झारखंड में सरकार बदले एक हफ़्ता भी नहीं हुआ है, पर लोगों के सुर बदलने शुरू हो गए हैं। रामचंद्र धर्मप्रांत के आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो ने बिशप हाउस में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि, 'पिछली सरकार में हम लोग तनाव में रहते थे। उम्मीद है कि नई सरकार में हमें ज्यादा समर्थन मिलेगा। पिछली सरकार में मिशन के कामों की गति धीमी पड़ गई थी, सरकार की ओर से ज्यादा बाधा आ रही थी। नई सरकार में मिशन के कामों को समर्थन देंगे। बिशप के इस बयान से यही अंदाज़ लगाया जा सकता है कि रघुवर दास सरकार में मिशनरियों पर शिकंजा कसा हुआ था।'

असली में देखा जाए तो झारखंड में इसाई मिशनरीज धर्मांतरण का कार्य जिस स्पीड से कर रही थीं, पिछले पांच साल में उनकी इस गति पर ब्रेक लग गया था। परंतु इसमें सरकार के साथ प्रमुख भूमिका सरना समुदाय का भी काफी योगदान रहा है। पिछले वर्ष झारखंड की राजधानी रांची से करीब 25 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल गढ़कटंगा गांव में उभरे विवाद से अनुमान लगाया जा सकता है। जब इस गांव के लोगों ने आदिवासियों की जमीन पर बने चर्च को तोड़कर सरना भवन बना दिया था। साथ ही चर्च के ऊपर लगे क्रॉस को तोड़कर सरना झंडा लगा दिया था। आदिवासियों द्वारा चर्च के खिलाफ इस कार्रवाई ने एक नई बहस छेड़ दी थी कि आखिर पिछले कुछ सालों में झारखंड में इसाईयों के धर्म प्रचारकों तथा चर्च की गतिविधियों को इनके खिलाफ जगह-जगह बैकफुट और धरनों का सिलसिला क्यों तेज हुआ है। सड़कों पर जुलूस भी निकाले जाते रहे हैं।

अगर इस बहस पर चर्चा करें तो सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि आखिर सरना समुदाय कौन है? क्या पूरा समुदाय इसाई धर्मांतरण के खिलाफ है या इसका कुछ भाग ही इसका विरोध कर रहा है, या यह एक सत्ताई राजनीतिक मामला है? आखिर क्या है इसका मनोवैज्ञानिक कारण और कारक?
असल में, आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले आदिवासी समाज एक ही रुढ़िवादी व्यवस्था या परंपरा से संचालित था। 1845-48 में सबसे पहले जर्मन मिशनरी बिहार आए। उस समय झारखंड राज्य का जन्म नहीं हुआ था। तब उन्होंने बाइबिल स्कूल चलाए। फिर 1868 में कैथोलिक मिशन आया और उसने भी बाइबिल स्कूल चलाए और आदिवासियों में इसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया। इसाई धर्म के साथ बंडल में आए स्कूल और अस्पताल ने आदिवासियों को नई जिंदगी से परिचित कराया और पश्चिमी सभ्यता के प्रगतिशील संस्कृति आदिवासी क्षेत्र में आई।
शुरूआत में आदिवासियों को मिशनरियों पर बहुत विश्वास नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे इसाई धर्म में दीक्षित होते गए।

अब मिशनरियों ने धर्मांतरण इसाइयों का एक अलग समाज बनाने का फ़ैसला किया और उस समाज को फैलाने के लिए भी अनेक उपायों का सहारा लिया। यानी किसी समाज को लेकर अगर भविष्य में सत्ता पाना है तो उस समाज के सदस्यों की संख्या में वृद्धि आवश्यक होती है। इसाई धर्मांतरण के ख़िलाफ़ इसकी पृष्ठभूमि में भी समझने की कोशिश की जा सकती है। इससे पहले पूरे भारत में इसाइयों का कोई स्वतंत्र समाज वजूद में नहीं था। इसाइयों का हित मतलब चर्च का हित होता है। इसाइयों पर हमला भी आम इसाइयों पर नहीं, बल्कि चर्च पर ही होता है।

