क्या है मूलनिवासी शड्यंत्र का असली राज़?


Author
Vinay AryaDate
02-Dec-2020Category
लेखLanguage
HindiTotal Views
2050Total Comments
0Uploader
RajeevUpload Date
02-Dec-2019Top Articles in this Category
- फलित जयोतिष पाखंड मातर हैं
- राषटरवादी महरषि दयाननद सरसवती
- सनत गरू रविदास और आरय समाज
- राम मंदिर भूमि पूजन में धर्मनिरपेक्षता कहाँ गई? एक लंबी सियासी और अदालती लड़ाई के बाद 5 अगस्त को पू...
- बलातकार कैसे रकेंगे
अख़िर जब जीनयू (JNU) विवाद फ़ीस को लेकर था, तो इस विवाद को मूलनिवासी से क्यों जोड़ दिया गया? फ़ीस में मनुवाद कहाँ से आया और फ़ीस में राम मंदिर कहाँ से आया? शायद ये चीज़ें आई नहीं, बल्कि लाई गईं। क्योंकि आजकल आपने एक शब्द सुना होगा — 'मूलनिवासी'। इस शब्द के साथ भारतीय दलित व आदिवासी समाज को जोड़ा जा रहा है। साथ ही, महिषासुर और रावण की पूजा जैसे मिथक जोड़े जा रहे हैं। कभी शंबूक वध से लोगों को द्रवित किया जा रहा है, तो कभी बहुजनवाद के नाम पर।
इसमें कोई आर्यों को बाहरी आक्रांता बताता है, तो कहीं मनु स्मृति के नाम पर अनगिनत झूठ और मनगढ़ंत इतिहास सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिल रहा है। मुसलमान और बामसेफ वालों को मूलनिवासी बताकर आधुनिक इतिहास लिखने की कोशिश जारी है। फ़ीस विवाद के समय अख़िर जेनयू में ये मुद्दा कहाँ से आया? क्या ये कोई मज़ाक है या कोई षड्यंत्र है? क्योंकि इस रूढ़िवादी इतिहास को लगभग यूट्यूब के 105 बड़े चैनलों से परोसा जा रहा है।
अगर इसकी असल गहराई में जाएं, तो ये एक पूरा संगठित गिरोह है, जिसमें वामपंथी मीडिया, कथित सामाजिक कार्यकर्ता, बामसेफ के वामन मेश्राम जैसे कुछ खास लोग हैं। जो 'मूलनिवासी' शब्द के नाम पर एक प्राचीन षड्यंत्र को नए रूप, नए कलेवर और नए आवरण में बांधकर एक देश में नया सामाजिक राजनीतिक धार्मिक वातावरण खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं — और जो किसी भी मौके पर इसे भुनाने का प्रयास करते हैं।
आप पहले पर बोलिए, वामपंथी खड़े हो जाते हैं। आप इस्लाम पर बोलिए, बामसेफ वाले खड़े हो जाते हैं। आप वामपंथियों पर नवबौद्ध खड़े मिलेंगे और आप आत्मकथ्य पर बोलिए, तो कथित सामाजिक कार्यकर्ता तुरंत फन उठाकर खड़े हो जाएंगे। आखिर ये प्रयास क्यों किया जा रहा है, कौन ये प्रयास कर रहा है और इसका लाभ किसे मिलने वाला है — इसे समझने के लिए ज़रूरी है। और इसकी जड़ बाबा साहब आंबेडकर जी के धर्म परिवर्तन के समय दो धर्मों — इस्लाम एवं इसाईयत — में उपजी निराशा में है। क्योंकि इसाईयत व इस्लाम धर्म नहीं अपनाने को लेकर बाबा साहब ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया था। उन्होंने बार-बार कई मौकों पर कहा कि उनके अनुयायी हर प्रकार से इस्लाम व इसाईयत से दूर रहें।
यानी बाबा साहब जिस बीमारी से अपने समाज को बचाना चाह रहे थे, किंतु आज मूलनिवासीवाद के नाम पर भारत का दलित व जनजातीय समाज एक बड़े प्रच्छन्न षड्यंत्र का शिकार हो रहा है। आंबेडकर जी के इस बयान के बाद एक बड़े और ऐकमुख धारा-परिवर्तन की आस में बैठे इसाई और मुस्लिम धर्म प्रचारक बहुत ही निराश व हताश हो गए थे। किन्तु इसी मिशनरीज में उपजी तबकी यह निराशा बाद में भी प्रयासरत रही और अपने धन, संस्थानों, बुद्धिजीवी, कोशल के आधार पर सतत षड्यंत्रों को बुनने में लगी रही। पश्चिमी इसाई धर्म प्रचारकों के इसी षड्यंत्र का अगला हिस्सा है मूलनिवासीवाद का जन्म।
भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़ने व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासीवाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है।
इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुचक्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने अपने आंदोलनों में यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि भारत के मूल निवासी (दलितों) पर बाहर से आकर आर्यों ने हमला किया और उन्हें अपना गुलाम बनाकर हिंदू वर्ण व्यवस्था को लागू किया।
जबकि जातिव्यवस्था भारत में मुगलों की देन रही है और उसी कालखंड में मुगलों के षड्यंत्रों से भारत में जाती व्यवस्था अपनी दुर्बलता व परस्पर विद्वेष के शिखर पर पहुंची थी। यह बात विविन्न अध्ययनों में स्थापित हो चुकी है। भारत के दलितों व जनजातीय समाज को द्रविड़ कहकर मूलनिवासी बताना व उनपर आर्यों के आक्रमण की षड्यंत्रकारी अवधारणा को स्वयं बाबा साहब अम्बेडकर सिरे से खारिज करते थे।
बाबा साहब ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है — 'आर्य आक्रमण की अवधारणा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है जो बिना किसी प्रमाण के सीधेजमीन पर गिरती है।
इसे साफ़ है कि आज बाबा साहब के नाम पर जो मूलनिवासीवाद का नया वितंडा खड़ा किया जा रहा है, वह वास्तव में उनकी बातों, जय मीम और इसी धर्म प्रचारकों के दिमाग़ का षड्यंत्र भर है। इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूंजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसियों के रूप में आकर इस विभाजन रेखा को जन्म देकर पाल पोस रहा है। आर्य कहां से आए, और कहां के मूलनिवासी थे — यह बात अब तक कोई सिद्ध नहीं कर पाया है और इसके बिना ही यह राग अवश्य अलापा जाता रहा है कि आर्य बाहर से आए थे।
दक्षिण-उत्तर की भावना उत्पन्न करने वाला यह विचार, तात्कालिक राजनैतिक लाभ हेतु विदेशी और विधर्मी दलों द्वारा योजनाबद्ध प्रचारित किया गया है।
वैज्ञानिक अध्ययनों, वेदों, शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रोतियों, पृथ्वी की संरचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययनों आदि के आधार पर जो तथ्य सामने आते हैं, उनके अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप बहुत विशाल क्षेत्र में फैला था। जिसमें अनेक देश थे और सब यहां के ही निवासी हैं। लेकिन इन सब तथ्यों के प्रकाश में भी अब बंद करके, आखिर यह मूलनिवासी दिवस मनाने का चलन क्यों और कहां से उपजा?
यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत व्यवस्था और भेदभाव चला, वह जाति व जन्म आधारित है — क्षेत्र आधारित नहीं। वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नया विभाजनकारी लेखा-जोखा एक नई साजिश के तहत भारत में लाया जा रहा है, जिससे भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है।
यह भी ध्यान देना चाहिए कि भारत में सामाजिक न्याय का व सामाजिक समरसता का जो नया सकारात्मक वातारवरण अपनी शिखर अवस्था से होकर युवावस्था की ओर बढ़ रहा है — कहीं उसे समाप्त करने का यह नया पश्चिमी षड्यंत्र तो नहीं?!
ALL COMMENTS (0)