सावरकर अम्बेडकर और वामपंथ

सावरकर, अंबेडकर और वामपंथ

एक समय वो भी आया जब वामपंथ का समावाद का निशा कई देशों में फैला, राष्ट्रों के खिलाफ क्रांतियां हुईं। कई गरीब समाजवाद के पैरोकार बने। वामपंथी कई देशों में सत्ता में भी हुए, क्यूबा भी एक देश था। प्रमुख कम्युनिस्ट नेता फिदेल कास्त्रो यहां के राष्ट्राध्यक्ष थे। बताया जाता है 1993 में फिदेल की ओर से भारत के कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु को क्यूबा आने का निमंत्रण मिला था, तो उनके साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी भी थे।

फिदेल के साथ भारतीय वामपंथियों की वो बैठक देर घंटे चली, "कास्त्रो इनसे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे। भारत कितना कोईला पैदा करता है? वहां कितना लोहा पैदा होता है? किसी मजदूर की आय से लेकर अनकों प्रश्न कर डाले। एक समय ऐसा आया कि ज्योति बसु ने बंगाली में येचुरी से कहा, "एकी आमार इंटरव्यू नीचे ना कि" (ये क्या मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं क्या?) जाहिर है ज्योति बसु को वो आंकड़े याद नहीं थे। तब फिदेल ने येचुरी तरफ रुख कर कहा भाई ये तो बुढ़ुर्ग हैं। आप जैसे नौजवानों को तो ये सब याद होना चाहिए।

फिदेल के साथ इस एक मुलाक़ात ने भारत के वामपंथ की धज्जियां उड़ा दी थीं, क्योंकि ये सब बातें सिर्फ़ इनके नारों में थीं। ज़मीनी धरातल पर इन्हें शोषित गरीब किसान से कोई लेना देना नहीं था। यही कारण था कि डॉ. भीमराव अंबेडकर वामपंथियों की जमकर आलोचना करते थे। अंबेडकर का स्पष्ट मानना था कि वामपंथी विचारधारा संवैधानिक लोकतंत्र के खिलाफ़ है और अराजकता में विश्वास रखती है। इनका समाजवाद दिखावे का ढोंग है। क्योंकि पोलित ब्यूरो में किसी भी दलित को स्थान नहीं था। यही नहीं बाबा साहेब वामपंथ, मुस्लिम लीग सहित इन विचारधाराओं की कटु आलोचक थे, जब कि उन्होंने कुछ मुद्दों पर सावरकर से सहमति जताई थी।
सावरकर की राष्ट्रवादी विचारधारा वामपंथियों के निशाने पर तब भी थी, आज भी है। वहीं अंबेडकर, सावरकर की हिंदू एकजुटता के अभियान से सहमत थे।

आज हालात बदल गए। अब अगर वर्तमान परिवेश की बात करें, वामपंथी राजनीति की दौड़ से लगभग बाहर हो गए। इक्का-दुक्का राज्य छोड़ दें तो भारत से लगभग साफ़ हो चुके हैं। यानि वामपंथ की विचारधारा लोगों ने अस्वीकार कर दी है क्योंकि वामपंथ की सोच में धर्म, राष्ट्र और भारत नहीं है। अब इस बिना भारत की सोच के भरोसे जनता के बीच जाने की हिम्मत अब वामपंथियों में भी नहीं बची तो एक नया एजेंडा इन लोगों द्वारा शुरू किया गया जिससे नाम दिया गया ‘कट्टर हिन्दुत्ववाद’, मनुवाद, सवर्णवाद और जो धर्म भारत या राष्ट्र की बात करेगा उसे दक्षिणपंथी राइट विंग कहना शुरू कर दिया।

चूंकि वामपंथी जनहित में नहीं थे, समाजवाद का इनका गांजा बिकना बंद हो गया था, तो अब अंबेडकर के बहाने दलितों को और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को रिझाने का काम शुरू किया। समाजिक न्याय का एक नया बहाना बनाया और भारत में समस्त समस्या की जड़ के रूप में हिंदुत्व को दर्शाना शुरू किया।

90 के दशक के बाद वामपंथियों ने जब देखा कि मार्क्स और लेनिन का लोगों की नजरों में कोई वजूद नहीं बचा, लोगों को भारतीय धरातल से जुड़े नायक चाहिए, तो इन्होंने डॉ. अंबेडकर को अपना नायक बनाया। हालाँकि अंबेडकर से न तो कोई वैचारिक अंतर राष्ट्रीय स्तर पर जुड़ा था और न ही वामपंथियों ने अंबेडकर की छवि को ऐसा बनाने की कोशिश की जैसे भारत इसकी एकता अखंडता से कोई सरोकार रखता हो। दूसरी तरफ, दामोदर वीर सावरकर की छवि को बदनाम करना शुरू किया। सावरकर का गुनाह सिर्फ़ यह था कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य से देश को मुक्त करवाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाया और गांधीवाद के विरोधी थे। राष्ट्रवादी थे, मूर्खों को अपना आदर्श मानने से इंकार करने वाले थे। इन वजहों से सावरकर को दुष्प्रचार कहना लगा।

 

 

 


 

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  • सावकर और अम्बेडकर कभी एक दूसरे से नहीं मिले

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