सभी इसाई के बीच चल रहे झगड़ों को यदि आप स्थानी मन्दिरों पर आधारित झगड़ा कहेंगे, तो वहां बड़े पैमाने पर हो रहे धर्मान्तरण के षड्यंत्र पर मिट्टी डालने जैसा होगा। क्योंकि एक आधिवासी इसाई बनने के बाद फादर या पास्टर के अधीनस्थ एक धर्म संगठन की एक प्रजा बन जाता है। उसका सरनेम, उसकी तौहार, यहाँ तक कि वह अब तक जिस संस्कृति में जिया, उसके पुरखों ने जिस संस्कृति को सहेजा, बचाया — वह उसका शत्रु बना दिया जाता है। यानी वह एक पारंपरिक समाज से निकल कर मिशनरियों द्वारा स्थापित एक अलग समाज में प्रवेश करता है। यहाँ उसे अपना मन, शरीर, संस्कृति, जीवन मूल्यों के साथ सामाजिक मूल्यों, स्वर्ग-नरक के विश्वास के साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी लेकर आना होता है। यहाँ वह आधिवासी समाज की तरह स्वतंत्र जीवन बसर नहीं कर सकता है। उसे साप्ताहिक गिरजाघर जाना रहता है। उसे पादरी के आदेश के अनुसार नये विश्वास के साथ न सिर्फ एकाकार करना होता है, बल्कि अपने बच्चों का जन्म संस्कार, शिक्षा-दीक्षा, विवाह और मृत्यु संस्कार भी अपने ही इसाई पद्धति में करना होता है। साथ ही उन्हें इसाई बनने के बाद रोटी-बेटी का रिश्ता भी अपने समाज से तोड़ना ही होता है।

इस मामले में आधिवासी समाज अत्यंत सरल, सीधा और प्रतिरोधहीन साबित हुआ है। उन्हें मिशनरियों ने जो करने के लिए कहा, वह करते गये। वे अनपढ़ थे, लेखिन आज़ादकारी थे। इसी का फायदा मिशनरियों ने खूब उठाया, अपने ही पूजा-पाठ, रीति-रिवाजों, परंपराओं का मखौल उड़ाने के लिए मजबूर किया गया। जिसका उन्होंने अक्षरशः पालन किया। नतीजा — साल 2001 में इसाई 10.93 लाख थे, जो 2011 में बढ़कर 14.18 लाख हो गये थे।

हालांकि समाज में 10-15 वर्ष के बाद नई पीढ़ी आती है। वह जो देखती है, उसी को दुनिया कहती है। आदिवासियों को अपने अतीत की कोई गौरवमयी कहानियां नहीं पढ़ाई गईं। आदिवासियों को अपने पुरखों की मजबूरियों के बारे में कुछ भी मालूम था और न उन्हें बतलाने का कोई जरिया था। बस मिशनरी जो कहती गई, वह उस पर विश्वास करते गए।

नतीजा आज का आदिवासी, ईसाई बन कर अपने को जन्मना ईसाई मानता है। उनके पूर्वजों की बौद्धिक अपंगता का लाभ बाहर से धर्म लेकर आए मिशनरी ने कैसे उठाया — उसे जानने में उन्हें कोई रुचि नहीं है। सरना उन्हें दुबारा वापिस लाने को प्रयासरत है। नतीजा आज झारखंड में समाज खंड-खंड है। लेकिन गांवों में, अशिक्षितों के बीच आदिवासीयत की भावना अभी भी अखंड है। उन्हें पुनः अपनी महान संस्कृति से जोड़ने के लिए आज सरना संगठन उनके साथ सरना सनातन की बात कर रहे हैं। सरना वालों का एक बड़ा भाग ईसाइयों को अपना ही खून समझता है। ईसाइयों का भी समझदार हिस्सा सरना सनातन को अपने से अलग नहीं समझता है। लेकिन रोटी-बेटी की अलगाववादिता विचारधारा ने सरना समाज को सबसे अधिक बांट दिया है और उनमें ईसाइयों को अलग समझने की भावना भी बढ़ रही है। दोनों के मनोभावों को समझने के लिए सुस्पष्ट दृष्टि होने की ज़रूरत है। इसके बिना इसके मनोविज्ञान का सम्यक समझना मुश्किल है। क्योंकि यह लड़ाई हमारी सभ्यता और संस्कृति को बचाने की है। आज सरकार बदलने से जो वहां मिशनरीज खुश हैं — उसका एक कारण यह है कि 2017 में भाजपा सरकार ने झारखंड में धर्म स्वतंत्र कानून बनाया था, जिसका विपक्ष ने पुरजोर विरोध किया था। अब वहां फिर सरकार बदली है, इसी कारण हो सकता है धर्मपरिवर्तन करने वाले संगठन पादरी, आर्च बिशप उत्साहित हों।

 

 

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