ईरान और अमेरिका की जंग को लेकर कई कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर यह युद्ध हुआ तो किसकी हार होगी, किसकी जीत। किसके दम पर ईरान एक सुपर पावर को आंख दिखा रहा है। आज यह सवाल दुनिया भर में सोशल मीडिया से लेकर सभी जगह छाए हुए हैं। लेकिन अगर इस मामले को थोड़ा पीछे जाकर देखें तो 16 मई 2019 को लेबनान की राजधानी बेरूत में कटरपंथी संगठन हिज़बुल्लाह के नेता नसरल्लाह ने ईरान की इस्लामिक क्रांति के 40 वर्ष पूरे होने पर एक बड़ी रैली में मज़बूती से संदेश दिया था कि अगर अमेरिका ईरान से युद्ध छेड़ता है तो इस लड़ाई में ईरान अकेला नहीं होगा, क्योंकि हमारे इलाके का भविष्य इस्लामिक रिपब्लिक से जुड़ा है।

शायद इन पिछले लगभग महीनों में अमेरिका और ईरान की जबानी जंग के बीच ईरान ने लेबनान से लेकर सीरिया, इराक, यमन और गज़ा पट्टी तक में हिज़बुल्लाह जैसे हथियारबंद गुटों में हजारों शिया लड़ाके इकठ्ठे कर लिए जो ईरान के प्रति निष्ठा जताते हैं।

जिसका नतीजा अब देखने को मिल रहा है। 3 जनवरी को इराक में बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिकी हवाई हमले में ईरानी कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या होने बाद ईरान ने बदला बताते हुए अमेरिका के कई सैन्य ठिकानों पर हमला किया। इससे साफ हो जाता है कि हिज़बुल्लाह जैसे हथियारबंद गुटों ने अपना काम करना शुरू कर दिया है। इस बात की पूरी आशंका है कि अमेरिका के साथ चल रहा तनाव अगर युद्ध की परिनति तक पहुंचता है तो वह इन लड़ाकों को एकजुट कर इनका बड़ा इस्तेमाल करेगा। ईरान द्वारा किए हमलों से संदेश दिया कि ईरान अब अमेरिका द्वारा मध्य पूर्व में खींची रेखाओं का उल्लंघन करेगा और न जाकर पीछे से युद्ध में शामिल होगा।

क्योंकि ईरान द्वारा किए हमले पहले में देखा जाये तो कोई भी मिसाइल ऐसी जगह ऐसे समय नहीं दागी गई जिससे अमेरिका को भारी नुकसान हो। ईरान ने जानबूझकर ऐसा किया है ताकि जो युद्ध का संकेत मंडरा रहा है, वो कहीं नियंत्रण से बाहर ना हो जाए।

ईरान सिर्फ अपने लोगों की तसल्ली भर के लिए ऐसे जोख़िम उठा रहा है। ताकि ईरान और सऊदी के मध्य चली आ रही इस्लामी वर्चस्व की इस जंग में कहीं ईरान से जुड़े शिया बाहुल्य देश और कट्टरपंथी संगठन उससे कमज़ोर न समझ लें। क्योंकि पिछले कई महीनों में ईरानियों ने हौर्मुज़ की खाड़ी पर अमेरिकी निगरानी ड्रोन को मार गिराया था, एक ब्रिटिश तेल टैंकर को जब्त कर लिया था और सऊदी अरब के तेल के बुनियादी ढांचे पर बमबारी की थी। इसके बाद 27 दिसंबर को हिज़्बुल्लाह ने अमेरिकी ठेकेदार की हत्या कर दी और इराक के किरकुक प्रांत में अमेरिकी ठिकाने के पास रॉकेट हमले में कई अमेरिकी और इराकी सैन्य व्याक्तियों को घायल कर दिया था।

