धर्म जब तक निजी अनुभूति तक सिमित रहता है, धर्म रहता है। लेकिन जब धर्म के नाम के सहारे साम्राज्य खड़ा किया जाने लगे, जबरदस्ती या बहला-फुसलाकर झुंड तैयार किए जाने लगें, तब वह धर्म न होकर संगठनात्मक रूप धारण कर लेता है। और निजी अनुभूति की दुनिया से अलग हटकर सत्ता का रूप लेते ही धर्म शासक जैसा बनने लगता है। लोग इसके नाम पर होने वाली उद्दंडता को ईश्वरीय मानने लगते हैं। ऐसे कई प्रस्थान चिन्ह खड़े करते हुए, पिछले दिनों पु.अ. क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट के अध्यक्ष आ. एल. फ्रांसिस का आलेख सामने आया था। फ्रांसिस ने अपने आलेख में अंकों के साथ उल्लेख किया था कि तरक्कीपसंद भारतीय समाज में गरीबों, अशिक्षितों और असमानता का लाभ इसाई मिशनरीज़ ने उठाकर जनसंख्या के एक हिस्से को ईसाई तो बना दिया, लेकिन आज भी उनका जीवन किस तरह असमानता में बिता रहा है।

मसलन, अभी तक जो दिलित सिर्फ दिलित था, जिसके साथ कुछ स्थानों पर जातीय भेदभाव था, उसे ईसाई तो बना दिया गया, पर इससे उसका जातीय भेद कम नहीं बल्कि अब वह जातीय देश के साथ अब धार्मिक देश भी झेल रहा है। ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों दिलितों, आदिवासियों और सामाजिक हाशिए पर खड़े लोगों को चर्च और क्रूस तक तो ले आए, लेकिन यहाँ लाकर आज चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की बजाय अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है और अनुनायियों की संख्या से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है।

दरअसल, चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है। पहले ईसाइयों की आबादी का आँकड़ा बढ़ाना, अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवाकर उनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर डालना, और देश की कुल आबादी के पाँव तले हिन्दू दलितों को ईसायत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनना। यह स्थिति यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों में ईसायत के फैलाव में भी देखी गई थी। राजसत्ता के विस्तार के साथ ही ईसायत का भी विस्तार हुआ। किंतु हमारे देश भारत में भी येशु के शिष्य संत थॉमस ईसा की मृत्यु के दो दशक बाद ही प्रचार के लिए आ गए थे। न कोई बड़ी सफलता उन्हें नसीब हुई, पर पिछली कुछ शताब्दियों में झूठ, पाखंड और येशु के चमत्कारों के किस्से सुनाकर जातीय भेदभाव का लाभ उठाकर, भी ईसायत यहाँ अपनी वो जड़ें जमाने में तो कामयाब नहीं पाई जो यूरोप और अमेरिका में चंद वर्षों के भीतर पाई थी।

आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल हैं, पर कोई दलित नहीं। 30 आर्चबिशप में भी कोई दलित नहीं। 175 बिशप में केवल 9 दलित हैं। 822 मेजर सुपीरियर में 12 दलित हैं। 25,000 कैथोलिक पादरियों में बहुत थोड़ी संख्या में दलित ईसाई पादरी हैं, वो भी आदिवासी और बेहद इलाकों में। पिछले दिनों इतिहास में पहली बार भारत के कैथोलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिन छुआछूत और जातिभेद के कारण दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उनके बड़े स्तर पर शिकार हैं। जहाँ कथित तौर पर उनको वैस्विक ईसायत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल किया गया था।

उत्पीड़न का शिकार हुए दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के सामने यह ज़ाहिर किया था कि कैथोलिक चर्च और वैटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। यानी जो भेदभाव की गुहार अभी तक भारत सरकार से लगाई जाती थी, धर्मांतरण के बाद अब वही गुहार यूरोप और वैटिकन में लगाई जा रही है। लेकिन शायद इन्हें मालूम नहीं कि पोप और उनका येशु बहरा है — वह सिर्फ गोरी चमड़ी के यूरोपीय लोगों की गुहार सुनता है। अगर ग़रीब, असहाय और अश्वेतों की गुहार सुनता तो अफ्रीका, अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत दुनिया के कई देशों ने रंगभेद का शर्मनाक इतिहास नहीं झेला होता। दशकों तक अफ्रीका ने रंगभेद को झेला, जर्मनी ने अत्याचार किया, कनाडा ने शोषण किया — लेकिन अस्वेत लोगों से अब भी माफ़ी मांगी जा रही है। अमेरिका ने सदियों से अश्वेतों के खिलाफ हिंसा, भेदभाव को अब तक सामाजिक तौर पर पूरी तरह समाप्त नहीं किया।

उत्पीड़न का शिकार हुए दलित इसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित इसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित इसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। यानी जो भेदभाव की गुहार अभी तक भारत सरकार से लग रही थी, धर्मांतरण के बाद अब वह गुहार यूरोप और वेटिकन में लगाई जा रही है। लेकिन शायद इन्हें मालूम नहीं कि पॉप और उनका यीशु बहरा है। वह सिर्फ गोरी चमड़ी के यूरोपीय लोगों की गुहार सुनता है। अगर ग़रीब असहाय और अश्वेतों की गुहार सुनी तो अफ्रीका, अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत दुनिया के कई देशों ने रंगभेद का शर्मनाक इतिहास न होता। दरअसल अफ्रीका ने रंगभेद को कुबूला, जर्मनी ने स्वीकार किया, कनाडा ने शर्मिंदगी जताई, लेकिन भारत में सदियों से अश्वेतों के खिलाफ हुई हिंसा भेदभाव को अब तक सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं किया।

व्यवस्था में कभी अव्यवस्था हो जाती है। पहले समाज में भी बुरे लोग अपने-अपने स्वार्थ के लिए व्यवस्था बना लेते हैं। यदि किसी काल या कारणवश हिंदू समाज में भेदभाव से लेकर कोई कुरूतियों का जन्म होता है, तो उसे दूर करने के लिए इसी समाज में लोग सामने भी आए। आदि गुरु शंकराचार्य से लेकर महर्षि दयानंद सरस्वती तक अनेक महापुरुषों ने हमारी इतिहास और संस्कृति को सुधारने का प्रयास किया। लेकिन इसकी विपरीत, इसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर हैं।

ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्ववर्ती रजवाड़े — या यूं कहें कि पूरे भारत में दलित, आदिवासियों का आपसी जातीय भेदभाव चरम पर रहा है।

पादरी का मुख्य काम नए लोगों का धर्मांतरण कराना है। उनकी जातीय पीड़ा या गरीबी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। कोई मायने रखता है तो सिर्फ उनका धर्मांतरण। अब यही समय है जब दलित समुदाय को धर्मांतरण से पहले इसाई समाज की सामाजिक संरचना का परिचय करना चाहिए। साथ ही दुनिया भर में धार्मिक राष्ट्र की सत्ता कायम करने का ख्वाब दिखाने वाले चर्चों की चाल को समझना चाहिए। अपने मूल धर्म और विवेक की सत्ता को किसी विदेशी ठेकेदार के हवाले से पहले सोचना होगा कि वह सिर्फ उनका धार्मिक शिकारी है, शिकार नहीं।

 


 

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