यह सब हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इतिहास को कैसे याद रखें या उसे किस तरह दूसरों को याद रखने में मदद करें। लोग कहते हैं कि भारत में आजकल साम्प्रदायिकता तेज़ी से बढ़ रही है। देश की आपसी समरसता गड्ढे में जा रही है। लोकतंत्र को खतरा है और संविधान त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है।

जब तक न्यूज़ चैनल वाले और नेता इस बात को दिन में कई बार नहीं रटेंगे, उनका खाना हजम नहीं होता। यानी दिन में तीन बार तो जैसे यह बताना अनिवार्य है।

हाल ही में सैफ अली खान ने इस बात को स्वीकार किया है कि फिल्मों में तानाजी में इतिहास की गलत व्याख्या की गई है। उन्होंने कहा कि किसी भी फिल्म की व्यावसायिक सफलता में इतिहास की गलत व्याख्या को उपकारण के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।

मैं व्यक्तिगत तौर पर सैफ की बात से सहमत हूँ। लेकिन अब मुझे उनकी बात से भी सहमत होना पड़ रहा है, जो लोग फिल्म पद्मावत को लेकर या पानीपत को लेकर बवाल कर रहे थे। उनकी भी दलील यही थी कि उपरोक्त फिल्मों में इतिहास को तोड़-मरोड़ कर दिखाया गया है। बस अंतर यह है कि जब उनकी बात किसी ने नहीं सुनी तो उन्हें यह बात कहने के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़ा और सैफ ने यह बात बड़े आराम से कहकर खत्म कर दी।

अगर आप सैफ की बात से सहमत हैं, तो उनकी बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए वरना यह भी एक किस्म की सांप्रदायिकता होगी। हां, अब सांप्रदायिकता से याद आया — जब एक सवाल उनसे यह पूछा गया कि क्या इंडस्ट्री के भीतर भी ध्रुवीकरण और सांप्रदायिकता बढ़ रही है? तो इस पर सैफ ने कहा कि हां, ऐसा है।

उन्होंने कहा कि विभाजन के बाद मेरे परिवार के जो लोग भारत छोड़कर चले गए, उन्हें लगा था कि बंटवारे के बाद भारत सेक्युलर नहीं रहेगा। दूसरी तरफ़ मेरे परिवार के कुछ लोगों ने भारत में ही रहने का फ़ैसला इसलिए किया क्योंकि उन्हें लगा कि यह सेक्युलर देश है और कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अभी जिस दिशा में चीज़ें बढ़ रही हैं, उनसे लगता है कि शायद सेक्युलर न रहा जाए।

यह बहुत बढ़िया जवाब है, लेकिन एक झोल इसमें भी दिखाई दिया। क्योंकि आज के भारत में हर कोई यही कह रहा है।

हाल ही में मैंने नागरिक संशोधन क़ानून पर मचे बवाल के बीच बीबीसी पर शाहीन बाग़ का एक वीडियो देखा। उस वीडियो में एक महिला बता रही थी कि बस, बहुत हो गया। चाहे साल हो गए सहते-सहते। कभी अख़लाक़ हो जाता है, तो कभी नजीब और कभी धारा 370 हटा दी जाती है। अब नहीं सहेंगे।

सोचिए, यह विरोध किसका है और सांप्रदायिक कौन है? डेनमार्क में बने कार्टून का बदला भारत में लिया जाता है। धारा 370 और अख़लाक़ की मौत का बदला, महिलानुसार शाहीन बाग़ में ग़ुस्से के रूप में दिखाई देता है। जेनयू में छात्रों के आपसी टकराव पर जब गेटवे ऑफ़ इंडिया पर प्रदर्शन होता है, तब उसमें फ़्री कश्मीर का पोस्टर लहराया जाता है। जब कि अख़लाक़ पर भारत शर्मिंदा हुआ और प्रधानमंत्री ने गौरक्षकों को गुंडे तक कहा।

विरोध में अनजाने हिन्दू कलाकारों और कलमकारों ने अवॉर्ड तक वापस किए। किन्तु जब डॉ. नारंग या कमलेश तिवारी की हत्या होती है, तब कितने मुसलिम कलाकारों ने शर्मिंदगी जाहिर की या अवॉर्ड वापसी की?

सैफ अपने मज़हब पर अडिग रहा और बेटे का नाम तैमूर रख दिया। मैं धर्मनिरपेक्षता समर्थक अगर सैफ बाहर आकर कहते कि नहीं, मैं ऐसा कोई नाम नहीं रखूंगा जिस नाम के इंसान ने अपनी मज़हबी सनक के कारण इस देश के लाखों लोगों का रक्त बहाया हो। लेकिन नहीं, लाख विरोधों के बीच भी तैमूर नाम रखा गया।

यह बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई इज़रायल में अपने बच्चे का नाम हिटलर रखे और कहे कि मैं यहूदियों के प्रति समर्पित हूं।

आप हो या कोई और, अभीनेता या नेता — सब अपने-अपने धर्म-मज़हब के पक्के होकर आम जनमानस से धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा करें, तो शायदा सांप्रदायिकता ही देखने को मिलेगी। हां, आप जैसे लोग जब खुलकर धर्मनिरपेक्ष हो जाएंगे, तो शायद सांप्रदायिकता की इस देश में गुंजाइश ना बचे।

सैफ साहब, आपका बयान अच्छा है लेकिन अख़बारों में छापने के लिए। एक विशेष बौद्धिक तबके को खुश करने के लिए है ताकि लोगों को लगे आप देश को लेकर चिंतित हैं, लेकिन क्या आप इसका वास्तविक जीवन में पालन करते हैं?

 


 

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