देखा जाये तो इस लड़ाई में ईरान के पास जो ताक़त है वह है उसके शस्त्र बल 'रिवोल्यूशनरी गार्ड' द्वारा तैयार किए गए सशस्त्र संगठन जो यमन, इराक, फिलिस्तीन समेत कई देशों में फैले हैं। हिज़्बुल्लाह की बात करें तो इस संगठन ने लेबनान के गृहयुद्ध के दौरान 1980 के दशक में रखी थी। आज यह इलाके का सबसे प्रभावशाली हथियारबंद गुट है जो ईरान के प्रभाव को इज़राइल के दरवाजे तक ले जा सकता है। इस गुट के पास रॉकेट और मिसाइलों के अलावा कई हजार अनुभवी लड़ाके हैं जिनके पास जंग लड़ने का खूब अनुभव है। पिछले छह साल से सीरिया में लड़ रहा हिज़्बुल्लाह जंग के मैदान में अपनी काबिलियत को दिखा रहा है।

इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों से सऊदी अरब और अमेरिका के लिए सिरदर्द बने यमन के शिया विद्रोही, जिन्हें हूथी के नाम से जाना जाता है, वह भी ईरान के साथ गहरा संबंध बनाए हुए हैं। ईरान द्वारा उन्हें हथियार दिए जाने की सूचनाएँ हैं। इनमें लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों की भी बात कही जाती रही है, जिन्होंने सऊदी अरब की राजधानी रियाद पर भी पिछले सालों में हमले किए हैं। अगर अमेरिका और ईरान युद्ध के मुहाने पर पहुँचते हैं, तो फिलिस्तीनी संगठन हमास और दूसरे छोटे-छोटे शिया इस्लामिक जिहादी गुट भी ईरान की ओर से इज़राइल पर हमले शुरू कर सकते हैं। हालाँकि माना जाता है कि ईरान इन गुटों को सैद्धांतिक मदद तो दे रहा है, लेकिन इस गुट को आर्थिक या सैन्य मदद के स्तर से मिला रहना मुश्किल है। ऐसे में उम्मीद कम है कि यह क्षेत्रीय युद्ध की स्थिति में ईरान के साथ जाएँगे। लेकिन मध्य पूर्व के नाम पर सुन्नी चरमपंथियों का यह गुट इस्लामिक जिहाद के लिहाज़ से ईरान के जिहादी एजेंडा का समर्थन कर सकता है।

इसके अलावा, इराक़ में शिया मिलिशिया गुट पीएमएफ (पॉप्युलर मोबिलाइज़ेशन फोर्स) भी ईरान के साथ इस लड़ाई में शामिल हो सकता है। एक दशक से यह गुट इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ता आ रहा है। खास बात यह है कि इस गुट में अय्यतुल्लाह, कातेब हिज़बुल्लाह और बद्र संगठन शामिल हैं। इन तीनों का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है, जो जनरल क़ासिम सुलेमानी के क़रीबी माने जाते थे।

सुलेमानी की मौत का बदला लेने के लिए ये गुट ईरान के साथ मिलकर लड़ सकते हैं। कुल मिलाकर, इनमें लगभग 1 लाख 40 हज़ार लड़ाके हैं।

पहले यह संगठन औपचारिक रूप से इराक़ी प्रधानमंत्री के प्रशासन के अधीन थे, लेकिन राजनीतिक रूप से पीएमएफ के अधिकतर गुट ईरान के साथ जुड़े हुए हैं। पहले एक समय ऐसा था जब अमेरिका, सऊदी अरब और पीएमएफ मिलकर इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ जंग लड़ रहे थे, लेकिन अब यह गठबंधन टूट चुका है। इसका सीधा फ़ायदा ईरान को मिल रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में ईरान ने सऊदी अरब से सटे देशों में अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है। अब ईरान अमेरिका को भी खुली चुनौती दे रहा है। देखना यह होगा कि 7 जनवरी को हुए ईरानी मिसाइल हमलों के जवाब में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प क्या कदम उठाते हैं? और नाटो के सदस्य देश अमेरिकी राष्ट्रपति के इस युद्ध में शामिल होने के अनुरोध का क्या जवाब देते हैं?

 


 

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