता की लकीरें और गहरा दी हैं।

16 दिसंबर 2012 निर्भया दिल्ली का निर्भया कांड अभी तक जेहन से मिटा भी नहीं था कि अचानक 4 जुलाई 2017 हिमाचल का कोटखाई गुड़िया रेप हत्याकांड गूंज उठा। सवाल दर सवाल खड़े होते रहे, एक के बाद वीभत्स और दरिंदगी भरे हत्याकांड सामने आते रहे हैं। केंडल मार्च से लेकर सड़कों पर प्रदर्शन भी हुए, कानून भी बने लेकिन दरिंदों तक न फांसी का फंदा पहुंचा, न प्रदर्शन की गूंज। नतीजा फिर वही हुआ — तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के शादनगर इलाके में रहने वाली डॉक्टर प्रियंका लालू हालत में मिली, पुलिस वहां पहुंचती है और लालू की शिनाख्त की कोशिश करती है जो 100 फीसदी जल चुकी थी, सिवाय स्कार्फ के टुकड़े के। गले में पड़ा लॉकेट इशारा कर रहा था कि ये लालू एक महीला की है।

प्रियंका के परिवार को बुलाया जाता है जहां इन्हीं चीजों से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि वो जलकर कोयला हो चुकी लाश डॉक्टर रेड्डी की ही थी। इसी लाश को देखकर पुलिस की नींद असल में खुल पाई। फिर पुलिस सक्रिय होती है क्योंकि ये एक महिला डॉक्टर की हत्या का मामला होता है। छानबीन में पता चलता है कि हत्या से पहले प्रियंका के साथ गैंगरेप भी हुआ था।

पुलिस ने इस मामले में 4 लोगों को गिरफ़्तार किया है, जिनमें एक ट्रक ड्राइवर मोहम्मद आरिफ़ (25 वर्ष) है और वही मुख्य आरोपी है। उसके साथ तीन हेल्पर भी हैं, जिनकी उम्र करीब 20 साल है। पुलिस के सामने सभी ने रेप और हत्या का गुनाह कबूल किया है।

यह दरिंदगी किस्सा सुनकर कई सवाल खड़े होते हैं — पहला हत्यारे का मजहब देखिए, दूसरा हैदराबाद में ओवैसी बंधुओं की रौबदारी की भड़काऊ तकरीरें सुनिए। इनमें इस्लाम, कुरान, हिंदुओं के अलावा कुछ नहीं होता। तीसरा, दिल्ली के निर्भया मामले के आरोपियों को फांसी की सज़ा पहले ही सुनाई गई लेकिन फांसी दी नहीं गई। शायद प्रियंका के हत्यारों को लगा कि निर्भया तो बच गई थी, इसलिए उनके आरोपियों को फांसी और मामला वहीं खत्म कर देने और खुद को बचाने के लिए उन्होंने प्रियंका को मौके पर ही जला दिया। यही तो किया जाता है आजकल, रेप करके सीधे हत्या ही कर दी जाए जिससे आरोप लगने के लिए कोई बचे ही न।

चौथा, जिस देश में हर साल औसतन 40 हज़ार रेप होते हों, हर दिन 106 रेप और हर 10 रेप में से 4 वारदातें छोटी बच्चियों के साथ होती हों, जहाँ सज़ा सिर्फ 25% मामलों में ही होती है यानी 40 हज़ार रेप करने वालों में से सिर्फ 10 हज़ार को ही सज़ा मिलती है और बाकी 30 हज़ार खुले घूमते हैं — वहाँ कोई डर है? अपराधियों को इन आंकड़ों से हौसला मिलता है और वे अगला अपराध करने की योजना बनाते हैं। वे जानते हैं कि दो दिन सोशल मीडिया पर शोर होगा, नेता बयान देंगे और उसके बाद सब कुछ पुराने ढर्रे पर लौट आएगा। क्योंकि कोई भी सरकार न अपराधियों के मन में डर पैदा कर पाई है और न ही महिलाओं के मन से अब तक डर निकाल सकी है।

इसी कारण आज के माता-पिता जब भी बेटियों को पढ़ाने के लिए बाहर भेजने की सोचते हैं, कोई न कोई खौफनाक घटना उनके हौसले तोड़ने के लिए तैयार खड़ी होती है। कैसे आज की बेटियां अपने माता-पिता को यक़ीन दिलाएं कि वे बाहर सुरक्षित हैं? कैसे उनसे कहें कि उन्हें पढ़ाई के लिए बाहर जाने दिया जाए?

भारत सरकार के लिए क्या कहा जाए, जिसकी आंखें अपराध के आंकड़े देखकर भी नहीं खुलतीं। इसलिए बेटियों को सब पर संदेह करना सिखाइए। उन्हें आत्मरक्षा के तरीके सिखाइए और ज़रूरत पड़ने पर उसका तुरन्त उपयोग करना भी।

आती-जाती सरकारों ने आज तक कुछ नहीं किया। आप उनके भरोसे न रहें। अपनी रक्षा आप करें। कोई सामने नहीं आएगा। आज विपत्ति केंडल मार्च से नहीं निकलेगी। सब मौन हैं। इसी मौन से अपराधी हिम्मत पाते हैं और सुबह से ही अपराध की योजना बनाने लगते हैं।

प्रियंका रेड्डी केस के दोषियों के सामने निर्भया कांड का उदाहरण था। वे अच्छे से जानते थे कि एक महिला का रेप और हत्या करने के बाद किस तरह बच सकते हैं। वे निडर थे क्योंकि उन्हें यक़ीन था कि फांसी की सज़ा सिर्फ दिखावे की होती है, हकीकत में किसी को फांसी नहीं दी जाती।

अपराधियों को इस बात का पूरा यक़ीन हो चुका है कि इस देश में बलात्कारियों को फांसी कभी नहीं होगी, तो उन्हें क्यों और किस बात का डर। पहली के धुंधले दिनों की तरह, जब जलते शरीर से उन्होंने वाला धुंआ देश की राजनीति के लिए लाभदायक नहीं था, इसलिए ऐसे मामलों की चर्चा दो मिनट के मौन से अधिक नहीं होती है। सोचिए, जो आंकड़ों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के बाहर डेरा डाल देते हैं कि आज भी जातिभेद जिंदा है — क्या वही लोग अपराधियों को सख़्त फांसी देंगे?

प्रियंका की हत्या पर किसी ने सही लिखा है कि प्रियंका तुम्हारा दर्द, तुम्हारी चीखें, तुम्हारा खून, तुम्हारे आंसू और तुम्हारा जला हुआ जिस्म — इस देश का प्रतीक संवेदी नाटक महासूख़ कर पा रहा है। ईश्वर तुम्हारे माता-पिता परिवारजनों को इतनी ताक़त दे! वो इस पीड़ा को भूल जाएं। तुम जिस भी दुनिया में हो, वहाँ से हम बचे हुए लोगों के लिए प्रार्थना करना और परमात्मा से कहना कि धरती स्त्रियों के लायक नहीं रही। सृष्टि के समाप्त होने का समय आ चुका है। अपने दोषियों के बारे में पूछना ज़रूर कि तुम्हारा असली दोषी कौन है समाज, सरकार या सरकार?

 

 

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