ख़बर कौन्‍सी बड़ी होनी चाहिए और कौन्‍सी छोटी — यह बात राजनेता और मीडिया मिलकर तय करते हैं। पिछले दिनों पुरानी दिल्ली में हुई आग की घटना में 43 लोगों की मौत के मामले में भी मीडिया चुप्पी साधे रहा, क्योंकि दिल्ली सरकार के करोड़ों के विज्ञापनों का दबाव था कि इस अग्निकांड के लिए कहीं भी दिल्ली सरकार पर उंगली न उठे। दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री दिल्ली में ही चुनावी रैलियां करते रहे, लेकिन किसी चैनल ने इस बारे में सवाल नहीं उठाया। इसके बाद राजधानी के कोटा में 100 से अधिक नवजात बच्चे मौत के मुंह में समा गए, लेकिन सूट-पुट्ट बयानों वाला कोई खास कदम धरातल पर उतरता दिखाई नहीं दिया।

किन्तु जैसे ही अब जवाहरलाल नेहरू में छात्रों का आपसी विवाद गहराया — इस विवाद के बाद राजनीतिक गरमाहट जा रही है। बड़े-बड़े नेता वहां के बयान सामने आते जा रहे हैं। राहूल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी जहां पहले ही घटना की निंदा कर चुके हैं, वहीं गृहमंत्री अमित शाह ने हमले की जांच के आदेश भी दे दिए।

अचानक बवाल के ख़िलाफ़ जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जाधवपुर यूनिवर्सिटी समेत देश भर में फिर अचानक हर बार की तरह एक चिन्हित वर्ग विरोध प्रदर्शन करने पर उतारू हो गया। विरोध का आलम ये बना कि मुंबई में हाथ में पोस्टर लेकर और हिंसा के खिलाफ नारे लगाते हुए गेटवे ऑफ इंडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने आंदोलन किया। यहां तक फ्री कश्मीर के पोस्टर भी इसमें लहराए गए।

सच कहाँ जाए तो कुछ वर्ष पहले अतंकी मक़बूल बट की बरसी मनाने से चला जाए, यह वादा अब फ्री कश्मीर जैसे नारे तक पहुँच गया। हर एक राजनीतिक मुद्दे पर सड़कों पर निकलकर शोर मचाने वाले चाहते हैं कि वह रोज़गार, समाजवाद, भुखमरी के ख़िलाफ़ कोई युक्ति कर रहे हैं। जब कि अगर ध्यानपूर्वक देखा जाए तो इसकी आड़ में ये तत्व एक कलुषित मानसिकता के शिकार बन रहे हैं। हर वक्त इस विषय में ISA (Indian Students Association) और SAFI (Student Federation of India) को व्यवस्थित रूप से देखते हुए पाया जाएगा। उन्हें वजह-बेवजह सरकार से लड़ते हुए दिखाना है, उन्हें खुद को पीड़ित की तरह पेश करना है। छात्रों के पक्ष में यदि सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करे तो उसे अपने जीते-जागते तौर-तरीके पर पेश करना है। किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए तो आज यह घातक छात्र इस अपने भविष्य के बजाय चंद राजनीतिक परिवारों और पार्टियों के लिए जुआ लड़ रहे हैं। एक ऐसी विचारधारा के पोषण के लिए जिसमें नक़्सल और भारत विरोध का वायरस लगा हुआ है।

आईएसए की स्थापना 1990 में हुई थी। अब यह सवाल उठता है कि इतने नए संगठनों को एक हिंसक आंदोलन से जोड़ना क्या उचित होगा? यहाँ महत्वपूर्ण है कि आईएसए की राजनीतिज्ञ दीपांकर भट्टाचार्य और कविता कृष्णन ने प्रेरणा पाई है, उनकी सहानुभूति किस तरफ है, यह किसी से छुपा नहीं है। क्योंकि नाम बदल लेने से राजनीति कब बदल जाती है? कविता कृष्णन खुले तौर पर कश्मीर में चरमपंथ को प्रोत्साहित करती हैं। भारतीय सेना की आलोचना इनका पेशा है। कुछ समय पहले धारा 370 हटाने के 30 दिन होने के बाद कविता ने बंद कमरे में कश्मीर पर एक तसवीर को अपना प्रोफाइल पिक्चर पर लगाया था। इस प्रोफाइल पिक्चर में कश्मीर के हिस्से को रक्त रंगित बताया गया था और साथ ही अंधकार के 30 दिन, कश्मीर को धोखा और कश्मीर के साथ खड़े रहने जैसे संदेश वाले हैशटैग दिए गए थे।

दूसरा भागपा माले के राष्ट्र्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य भी समय-समय पर अपने बयानों से नक़्सलवाद को समर्थन करते रहते हैं। किन्तु जब मीडिया में जेनयू को लेकर चल रही बहसों को देखते हैं तो विचार आता है कि यह वामपंथ का विचार प्रभावी होने के बावजूद सिमटा क्यों जा रहा है?

कभी इस आंदोलन में किसी नेता, मजदूर या दक्षिण अफ्रीका की ग़रीबी से लेकर एथोपिया के कु oppression तक की चिंता थी। लेकिन आज ईरान, इराक, सीरिया में चल रही गतिविधियों पर इनकी पैनी नज़र है।

अमेरिका इज़रायल विरोध है, हिंदू संस्कृति का विरोध हो या कश्मीर में क़ट्टरपंथ का बढ़ावा देने की इन तमाम चिंताओं के साथ महंगी शराब और अच्छी सिगरेट के लिए दुनियाभर के फेलोशिप जुटाने में लगे हैं।

इन सबके बीच उन्हें देश की ग़रीबी का ध्यान अचानक उस वक़्त आता है, जब छातावास (Hostel) की फ़ीस 30 रुपए से बढ़ाकर 300 रुपए कर दी जाती है।

यदि वास्तव में उन्हें लड़ाई ग़रीबी के ख़िलाफ़ और अच्छी शिक्षा के लिए है, फिर यह सारी सुविधाएँ महज़ दो-चार विश्वविद्यालयों तक सिमट क्यों रही हैं? क्यों कि इन मुट्ठी भर विश्वविद्यालयों में उन छातरों का बहुमत है, जिन्हें ये अपने लोग कहते हैं।

ज़रा सी बात का हौवा खड़ा करना हो या भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीचा दिखाना — वामपंथी संगठनों के पास अपनी बात कहने के लिए सख़्त कैडर है और उसी के जरिए देश भर में फैलाने के लिए एक मजबूत तंत्र भी। ताजा मामले को ही देखें, तो किस तरह रातों-रात बैनर पोस्टर छप गए और सुबह दिल्ली से लेकर मुंबई समेत देश भर में नाटक किया गया। इसमें इनके पत्रकार, अभिनेता-अभिनेत्रियाँ समेत प्राध्यापक, एनजीओ कर्मियों का एक विशाल नेटवर्क शामिल है।

इसके माध्यम से कोई भी बात वे बार-बार कहकर समाज के मन में इस तरह बिठा देते हैं कि हम इस बात का कोई दूसरा पक्ष हो सकता है, इस पर विचार ही नहीं कर पाते। पिछले कुछ दिनों से जेएनयू में पढ़े छात्रों की ग़रीबी और उस ग़रीबी से निकल कर सफल हुए लोगों के ऐसे ही किसी पढ़ने को मिल रहे हैं।

यह सब पढ़कर ऐसा लग रहा है कि ग़रीबी सिर्फ जेएनयू के वामपंथी छात्रों के हिस्से है, बाक़ी सारा देश समृद्ध है। यही कारण है कि जेएनयू, आईसा, एसएफआई का ज़ोर है। इसलिए बार-बार वह खुद को अपने नाखूनों से नोंचकर नाटकीय रूप से वह हमले का शिकार हो रहा है।

 

 


 

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